भारत के आर्थिक विकास के फलसफे पर आईएमएफ की ताजा रिपोर्ट सवालिया निशान की तरह है, जिसमें उसने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और अन्य राष्ट्रीय लेखा संबंधी आंकड़ों को निचले क्रम की सी-ग्रेडिंग दी है।
हालांकि आईएमएफ की इस रिपोर्ट के मुश्किल से 24 घंटे बाद आए 2025-26 की दूसरी तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था सारे अनुमानों को दरकिनार कर तेजी से आगे बढ़ रही है।
दूसरी तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था 8.7 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ रही है और निजी उपभोग में खासा बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
निस्संदेह ये आंकड़े सरकार के अपनी पीठ ठोंकने के लिए काफी हैं, जिसमें विनिर्माण, इंफ्रास्ट्रक्टर औऱ सर्विस सेक्टर का खासा योगदान है। लेकिन इन आंकड़ों को आईएमएफ के आकलन से मिलाकर देखें, तो मायूस करने वाली तस्वीर उभरती है और इस बात का कोई कारण नहीं है कि उसके आकलन को खारिज कर दिया जाए। दरअसल आईएमएफ की यह रिपोर्ट दुनिया की सबसे तेज गति से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर नसीहत है।
साफ शब्दों में कहें, तो आईएमएफ ने भारत की आर्थिक रफ्तार को संदेह के घेरे में डाल दिया है। उसने भारत में जीडीपी के आकलन के तरीके पर सवाल उठाया है और उसका कहना है कि आधार वर्ष 2011-12 के आधार पर जीडीपी और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) की गणना आधुनिक अर्थव्यवस्था को सही ढंग से प्रतिबिंबित नहीं करती।
यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि भारत में पूर्ण उत्पादक मूल्य सूचकांक (पीपीआई) नहीं होने से थोक भाव सूचकांक (डबल्यूपीआई) से काम चलाया जाता है और इससे सही नतीजे मनहीं मिलते।
खपत और उत्पादन के आधार पर निकाले जाने वाले जीडीपी के आंकड़ों में अंतर जिन विसंगतियों की ओर इशारा करते हैं, उन्हें दूर किए बिना सही आकलन करना मुश्किल ही है। निश्चित रूप से दूसरी तिमाही के आंकड़ों ने विकास दर के पुराने अनुमान को काफी पीछे छोड़ दिया है। लेकिन ये आंकड़े आश्वस्त नहीं करते कि इससे देश की उस 100 करोड़ की आबादी का जीवन खुशहाल हुआ है, जिसके बारे में इसी साल फरवरी में आई ब्लूम वेंचर्स की रिपोर्ट में कहा गया था कि वे अपनी मर्जी से खर्च करने की ताकत नहीं रखते।
दरअसल जीडीपी की रफ्तार को इस नजरिये से भी देखने की जरूरत है कि आकलन की हमारी मौजूदा प्रणाली से कहीं आर्थिक असमानता तो नहीं बढ़ रही है।

