यह हर साल की कहानी है, और कुछ भी नहीं बदल रहा है। पोर्ट्स दिखा रही हैं, दिल्ली-एनसीआर सहित देश के अनेक इलाके भीषण वायुप्रदूषण का सामना कर रहे हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक हमारी सेहत के लिए एक्यूआई का स्तर 50 से अधिक नहीं होना चाहिए।
हालत यह है कि पिछले कई हफ्तों से दिल्ली-एनसीआर में एक्यूआई 300 से 400 अंकों से भी ऊपर है। बीते दो दिनों के ही आंकड़ें देखें तो देश की राजधानी दिल्ली के कई इलाकों में एक्यूआई ने 425 का आंकड़ा छू लिया था। वास्तव में देश की आर्थिक राजधानी मुंबई सहित अनेक छोटे-बड़े शहरों का भी कोई अच्छा हाल नहीं है।
मुंबई के कई हिस्सों में भी दो दिनों के दौरान एक्यूआई 200 के करीब पहुंच गया था। यहां तक कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में यह 100 से ऊपर है औऱ यह कोई संतोषजनक स्थिति नहीं है।
पिछले महीने दिवाली के बाद आई स्विस कंपनी आईक्यूएयर की रिपोर्ट में राजधानी दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर के रूप में शीर्ष पर थी। वास्तव में यह कोई नई बात नहीं है, और न ही जन स्वास्थ्य से सीधे जुड़े मुद्दों पर सरकारों की काहिली भी। दरअसल साफ हवा और जनस्वास्थ्य से जुड़े दूसरे मानक केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकताओं में ही कहीं नजर नहीं आते।
संभव है आने वाले दिनों में राजधानी में ग्रैप 3 (ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान) लागू कर दिए जाएं और कंस्ट्रक्शन गतिविधियों और डीजल गाड़ियों के प्रवेश पर रोक लगाने जैसे कदम उठाए जाएं। ये सारे उपाय पहले भी आजमाए जा चुके हैं, तकरीबन हर साल और फिर अगले मौसम तक सब कुछ भुला दिया जाता है।
जबकि जरूरत न केवल इस समस्या से निपटने के लिए समग्रता से सोचने और दूरगामी उपाय तलाशने की है, बल्कि यह देखने की भी है कि यह समस्या केवल महानगरों की नहीं, बल्कि हरियाणा के सिरसा जैसे शहर की भी है, जहां लोगों की सांस प्रदूषण से फूल रही है।
हैरानी इस बात की है कि इसे समग्रता में नहीं देखा जा रहा है? क्या यह हमारे सम्मानजनक ढंग से जीने के संवैधानिक अधिकार के दायरे में नहीं आता? क्या यह बताने की जरूरत है कि देश के करोड़ों लोग विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवा में पीएम 2.5 कणों की उपस्थिति के तय मानक से 20 से 30 गुना ज्यादा प्रदूषण के साथ जीने को मजबूर हैं?
दरअसल यह मामला हमारी सरकारों की प्राथमिकताओं से भी जुड़ा है, जिन्होंने नकद योजनाओं जैसे सीधे वोट हासिल करने वाले उपाय ईजाद कर लिए हैँ। लिहाजा उनकी प्राथमिकता में सार्वजनिक परिवहन का विस्तार और महानगरों पर बढ़ते दबाव को कम करने के उपाय नजर नहीं आते।

