मान लिया जाये कि बिहार में चुनाव पूरी ईमानदारी से हुए हैं और एनडीए की धमाकेदार जीत जनता की इच्छा का ही परिणाम है तो यह तस्वीर ‘वोट-चोरी’ से ज़्यादा ख़तरनाक है। यह लोकतंत्र के मध्य युगीन राजतंत्र और नागरिक के ‘प्रजा’ में बदलने का संकेत है जहाँ सरकार और जनता का रिश्ता ‘दाता’ और ‘पाता’ में ढल चुका है।
जनता मालिक होने के बजाय एक ऐसे दास में तब्दील हो चुकी है जिसमें स्वतंत्र होने की कोई इच्छा भी नहीं बची है। वह दो वक़्त की रोटी देने वालों के लिए इतनी आभारी है कि उसके लिए जान दे सकती है, वोट क्या चीज़ है।
नोएडा में हमारी गृह-सहायिका बिहार से हैं। छठ पर भी बिहार गयी थीं लेकिन लौट आयीं। कोई इरादा नहीं था कि वोट देने के लिए बिहार जाना है। लेकिन अचानक उन्होंने ऐलान कर दिया कि वोट देने जाना होगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि उन्हें सपरिवार बिहार ले जाने और वापस लाने की ‘व्यवस्था’ किसी और ने की थी। और वह ‘और’ कोई और नहीं बीजेपी का तंत्र था यह उनकी बात से स्पष्ट हो गया। उन्होंने बताया कि बिहार जाकर वोट नहीं दिया तो सरकारी फ़ायदे वाले लिस्ट से नाम कट जाएगा।
पांच किलो राशन हो या कुछ और। यहां यह बात भी समझनी होगी कि नोएडा में रहने के बावजूद उनके गांव में उनके नाम का राशन घर के दूसरे लोग ले लेते हैं। उन्होंने यह भी साफ़ कर दिया कि वोट बीजेपी को ही देना है नहीं तो बाक़ी एक लाख नब्बे हज़ार डूब जाएँगे। उन्हें बताया गया था कि दस हज़ार रुपये पहली क़िस्त है। मिलना दो लाख है। पर इसके लिए एनडीए की सरकार बनना ज़रूरी है!
गृह-सहायिका किसी जाति की हैं, कभी पूछा नहीं। वैसे भी खेत-मेड़ के लिए लाठियाँ जाति भाइयों में भी कम नहीं चलतीं। दो लाख की लटकती गाजर अगर मुँह में आ रही हो तो लटकाने वाले की जाति क्या देखना। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि महिलाओं को मिलने वाला यह पैसा सिर्फ़ महिलाओं का नहीं है।
यह परिवार के लिए आशा है जिसमें पुरुष भी शामिल हैं। अगर अमुक सरकार बनने से सीधे दो लाख रुपये घर आने की उम्मीद हो तो फिर पुरुष भी प्रभावित होगा। यह करोड़ों वोटरों को अपने पाले में बाँधने का पुख़्ता इंतज़ाम था। रिश्वत और ब्लैकमेल का यह खुला खेल चुनाव आयोग की उन आँखों में चुभता भी कैसे, जिन पर मोदी नाम का चश्मा चढ़ा हुआ है।
नीतीश कुमार की निश्चित ही यह उपलब्धि है कि वे बीस साल से मुख्यमंत्री हैं और कोई बड़ी अड़चन नहीं हुई तो चौथाई सदी भी इस पद पर रहते हुए पूरा कर सकते हैं। जो लोग फिर से ‘नीतेश कुमार’ आने की अपनी भविष्यवाणी सही होने पर ख़ुश हैं, उन्हें यह भी तो बताना चाहिए कि नीतीश कुमार ने बिहार को इन बीस सालों में कहाँ से कहाँ पहुँचाया?
आज भी बिहार सबसे ग़रीब प्रदेश क्यों हैं? शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था बदहाल क्यों है? औद्योगीकरण चार कदम भी आगे क्यों नहीं बढ़ा जबकि ग्यारह साल से डबल इंजन की सरकार है? हाल ही में क़रीब बीस पुल टूटे और बीजेपी नेता आर.के. सिंह ही बिजली विभाग में 62 हज़ार करोड़ के घोटाले का आरोप लगा रहे हैं जो बताता है कि भ्रष्टाचार किस स्तर पर है।
बिहार की यह तस्वीर बताती है कि नीतीश कुमार केवल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दिन काटते हैं। पिछले दिनों केरल से ख़बर आयी थी कि वहाँ ‘चरम ग़रीबी’ का उन्मूलन कर दिया गया है। पूरी तरह साक्षर प्रदेश है और स्वास्थ्य व्यवस्था में भी अव्वल है। लगातार इस प्रदेश ने मानव विकास सूचकांक में प्रगति की है। शिशु मृत्यु दर के मामले में तो केरल, अमेरिका से भी बेहतर है। जबकि केरल में आमतौर पर पाँच साल में सरकार बदल जाती है। पिछली बार ही ऐसा नहीं हुआ था। ऐसे में नीतीश कुमार के इतने लंबे कार्यकाल के हासिल पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए।
बिहार का जो हाल हाल है, उसमें विपक्ष को मौक़ा मिलना स्वाभाविक होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तेजस्वी यामा हा-गठबंधन के प्रयासों और कार्यशैली से शिकायत रखने वालों को नहीं भूलना चाहिए कि ‘जनसुराज’ तीन साल से पलायन और रोज़गार जैसे संवेदनशील मुद्दों को लेकर गाँव-गाँव जा रहा था लेकिन प्रशांत किशोर की सारी मेहनत का नतीजा भी शून्य रहा। इसका मतलब है कि मसला कहीं ज़्यादा गहरा है जिस पर विचार किया जाना चाहिए।
बिहार ने आज़ादी की लड़ाई में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वामपंथी और समाजवादी आंदोलन की भी भूमि रही है। लेकिन आज जनता के एक बड़े हिस्से के लिए चुनाव पाँच साल में एक बार होने वाला खेल है जिसमें अपने पक्ष की जीत का नशा ही सब-कुछ है। अपने कुनबे के विधायक और मंत्री बनाने का खेल ख़त्म होने के बाद सब अपने-अपने घर। उसके बाद शासन-प्रशासन में न उसकी कोई भागीदारी है और न इसकी माँग।
राजनीतिक रूप से जागृत बिहार में यह बेजा़री यूँ ही नहीं है। बीजेपी ने केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद देश भर में जैसा माहौल बनाया जा रहा है, यह उसकी स्वाभाविक परिणति है। बिहार में लगातार सरकार में रहते हुए धर्म के आधार पर गोलबंदी के लिए वह लगातार सक्रिय है।
धार्मिक मुहावरों का इस्तेमाल वोट ही नहीं दिलाता, लोकतंत्र को ‘पर-लोकतंत्र’ भी बनाता है। गाँव-कस्बों तक में जिन कथावाचकों की धूम मची है, वे यही समझा रहे हैं कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है। इसलिए अपनी परेशानी के लिए किसी सरकार को ज़िम्मेदार नहीं मानना चाहिए। जीवन-मृत्यु भगवान की लीला है।
भारत को तमाम क़ुर्बानियों के बाद आज़ादी मिली थी। महात्मा गाँधी के महा-प्रयास से जनता यह बात अच्छी तरह समझ गयी थी कि अंग्रेज विदेशी हैं और उनके शासन को ख़त्म करना होगा। उस पीढ़ी को यह भी समझ था कि अंग्रेजों के जाने के बाद राजा-महाराजाओं का राज भी नहीं होगा और उन्होंने कर दिखाया। लेकिन आज की चुनौती यह समझाना है कि आज़ादी का करना क्या है?
लोकतंत्र सिर्फ़ वोट देने का नाम नहीं लोक-व्यवहार भी है? जनता को बिना किसी भेदभाव के वोट का जो अधिकार मिला उसके लिए कई देशों में सैकड़ों साल तक संघर्ष चला लेकिन यहाँ एक झटके में सब-कुछ हासिल हो गया। सवाल उन अधिकारों के महत्व को समझाने का है। एक आधुनिक संविधान बना लेना ही काफ़ी नहीं है, उसके योग्य बनाना भी होगा।
यानी चुनौती महात्मा गाँधी के दौर से बड़ी है जबकि प्रयास उसके मुक़ाबले छोटे हैं। विपक्ष बता रहा है कि देश में फ़ासीवाद आ रहा है लेकिन जनता को ऐसा कुछ नहीं लगता। ऐसे में सोचना चाहिए कि समस्या कहाँ है? क्या जनता फ़ासीवाद का मतलब समझती भी है?
अगर मनुवाद का ख़तरा है तो गहन चर्चा जनता के उस वर्ग के बीच भी क्यों नहीं है जो हज़ारों साल से इसकी चक्की में पिस रही है? क्या भाषा और मुहावरों को बदलने की ज़रूरत है जिस से देश पर हावी लूट तंत्र की भयावह ताक़त जनता भी महसूस कर सके? वह निरंतर चलने वाला वैचारिक अभियान और जनता से गहन संवाद की लंबी शृंखला कहाँ है जो प्रजा को नागरिक बनाने के लिए ज़रूरी है। जबकि इस प्रयास को उलटने के लिए आरएसएस और बीजेपी का संवाद तंत्र चौबीस घंटे सक्रिय है।
विपक्ष के परिसर में सिर्फ़ दल नहीं होते, इसमें मीडिया, न्यायपालिका और सरकार पर अंकुश रखने वाली तमाम संवैधानिक संस्थाएँ भी आती हैं। यह अफ़सोस की बात है कि विपक्षी दल इस परिसर में अकेले खड़े हैं। लेकिन इस चुनौती का मुक़ाबला करने के अलावा उसके पास कोई रास्ता भी नहीं है।
बिहार में विपक्षी गठबंधन को हार के बावजूद करोड़ों वोट मिले हैं। स्थिति उस से बहुत बेहतर है जब गाँधीजी चंपारन गये थे। सवाल नीयत का है। निजी महत्वाकाँक्षाओं की जकड़बंदी से निकल कर ही इस संघर्ष को तेजस्वी बनाया जा सकता है। ज़रूरत हर मोर्चे पर बड़ी रेखा खींचने की है। इतिहास बताता है लड़ाइयाँ हम नहीं चुनते, बल्कि लड़ाइयाँ हमें चुनती हैं। इस लड़ाई से मुँह चुराने वालों को विपक्ष कहलाने का हक़ नहीं है।
- लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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