भारत में जंगली हाथियों की डीएनए आधारित पहली गणना के आंकड़े परेशान करने वाले हैं, जिनके मुताबिक बीते आठ बरसों में देश में उनकी संख्या में 18 फीसदी की कमी आई है। 2017 में भारत में जंगली हाथियों की संख्या 27,312 थी जो 2025 में घटकर 22,446 रह गई है, जिससे पता चलता है कि मानवजाति के सबसे पुराने सहचरों में से एक हाथियों के लिए किस तरह का संकट पैदा हो गया है।
सबसे बुरी स्थिति झारखंड की है, जहां उनकी संख्या इस दौरान 68 फीसदी गिरावट के साथ 679 से घटकर 217 रह गई है। भारत हाथियों के सबसे पुराने आवासों में से एक है, लेकिन वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट (ड्ब्ल्यूआईआई) की यह रिपोर्ट उनकी बदतर होती स्थिति को रेखांकित कर रही है।
दरअसल इस स्थिति के लिए विकास का मौजूदा मॉडल और मनमाने ढंग से लागू की जाने वाली नीतियां जिम्मेदार हैं, जिनका असर जंगलों की कटाई के रूप में सामने आ रहा है और इसका सर्वाधिक खामियाजा हाथी सहित अन्य वन्यजीवों को उठाना पड़ रहा है। अकेले असम में वर्ष 2000 से लेकर 2023 के दौरान मानव-हाथी संघर्ष में 1400 लोग और 12 से अधिक हाथी मारे गए।
हाल के बरसों में जिस तरह कोयला और लौह अयस्क के खनन के लिए अंधांधुध तरीके से जंगलों की कटाई की जा रही है, उससे हाथियों के स्वाभाविक आवास खत्म होते जा रहे हैं और वह मानव बस्तियों का रुख कर रहे हैं।
इसके अलावा देश में हाथियों के आवास वाले बड़े हिस्सों में जिस तरह से जंगलों को काटकर एक्सप्रेस वे और हाइवे बनाए जा रहे हैं, उसकी वजह से भी हाथी अपने भोजन के लिए बस्तियों में घुसने को मजबूर हो रहे हैं।
नतीजतन मानव-हाथी संघर्ष भी बढ़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ इसका एक बड़ा उदाहरण है, जहां कोयले के लिए हसदेव के जंगलों में हो रही मनमानी कटाई से वहां प्रस्तावित लेमरू हाथी रिजर्व पर असर पड़ रहा है।
यह सहअस्तित्व का मामला है, जिसमें संतुलन की जरूरत है, लेकिन न तो बडे कॉर्पोरेट को इससे मतलब है, और न ही सरकारों की प्राथमिकता में यह कहीं दिखता है। हाथियों की गणना की यह ताजा रिपोर्ट खतरे की घंटी है और चेतावनी दे रही है कि हाथियों के साथ हमदर्दी की जरूरत है।

