Special Report on RTI Act: सूचना का अधिकार (RTI) एक्ट ने 12 अक्टूबर 2025 को अपने 20 साल पूरे कर लिए। यह कानून आम नागरिक को सत्ता के दरवाजों पर सवाल पूछने की ताकत देता है, लेकिन आज यह कई सवालों से घिरा हुआ है। सतर्क नागरिक संगठन (SNS) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 29 सूचना आयोगों में 4 लाख से ज्यादा अपीलें लंबित हैं। कुछ राज्यों में फैसले आने में 29 साल तक लग सकते हैं। क्या पारदर्शिता का यह मजबूत हथियार अब कमजोर पड़ गया है? इस RTI एक्ट की पूरी कहानी समझते हैं –
RTI का जन्म: 90 के दशक से आंदोलन की शुरुआत
RTI की नींव 1990 के दशक में राजस्थान के देवड़ा गांव से पड़ी जहां मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) के कार्यकर्ता विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार से तंग आ चुके थे। पानी, सड़क और स्कूल जैसे प्रोजेक्ट्स के नाम पर पैसे खर्च हो रहे थे, लेकिन काम न के बराबर। MKSS के अरुणा रॉय और निखिल डे ने लोक अदालतें शुरू कीं, जहां सरकारी फाइलें खोलकर सवाल किए गए। यह स्थानीय आंदोलन नेशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन (NCPRI) में बदल गया, जिसमें माजिदर पाड़ा जैसे नेताओं ने अहम भूमिका निभाई। गांववाले, मीडिया और सिविल सोसाइटी का समर्थन मिला।2002 में फ्रीडम ऑफ इन्फॉर्मेशन बिल आया, लेकिन एक्टिविस्ट्स ने इसे और मजबूत बनाने की मांग की।
आखिरकार, 2005 में RTI एक्ट लागू हुआ यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह की अगुवाई में। 15 जून को लोकसभा और 25 मई को राज्यसभा से पास हुआ बिल राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हस्ताक्षर के बाद 12 अक्टूबर को कानून बना। यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – का व्यावहारिक रूप था। हर साल 40-60 लाख आवेदन आते हैं।
शुरुआती सालों में यह चमत्कार साबित हुआ: आदर्श हाउसिंग घोटाला, CWG स्कैम और काले धन के खुलासे RTI से ही संभव बने। लेकिन 20 साल की युवावस्था में यह क्यों हांफ रहा है?
साल दर साल बदलाव: सफलता ने क्यों बनाया दुश्मन?
2005-2015 के पहले दशक में RTI ने आम आदमी को ताकत दी। बिना कोर्ट के फाइलें खोलकर भ्रष्टाचार उजागर होता था। बिहार के एक्टिविस्ट अफरोज आलम साहिल ने हेल्थ मिनिस्ट्री से दवाओं की प्राइसिंग मांगी, नतीजा, 6 लाख RTI से 315 दवाओं की कीमत 70% तक घटी, लाखों गरीबों को फायदा। संसदों के LAD फंड्स की ट्रैकिंग से अरबों का गबन पकड़ा गया, MGNREGA में सोशल ऑडिट्स ने पारदर्शिता लाई। लेकिन सफलता दुश्मन बनी।
2013-14 में सांसदों ने ‘प्रोफेशनल RTI एक्टिविस्ट्स’ पर शोर मचाया छोटी बातों पर बोझ। हकीकत में, यह निहित स्वार्थों को चुभा। 2013 में CIC ने छह दलों (कांग्रेस, BJP, CPI(M), CPI, NCP, BSP) को ‘पब्लिक अथॉरिटी’ कहा ,सरकारी फंड्स पर निर्भर, तो जवाबदेह क्यों न हों? दल एकजुट होकर फैसले को नजरअंदाज कर सुप्रीम कोर्ट में लटका दिया। यह टर्निंग पॉइंट था, RTI ने पावर को चुनौती दी, सिस्टम ने बैकफायर किया।
2014 के NDA दौर में पारदर्शिता के वादे हुए, लेकिन 2019 के RTI अमेंडमेंट ने उलट दिया। आयुक्तों का कार्यकाल 5 से घटाकर 3 साल (सरकार की मर्जी पर), सैलरी CEC से सीनियर सेक्रेटरी लेवल पर। नतीजा, स्वतंत्रता खत्म, गवर्नमेंट कंट्रोल बढ़ा। आयुक्त ‘सरकारी पसंद’ के रिटायर्ड अफसर बने, सिस्टम के खिलाफ बोलने से हिचकिचाए।
2023 का डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (DPDP) एक्ट ने ब्रॉड एग्जेम्प्शन जोड़े, पर्सनल डेटा पर छूट, जनहित क्लॉज हटा। अब अफसरों की प्रॉपर्टी, रिक्रूटमेंट स्कैंडल्स ‘प्राइवेसी’ के नाम पर दब सकते हैं। BCCI या इलेक्शन कमीशन RTI से बाहर।
जागरूकता की कमी भी हाशिए पर धकेल रही
लोकनीति-CSDS सर्वे: ग्रामीण में 10-15%, शहरी में 30% ही जानते हैं। RTI एक्टिविस्ट्स पर हमले हुए, CHRI 2023 रिपोर्ट 2005 से 70 हत्याएं, 300 पर धमकियां। RTI पावर को चुभा, इसलिए अमेंडमेंट्स, वैकेंसीज और पोल खुलने का डर।
लंबित मामले: आयोगों की बदहाली
RTI को बेकार बना रही, SNS की ‘रिपोर्ट कार्ड ऑन द परफॉर्मेंस ऑफ इंफॉर्मेशन कमीशन्स इन इंडिया, 2024-25’ बताती है:
29 आयोगों (CIC + 28 SIC) में 4.13 लाख अपीलें/शिकायतें लंबित।
जुलाई 2024-जून 2025 में 2.41 लाख नए केस, सिर्फ 1.82 लाख निपटे, बैकलॉग बढ़ा।
तेलंगाना SIC: 1 जुलाई 2025 का केस 2054 में सुलझेगा (29 साल)!
त्रिपुरा: 23 साल, छत्तीसगढ़: 11 साल, मध्य प्रदेश-पंजाब: 7 साल। 18 आयोगों में 1 साल से ज्यादा इंतजार।
CIC की हालत खराब: 13 सितंबर 2025 को चीफ हीरालाल सांभरिया का टर्म खत्म, बिना अध्यक्ष।
11 में से 8 बार वैकेंसी खाली; अब 2 आयुक्तों पर।
जून 2025 में 24,102 पेंडिंग, सितंबर तक 26,800।
जुलाई 2024-अक्टूबर 2025 तक 6 आयोग निष्क्रिय। झारखंड का 5 साल से बंद।
वरिष्ठ पत्रकार और RTI विशेषज्ञ श्यामलाल यादव कहते हैं: “शुरुआती वर्षों में सरकारी मशीनरी पर सूचना देने का दबाव था, लेकिन बाद में पुराना ढर्रा लौटा। मोदी सरकार में फाइलिंग आसान हुई, पोर्टल बने, लेकिन जवाब सूचना नहीं। असहज करने वाली RTI पर चुप्पी। अरविंद केजरीवाल जैसे नेता भी जवाब नहीं देते। कोई पार्टी RTI पसंद नहीं – यह दबाव बनाती है। प्रशिक्षण सूचना छिपाने का है। नेता मौखिक विरोध नहीं करते, लेकिन चुपचाप कमजोर करते हैं। पढ़ा-लिखा वर्ग RTI लगाए, जनहित के लिए। उपयोग न करें तो विरोधी मजबूत होंगे।”

