यह अभिव्यक्ति के खतरों के दौर में चुपके से निकल कर टीवी की स्क्रीन पर पांचवें नंबर पर टिकी उम्मीद है आप इसे सिनेमा कह सकते हैं। आप इस फिल्म में शुरू से अंत तक उम्मीदों को ढूंढते हैं। कभी दुआएं करते हैं कभी गुजरे हुए वक्त और मौजूदा दौर को लानतें भेजते हैं, कुछ आंसू गिराते हैं कभी कभी मुस्कुराते हैं।। तभी फिल्म खत्म हो जाती है। यह होमबाउंड (Homebound) है।
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई इस फिल्म में दो दोस्तों की कहानी है। एक दलित है एक मुस्लिम। दोनों ही हाशिए के समाज से हैं। जिनके पास अवसर और सुविधाएं देर से पहुंचती हैं। पुलिस की लाठियां मुस्लिम की पीठ पर ज्यादा तेजी से पड़ती हैं दलित दोस्त जानता है कि कभी भी शेष जातियां उसे स्वीकार नहीं करेंगी। सवर्णों के समाज में वह दलितों को बुरा बोलने से नहीं चूकता अपने मुस्लिम दोस्त के लिए खुद को मुस्लिम कहने से भी गुरेज नहीं करता।
एक मां है जिसकी एड़ियां फटी हुई हैं। एक प्रेमिका है जो अपने प्रेमी से चाहती है कि वह पढ़े। एक अदृश्य सरकार है जो एक नौकरी की परीक्षा भी ठीक से नहीं करा पाती। इस देश के करोड़ों युवाओं का बेसब्री भरा इंतजार है कि कम्बखत कभी तो दिन बदलेंगे। देश के मध्यम वर्ग में छिप कर बैठी नफरत है। एक ब्राह्मण है जो एक मुस्लिम लड़के में संभावनाएं देखता है। एक तानाशाह भी है जो पूरी फिल्म में कहीं नहीं दिखता लेकिन जिसके बेसिरपैर के फैसलों को इस देश ने बार बार झेला है।
एक फ्लॉप युवा हीरो और एक जबरदस्त युवा विलेन को पर्दे पर मानवीय दिखाना आसान नहीं होता। मगर निर्देशक ने यह करिश्मा कर दिखाया गया है। यह फिल्म कोविड के दौर के उस भारत की ओर आपको ले जाती है जो आपने केवल खबरों में देखा पढ़ा। जबकि हिंदुस्तान में उस दौर की लाखों कहानियों को न कहा गया न कहा जाएगा।
बरसों बाद फिल्म देखते हुए बगल में बैठे साथियों की आंखों से अविरल बहते आंसुओ से वाबस्ता हूं। बहुत दिनों बाद किसी फिल्म को देखकर खामोश रहने का मन है। बहुत दिनों बाद समझ में आया उम्मीदें मौत के बाद आती है। बहुत दिनों बाद लगा कि कभी कभी कहानियां जिंदा हो जाती हैं।
यह भी पढ़ें : हनुमान को भगवान न मानने पर फिल्म निर्माता राजमौली के खिलाफ FIR

