उत्तर प्रदेश के रायबरेली में कथित रूप से मानसिक रूप से बीमार एक दलित युवक हरिओम की भीड़ द्वारा की गई हत्या ने हमारी सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया है। हरिओम शहर के दूसरे हिस्से में सफाई कर्मी के रूप में काम करने वाली अपनी पत्नी से मिलने जा रहे थे, और तभी कुछ लोगों को उनके चोर होने पर शक हुआ और फिर भीड़ उन पर बर्बरता से टूट पड़ी।
उनके साथ हुई ज्यादती के वीडियो वायरल होने पर ही इस घटना के बारे में पता चल सका, वरना उनकी कहानी भी उत्पीड़न का शिकार होने वाले अनेक दलितों की तरह कहीं दफन हो जाती। यह सिर्फ अफवाहों और शक के आधार पर किया गया एक अपराध भर नहीं है, बल्कि यह पिछले कुछ बरसों में नफरत की जो बुनियाद तैयार की गई है, उसका नतीजा भी है।
यह घटना देश में और देश के सबसे बड़े सूब में दलितों की दयनीय स्थिति को भी सामने लाती है, जिन्हें आज भी उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है। वायरल वीडियो में एक युवक हरिओम की गर्दन पर अपने पैर रखे नजर आ रहा है, उसने कुछ बरस पूर्व अमेरिका में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लायड के साथ हुई बर्बरता की याद दिला दी है, जिन्हें उनकी गर्दन को एक अमेरिकी पुलिस वाले ने अपने घुटनों से दबाकर मार डाला था!
जाहिर है, यह कोई आइसोलोशन में हुई घटना नहीं है, बल्कि यह एक पैटर्न है और जब मौका मिलता है, दलितों को निशाना बनाने से गुरेज नहीं किया जाता। इस घटना के बाद पुलिस ने पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन हरिओम के साथ जिस तरह की ज्यादती की गई, उसे समझने की जरूरत है।
बेशक किसी एक घटना से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता, लेकिन जब कानून को अपने हाथ में लेने वालों में दंडित होने का भय नहीं होता, तो वह किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं करते!
इस घटना के बाद छाई आपराधिक चुप्पी ने सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्मादी लोगों से घिरे हरिओम का एक वीडियो वायरल है, जिसमें वह बेबसी में रायबरेली के सांसद और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को याद कर रहे हैं, और भीड़ इससे और भड़क जा रही है। आखिर इतनी नफरत आती कहां से है?
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने त्वरित न्याय के लिए ‘बुलडोजर न्याय’ जैसे असंवैधानिक उपाय कर रखे हैं। हम बुलडोजर न्याय के समर्थक नहीं है, हमारा साफ मानना है कि न्याय कानून के दायरे में होना चाहिए और किसी भी व्यक्ति को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है।
यह समझने की भी जरूरत है कि सिर्फ गिरफ्तारियां न्याय की गारंटी नहीं हैं, बल्कि न्याय की अंतिम परिणति अदालत में तय होती हैं। दरअसल राज्य सरकार की यह जहावदेही तो बनती ही है कि वह खुद से सवाल करे कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि रायबरेली में लोगों ने सिर्फ शक के आधार पर न केवल कानून को अपने हाथ में ले लिया, बल्कि मध्ययुगीन बर्बरता के साथ एक निर्दोष दलित युवक को तालिबानी न्याय सुनाते हुए मार डाला! किसी भी सभ्य समाज में यह स्वीकार्य नहीं है।