बाबूलाल गौर निजी बातचीत में अक्सर रामचरित मानस के इस दोहे का जिक्र करते थे- “आज हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, विधि हाथ।” बल्कि, उनके जीवन का यह फ़लसफ़ा था। सियासी जीवन का भी। मतलब, ये छह चीजें विधाता के हाथ में हैं। आप लाख हाथ-पाँव मारें, इस डाल से उस डाल पर ‘उछलकूद’ या गोटियां इधर से उधर करें-मिलेगा उतना ही जितना दर्ज है। कम न ज्यादा।

गौर साहब जब मुख्यमंत्री बने तो उनका यह दर्शन सच साबित हुआ। कौन जानता था कि 8 माह बाद ही अचानक उमा भारती का इस्तीफ़ा हो जाएगा, गौर के नाम पर उमा राज़ी हो जाएंगी और वे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे? पंद्रह महीने बाद जब उन्हें सीएम की कुर्सी से छोड़ना पड़ी और शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में मंत्री पद ऑफर किया गया, तब भी गौर ने झट मंज़ूर कर लिया। उनकी जगह कोई और होता तो क्या ऐसा करता? क्या शिवराज करते?
कल तक आप मुख्यमंत्री थे और अब आपको एक जूनियर के नीचे मंत्री बनाया जा रहा है, भला कौन मानेगा? मगर, यह दोहा गौर के फैसले का आधार बना। वे मंत्री बन गए, यद्यपि केबिनेट में उनकी मौजूदगी शिवराज को असहज करती रही। अब याद करिए, 11 दिसंबर 2023 की तारीख और वो घटी-पल-क्षण, जब तीसरी पंक्ति में बैठे तीसरी बार के विधायक मोहन यादव की पुकार हुई।
कौन जानता था- मोहन यादव मुख्यमंत्री होंगे? ‘विधाता’ ने लिखा था, सो हो गए और अब भी हैं। जब तक का लिखा है, तब तक रहेंगे भी। कब तक का लिखा है, किसी को नहीं पता। सत्तारूढ़ भाजपा में जो कुछ चल रहा है, वो गौर जी के फलसफ़े की याद दिला रहा है। यही कि सब–कुछ विधाता के हाथ में है।
एक वारंट पर उमा भारती को जाना पड़ता है और ‘दो बहनों’ के कारण गौर की विदाई तय हो जाती है। वर्ना कहाँ है वारंट और किधर गईं दोनों बहनें- शगुफ़्ता और समीना? कौन थे उनके पीछे? सीएम पद से हटने के बाद गौर होम मिनिस्टर रहे, लेकिन शगुफ़्ता कांड वहीं दफ़न हो गया। गौर का इस्तीफ़ा होना था, हो गया। बात खत्म।
शिवराज के कार्यकाल में भी बड़ी-बड़ी घटनाएं हुईं -कांड हुए, लेकिन वे 17 बरस चले। ऐसे ही इन दिनों एक सवाल का बड़ा हल्ला है- “अगला मुख्यमंत्री कौन?” फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर किया जा रहा है। ये सवाल कहाँ से आ गया, कौन इसके पीछे है? मुमकिन है, पता लगाया जा रहा हो। मगर ऐसा हो रहा है। पिछले दिनों महामंडलेश्वर उत्तम स्वामी ने जिस अंदाज़ में मोहन यादव को फटकारा, उससे और हवा मिल रही है ऐसे सवालों को।
स्वामी को शायद याद नहीं रहा कि मोहन यादव अब विद्यार्थी परिषद में नहीं हैं, वे 9 करोड़ की आबादी वाले प्रांत के मुख्यमंत्री हैं। प्राचीनकाल की शब्दावली में “राजा” हैं। “बादशाह” या “किंग” हैं। उनकी जवाबदेही है क्रमशः प्रजा, रियाया या पीपुल के प्रति। उन्हें लोकतंत्र में राजकाज चलाना है। जनता के बीच वोट मांगने जाना है। लिहाजा, गवर्नेंस पर ध्यान देना है।
जहरीले कफ सीरप से अगर बच्चे मरते हैं तो अमित शाह सवाल करेंगे यादव से, किसी स्वामी या महाराज से नहीं। थाने में पुलिस कर्मियों की पिटाई होगी, सवर्ण किसी ओबीसी से अपने पैर धुलवाएगा या दबंग किसी दलित की पिटाई करेंगे तो कौन जवाबदेह होगा? क्या महाराज जी? लेकिन, मुख्यमंत्री को न सिर्फ सुनना पड़ा, बल्कि क्षमा याचना करना पड़ी। क्योंकि वे कलेक्टर्स-कमिश्नर्स कॉन्फ्रेंस में व्यस्त होने के कारण उत्तम स्वामी के कार्यक्रम में न जाने की “हिमाकत” कर बैठे थे।
कुल मिलाकर, मोहन यादव को इन दिनों आभासी तौर पर थोड़ी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। बात-बात पर उनको दिल्ली दौड़ना पड़ता है। “वजनदार” मंत्रियों को उनके अधीन कर दिया गया है, शिवराज सिंह चौहान हैं तो देश भर के कृषि मंत्री, मगर मध्यप्रदेश के खेतों-किसानों से उनका लगाव या संवेदनशीलता दूसरे राज्यों की बनिस्बत अब भी कुछ ज्यादा ही बनी हुई है। जो कि स्वाभाविक है, पर “सियासी रकबे” के लिहाज से इसके बड़े मायने हैं। लब्बोलुआब यह है कि सब “विधाता” के हाथ में है। कदाचित् मोहन यादव को भी मालूम हो गौर साहब का यह फ़लसफ़ा।
जीतू पटवारी और मामा का घर, कौन खुश?

प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष जीतू पटवारी ने पिछले दिनों यह साबित किया कि वे पार्टी का बोझ उठा पाने में कामयाब हों- न हों, मगर 50 किलोग्राम वज़न उठाने के लिए उनका शरीर एकदम फिट है। इसके लिए उन्होंने बकायदा एक उपक्रम किया। कंधे पर 50 किलो अनाज की बोरी रखी और मीडिया को साथ लेकर पहुंच गए केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के भोपाल वाले घर।
सोयाबीन और धान समेत कई फसलों की कीमतों को लेकर किसानों की तकलीफें बताईं। खाद संकट का मुद्दा भी रखा। किसानों की आय के बारे में बीजेपी के संकल्प पत्र पर बात की। लेकिन, सवाल किया जा रहा है कि “फिजिकल फिटनेस” सिद्ध करने के लिए “मामा का घर” जाने की क्या जरूरत?
यह काम तो किसी जिम में भी किया जा सकता था। मीडिया के साथ जिम जाते और वज़न उठाकर दिखा देते! क्या परेशानी थी। क्योंकि न तो शिवराज अब मुख्यमंत्री हैं और न “मामा का घर” कोई जिम। फिर ऐसा क्यों? ये कौनसी सियासत है? इससे कौन खुश होगा? किसान, आलाकमान या…?
जस्टिस श्रीधरन का तबादला, विजय शाह और बीजेपी का यथार्थ

इसे क्या कहा जाए- विडंबना या बीजेपी का यथार्थ? मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन का तो तबादला हो गया, लेकिन कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकियों की बहन बताने वाले विजय शाह मंत्री पद पर बेफ़िक्री के साथ कायम हैं। बेफ़िक्री भी इस हद तक कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के बारे में कैलाश विजयवर्गीय के विवादास्पद बयान का समर्थन करने वाले भी वे इकलौते मंत्री थे। लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ा।
इसके विपरीत, जस्टिस श्रीधरन, जिन्होंने कर्नल कुरैशी के खिलाफ शाह के बयान को “गटरनुमा” भाषा का बताया था और उनके खिलाफ एफआईआर का आदेश दिया था। और भी तमाम गंभीर टिप्पणियाँ की थीं। इतना ही नहीं जस्टिस श्रीधरन ने दमोह में एक ओबीसी युवक से एक ब्राह्मण के पैरे धुलवाने और फिर वही पानी पिलाने के मामले का भी स्वतः संज्ञान लिया था और आरोपियों के खिलाफ एनएसए के तहत कार्रवाई का आदेश दिया था।
बहरहाल, श्रीधरन का ट्रांसफर हो गया है। पहले छत्तीसगढ़ हुआ था, लेकिन सरकार के आग्रह पर अब कॉलेजियम ने इलाहाबाद हाईकोर्ट कर दिया है। याद करें अजय मिश्रा ‘टेनी’ और उनके पुत्र आशीष का केस। मौसम बदलते रहे, मगर बीजेपी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
दिग्विजय की सक्रियता और राज्यसभा

पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने आपको सक्रिय रखते हैं। या कहें, खबरों में बने रहते हैं। कभी बीजेपी के हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव के खिलाफ इंदौर पहुंच जाते हैं तो कभी आरएसएस को निशाने पर ले लेते हैं। तो कभी अपनी ही पार्टी के नेता से ऐसे मिलते हैं, जैसे किसी दूसरे मुल्क का राजदूत मुलाकात करने आया हो।
पिछले दिनों, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार से उनकी भेंट इसी अंदाज़ में प्रचारित की गई। जबकि, दिग्विजय पर आरोप लगाने के बाद सिंघार की यह दूसरी मुलाकात थी। बहरहाल, आलोचक उनकी सक्रियता को राज्यसभा से जोड़ रहे हैं, जहां दिग्विजय का कार्यकाल 6 माह बाद समाप्त होने जा रहा है। वे पुनः भेजे जाएंगे या नहीं, इसको भी “विधाता” ही बता सकता है।

