अब जबकि बिहार में विधानसभा चुनाव का प्रचार पूरे शबाब पर है, कुछ मुद्दे नाटकीय तरीके से सामने आने लगे हैं। इन्हीं में से एक है, प्रवासी मजदूरों का मुद्दा अमूमन नीतियों और कार्यक्रमों में अक्सर जिनकी चरचा नहीं होती। राजनीतिक दल खासतौर से भाजपा की अगुआई वाले एनडीए ने छठ पूजा के लिए बिहार आए प्रवासी मजदूरों से संपर्क करने के लिए आक्रामक तरीके से घर घर जाने का अभियान शुरू कर दिया है।
बिहार में छह और 11 नवंबर को मतदान होना है। इन चुनावों में प्रवासी मजदूरों की भी अहम भूमिका है। पूर्वी चम्पारण जिले में 6.14 लाख प्रवासी हैं, तो सीवान में 5.48 लाख और दरभंगा जिले में 4.3 लाख। पता चला है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने प्रवासियों के बिहार प्रवास के लिए उनके नियोक्ताओं के साथ बात कर उनकी यात्रा की व्यवस्था में मदद की है। संदेश साफ है, आपका वोट कीमती है! लेकिन यह रिश्ता सिर्फ चुनाव तक है।
चुनाव के दौरान प्रवासी मजदूरों की यह पूछ-परख रणनीतिक होने के साथ ही कपटपूर्ण भी है। बिहार में दशकों से प्रवासी मजदूरों को सिर्फ चुनावों में इस तरह याद किया जाता है, वरना तो राज्य की नजर से वे दूर ही होते हैं। नौकरी की सुरक्षा, आवास, स्वास्थ्य सुरक्षा और उनके वोटर लिस्ट से उनके नाम कट जाने जैसे मुद्दों के ढांचागत समाधान के बारे में शायद ही विचार किया जाता है। उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता तब समझ आती है, जब कड़े मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में उनकी संख्या नतीजों को प्रभावित कर सकती है।
इस बार छठ पूज ऐन चुनाव के बीच में होने से लाखों प्रवासी मजदूरों के लिए दुविधा पैदा हो गई है। उन्हें तय करना है कि वे वोट देने रुकें या दिल्ली, गुरुग्राम और चेन्नई जैसे उनकी नौकरी वाले शहरों में लौट जाएं, ताकि उन्हें आर्थिक नुकसान न हो। यह फैसला अनेक लोगों के लिए वाकई बहुत कठिन है।

चेन्नई में एक बिहारी कंस्ट्रक्शन मजदूर ने एक रिपोर्टर से कहा, हममें से ज्यादातर लोग कंस्ट्रक्शन सेक्टर की साइट पर रुक गए हैं। हम छुट्टियों के दिन भी काम करते हैं और कई बार तो सूर्यास्त के बाद तक ताकि परिवार के लिए कुछ पैसे और कमा सकें। यहां से पटना जाने में नौ दिन की मजदूरी करीब 15 हजार रुपये और पांच से सात हजार रुपये अलग से खर्च हो जाते हैं। हम यह खर्च वहन नहीं कर सकते।
भाजपा की नजर छठ पर लौटने वाले लाखों प्रवासियों पर है। भाजपा के 150 नेताओं की एक टीम त्योहारों का फायदा उठाकर उन्हें मतदान केंद्रों तक लाने की कोशिश कर रही है। दूसरी तरफ, आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन ने पहले ही सत्ताधारी एनडीए पर मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण (एस आई आर) का इस्तेमाल करके गरीब और ओबीसी, एससी और एसटी जैसे हाशिये के समूहों के प्रवासियों के नाम काटने का आरोप लगाया है।
आखिर भारत की कल्पना में प्रवासी मजदूरों की जगह है कहां?
पांच साल पहले आई कोविड-19 महामारी ने भारत के घरेलू प्रवासियों की दुर्दशा को उजागर कर दिया था। 25 मार्च, 2020 को जब अचानक राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन घोषित किया गया था, तब करोड़ों प्रवासी मजदूर शहरों में बिना किसी काम और आश्रय के फंस गए थे और बेबसी में अपने घरों को लौटने को मजबूर हो गए थे।

इनमें बड़ी संख्या में बिहार के प्रवासी मजदूर थे। तब प्रवासी मजदूरों को सैकड़ों किलोमीटर तक पैदल चल कर अपने गांवों को ओर लौटते देखा गया था। यह पलायन राज्य की उदासीनता के प्रतीक बनकर सामने आया था। उन दृश्यों को देख कर देश की चेतना स्तब्ध रह गई थी।
तब बेहतर सुरक्षा, कल्याण और समावेशी शहरी नियोजन की मांग उठी थी। लेकिन जैसे ही संकट कम हुआ, वैसे ही यह तात्कालिकता भी खत्म हो गई। हाल ही में “द इंडिया फोरम” में स्वतंत्र श्रम और सार्वजनिक नीति शोधकर्ता नम्रता राजू ने अपने शोधपरक निबंध, “फ्रॉम गेस्ट वर्कर्स टू घोस्ट वर्कर्स” में तर्क दिया है कि अंततः श्रमिकों के अधिकार और कल्याण वैकल्पिक नीतियों या लोकलुभावन योजनाओं के दायरे में तो आ गए, लेकिन स्थायी, ढांचागत बदलाव की मांग करने वाला राजनीतिक एजेंडा बनने में विफल रहे।
इस उपेक्षा का सबसे स्पष्ट उदाहरण प्रवासी मजदूरों का लगातार मताधिकार से वंचित रहना है। नागरिक होने के बावजूद, कई लोग वोट नहीं दे पाते, क्योंकि वे अपने गृह निर्वाचन क्षेत्रों में पंजीकृत हैं और वापस यात्रा करने का खर्च नहीं उठा सकते। भारत निर्वाचन आयोग ने 2022 में राजनीतिक दलों को दिए एक कॉन्सेप्ट नोट में उल्लेख किया कि आंतरिक प्रवास कम मतदाता भागीदारी का एक प्रमुख कारण है, जिसमें 2019 के लोकसभा चुनाव में 67.4% भागीदारी थी, जिसके कारण देशभर में 30 करोड़ लोग वोट नहीं दे सके थे।
जनवरी 2023 में चुनाव आयोग ने प्रवासियों को उनके कार्यस्थल से वोट देने की सुविधा के लिए रिमोट इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (RVM) का एक प्रोटोटाइप परीक्षण किया। लेकिन अभी तक, लाखों प्रवासी “वोट या आजीविका” की दुविधा में फंसे हैं—उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल करने और नौकरी बनाए रखने के बीच चयन करना पड़ रहा है।
इस साल के चुनाव कार्यक्रम ने इस दुविधा को बढ़ाया ही है। इस बार छठ पूजा 27 अक्टूबर से शुरू हुई है और बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर बिहार लौटे हैं। लेकिन यदि वे पंद्रह-बीस दिनों बाद होने वाले मतदान में हिस्सा लेने के लिए रुकते हैं तो उनके लिए नौकरी का संकट आ सकता है।
अनेक प्रवासियों के लिए मतदान तक घर में रुकना मुश्किल है। एनडीए और महागठबंधन दोनों प्रवासियों को लुभाने के लिए बड़े वादे कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने 62,000 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट्स, औद्योगिक हब और आईटीआई को अपग्रेड कर प्रवासियों को बेहतर नौकरियों के अवसर देने का वादा किया है। दूसरी ओर, महागठबंधन के प्रमुख घटक राजद के नेता तेजस्वी यादव और कांग्रेस के नेता कन्हैया कुमार ने हर परिवार को एक सरकारी नौकरी और 2 लाख जीविका दीदियों को ₹30,000/महीने की स्थायी नौकरी देने का वादा किया है।
फिर भी, अविश्वास गहरा है। प्रवासी पहले भी ऐसे वादे सुन चुके हैं। उन्होंने नौकरी देने वाली योजनाओं को शुरू होते और चुपके से बंद होते देखा है। कल्याणकारी विभागों के फंडिंग का ऐलान और फंड का कभी न मिलना देखा है। उन्होंने मतदाता सुधारों की चर्चा भी सुनी है और उन पर अमल न होना भी देखा है।
1951 से हर चुनाव में कम से कम एक-तिहाई भारतीय मतदाता वोट नहीं दे पाए। प्रवास इसका एक बड़ा कारण है। फिर भी, अपनी आर्थिक भागीदारी और चुनावी महत्व के बावजूद, प्रवासी मजदूर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर रहते हैं—न तो उनके कार्यस्थल पर और न ही उनके गृह निर्वाचन क्षेत्रों में।
समावेशन की ओर
अगर भारत सचमुच सभी को लोकतंत्र में शामिल करना चाहता है, तो उसे केवल चुनाव के समय दिखावा बंद करना होगा। प्रवासी मजदूरों को छठ या अन्य त्योहारों के दौरान सिर्फ मदद नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्थाओं की जरूरत है, जो उनकी आवाजाही को स्वीकार करें। उनके अधिकारों की रक्षा करें और उनकी बात साल भर सुनी जाए।
इसके लिए रिमोट वोटिंग, पोर्टेबल कल्याण योजनाएं, आसान मतदाता पंजीकरण और प्रवासियों के लिए खास कल्याण संस्थान बनाने होंगे। प्रवासियों को सिर्फ वोटर नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था, समाज और लोकतंत्र का अहम हिस्सा मानना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, मताधिकार का इस्तेमाल कई लोगों के लिए सपना ही रहेगा।
नम्रता राजू कहती हैं, “प्रवासियों को भारत के चुनावी दायरे में लाना जरूरी है। चाहे वे मेहनत की कमाई घर भेजें या कड़ी धूप में सड़कें बनाएं, प्रवासी देश की रीढ़ हैं और समाज का अहम हिस्सा हैं। उनकी मांगें सुनी जानी चाहिए। किसी भी नीति में उन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिए।”

