नरेंद्र मोदी ने समस्तीपुर में रैली कर चुनावी अभियान की शुरुआत की। यही वह जिला है जहाँ कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था। प्रधानमंत्री मोदी समस्तीपुर में चुनावी सभा को संबोधित करने से पहले समाजवादी नेता एवं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर के पैतृक गांव कर्पूरीग्राम गए। समस्तीपुर में रैली करने का अर्थ प्रतीकात्मक रूप से अति पिछड़ों को संदेश देना है और उन्हें वोट के रूप में साधना है।
इससे पहले सबसे राहुल गांधी ने भी अति पिछड़ों को साधने के लिए कर्पूरी यात्रा करवाई और उन्हें लुभाने के लिए कई वादे किए। हालांकि 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और न ही भाजपा-जदयू ने एक भी नाई जाति के लोगों को टिकट नहीं दिया।
इससे ज़्यादा विडंबना और क्या हो सकती है? मोरवा से जनसुराज प्रत्याशी जागृति ठाकुर, कर्पूरी ठाकुर की पोती है। वह मुद्दे पर कहती है कि,” प्रधानमंत्री मोदी को इतने साल बाद कर्पूरीग्राम की याद आई। यह सब सिर्फ राजनीतिक फायदा लेने की कोशिश है।”
सत्ताधारी पार्टी का नया जातिगत गणित
एनडीए के सीट बंटवारे के तहत जदयू को 101 सीटें आवंटित की गई है। इतना ही सीट बीजेपी को भी दिया गया है। 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू 115 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। जदयू पार्टी में पिछड़ा वर्ग को 38 सीटें, सवर्ण को 22, अति पिछड़ा वर्ग को 21, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को 16 और मुस्लिम को 4 टिकट दिया गया।
पिछले चुनाव की तुलना की जाए तो पार्टी ने सवर्णों को 17.39 प्रतिशत से बढ़ाकर 21.78 प्रतिशत और अति पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को 14.78 प्रतिशत से बढ़ाकर 20.79 प्रतिशत कर दिया है। वहीं दलित एवं महादलित को टिकट देने में मामूली वृद्धि हुई है।
सामान्य सीट से इन दोनों में से किसी को टिकट नहीं दिया गया है। पिछड़ा वर्ग को 43.48 प्रतिशत से घटाकर 37.62 प्रतिशत और मुसलमानों का नामांकन 9.57 प्रतिशत से घटकर 3.96 प्रतिशत हो गया है। 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के सभी 11 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गए थे।
इस वजह से भी उनका कम टिकट दिया गया है। लव-कुश यानी कुर्मी और कुशवाहा की पार्टी कहे जाने वाली जदयू ने कुशवाहा को 13 एवं कुर्मी को 12 टिकट दिया है।
वहीं भाजपा की बात करें तो भाजपा ने अपने 101 विधानसभा क्षेत्र में सवर्ण को 49, पिछड़ा वर्ग को 25, अति पिछड़ा वर्ग को 15, और दलित एवं महादलित जाति के 12 उम्मीदवारों को टिकट दिया है। पार्टी ने किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है।
आंकड़ों के मुताबिक आधे उम्मीदवार सवर्ण हैं। इसके अलावा अत्यंत पिछड़े वर्ग के नामांकन में भी वृद्धि हुई है। पिछड़ी जातियों में सबसे ज्यादा यानी 7 उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इसके बाद यादव से 6, कलवार से 4 एवं अन्य जातियों को टिकट दिया गया है।
बिहार में सामाजिक-आर्थिक असमानता पर 2023 के जात सर्वेक्षण पर आधारित एक शोध के अनुसार औसत घरेलू आय और शिक्षा के मामले में कायस्थ सबसे आगे हैं। हालांकि भाजपा और जदयू, दोनों ने कायस्थ जाति के एक-एक उम्मीदवार को टिकट दी है।
भाजपाई की तरह मुसलमानों का हिस्सा गटक जाते
माले ने पिछली बार 19 सीटों में 3 पर मुसलमान कैंडिडेट उतारा था। पालीगंज में अनवर हुसैन जो 2015 में बिना गठबंधन के 19 हज़ार वोट लाए थे उसका टिकट काट कर संदीप सौरभ को टिकट दिया। इस बार 2020 के 3 में एक और कम कर के 2 रह गया। यानी 18 सीट में दो मुसलमान।

लोकसभा में 3 सीट पर लड़े वहां भी कोई मुसलमान नहीं। वहीं माले की तरह महागठबंधन की पार्टी वीआईपी में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं है। ऐसे में सोशल मीडिया पर सवाल पूछा जा रहा है कि मुसलमानों के वोट से बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे मुकेश सहनी को मुसलमानों का विधायक नहीं चाहिए?
पटना के रहने वाले रुस्तम बताते हैं कि, “ये लोग सेक्युलरिज्म की लंबी लंबी हांकते हैं लेकिन जब मुसलमानों को राजनीतिक हिस्सेदारी देनी की बात आती है तो भाजपाई की तरह मुसलमानों का हिस्सा गटक जाते हैं।
महागठबंधन पार्टी के तरफ से मल्लाह पार्टी के मुकेश साहनी को मुख्यमंत्री घोषित करने के बाद भी सलमान समुदाय में काफी गुस्सा है। जनसुराज्य पार्टी के प्रवक्ता तारिक अनवर कहते हैं कि, “इंडिया गठबंधन के प्रेस कॉन्फ्रेंस से यह साबित हो गया है कि अगर इनकी सरकार बनती है तो NDA गठबंधन वालों की तरह मुसलमानों को अल्पसंख्यक मंत्रालय से ही संतोष करना पड़ेगा। अगर इनमें इतनी भी साहस नहीं है कि मुस्लिम समाज से एक उप मुख्यमंत्री की घोषणा कर सके तो फिर इनसे उम्मीद रखना ही बेईमानी है।”
वहीं बहुजन लेखक प्रियांशु कुशवाहा इस पर कहते हैं कि,”प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ़-साफ़ कहा गया है। तेजस्वी जी मुख्यमंत्री होंगे। अति पिछड़ा समाज से आने वाले मुकेश साहनी उप मुख्यमंत्री होंगे। साथ में दो और उपमुख्यमंत्री होंगे। इसकी घोषणा संभवतः चुनाव के बाद या चुनाव के बीच में ही कर दी जाएगी। इन दोनों नामों में से एक दलित, एक मुसलमान होने की संभावना है।”
राजनीति में जातीय प्रभुत्व काम करता है
आशीष चौरसिया लिखते हैं कि, “जब टिकट वितरण की बात आती है, तब साफ दिखाई देता है कि राजनीति में जातीय प्रभुत्व कैसे काम करता है। कुछ जातियाँ किसान वर्ग में हावी हैं, कुछ आदिवासी समुदाय में, कुछ दलितों में और कुछ कामगार तबकों में। परंतु जब टिकट बांटे जाते हैं। चाहे वह भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई क्षेत्रीय पार्टी। अधिकतर मामलों में बस एक-दो जातियों या समुदायों को रिप्लेस कर दिया जाता है ताकि वोट समीकरण को थोड़ा नया रंग दिया जा सके, जबकि सत्ता-समीकरण मूल रूप से वही बने रहते हैं।”
“बिहार इसका ज्वलंत उदाहरण है। आज जब चुनाव इतना महंगा और पूँजीकृत हो चुका है कि आम आदमी केवल वोट डालने तक सीमित रह गया है, तब सवाल उठता है। जिन तबकों को आज तक समानुपातिक भागीदारी नहीं मिल पाई, क्या वे इस मौजूदा चुनावी ढांचे के भीतर कभी अपनी वास्तविक हिस्सेदारी पा सकते हैं? जवाब स्पष्ट है नहीं।”
जाति पर रिसर्च कर रहे पंकज कुमार लिखते हैं कि,” भाजपा ने सवर्णों में सबसे अधिक टिकट राजपूत और भूमिहार समुदाय को दिया है। यूं कहिए कि उसने सवर्णों को लगभग पूरा हिस्सा दे दिया है, और बचे हुए 50 प्रतिशत टिकटों में बाकी सामुदायों को बांटा है। सबसे कम टिकट अति पिछड़े समूहों को मिले हैं।
38 प्रतिशत आबादी वाले अतिपिछड़ा समुदाय को मात्र 14 प्रतिशत टिकट दिया है। अब समय आ गया है कि अतिपिछड़ा वर्ग भी भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाए, ताकि उन्हें भी उनके जनसंख्या और योगदान के अनुपात में उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल सके क्योंकि भाजपा को सवर्णो के बाद सबसे अधिक वोट अतिपिछड़े सामुदायों का मिलता है।”

