Nobel prize 2025 medicine winners: दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक, नोबेल प्राइज इन फिजियोलॉजी ऑर मेडिसिन 2025 में तीन वैज्ञानिकों को मिला है। जिनमें अमेरिका की मैरी ई. ब्रंकॉ और फ्रेड राम्सडेल है और साथ ही जापान के शिमोन साकागुची को यह सम्मान मिला है। इनकी खोज ‘पेरीफेरल इम्यून टॉलरेंस’ पर आधारित है यानी शरीर की रक्षा प्रणाली को कैसे कंट्रोल किया जाता है ताकि यह गलती से अपने ही अंगों पर हमला न करे।
नोबेल कमेटी के सचिव थॉमस पर्लमैन ने सोमवार को करोलिंस्का इंस्टीट्यूट में पुरूस्कार की घोषणा की और कहा “यह खोज चिकित्सा विज्ञान को नई दिशा देगी, खासकर कैंसर के इलाज और अंग प्रत्यारोपण में।” पुरस्कार के साथ 11 मिलियन स्वीडिश क्रोन (करीब 1.2 मिलियन डॉलर) और स्वीडन के राजा द्वारा गोल्ड मेडल भी मिलेगा। हमारा इम्यून सिस्टम रोजाना हजारों बैक्टीरिया, वायरस और अन्य हानिकारक चीजों से लड़ता है लेकिन कभी-कभी यह इतना उत्तेजित हो जाता है कि शरीर के अपने हिस्सों जैसे जोड़ों या अग्न्याशय को दुश्मन समझ लेता है। इससे ऑटोइम्यून बीमारियां होती हैं जैसे टाइप 1 डायबिटीज या रूमेटॉइड आर्थराइटिस। पेरीफेरल इम्यून टॉलरेंस इसी समस्या का समाधान है।
सरल शब्दों में, यह शरीर का एक स्मार्ट सिस्टम है जो ‘सेल्फ’ (अपने) और ‘नॉन-सेल्फ’ (बाहरी) में फर्क करता है। अगर कोई टी-सेल (इम्यून सिपाही) गलती से अपने ही ऊतकों पर हमला करने की कोशिश करे तो यह सिस्टम उसे निष्क्रिय कर देता या मार गिराता है। नोबेल कमेटी ने कहा “यह खोज 50 साल पुरानी बहस को सुलझाती है कि इम्यून सिस्टम कैसे खुद को संतुलित रखता है।” इस खोज की शुरुआत 1995 में शिमोन साकागुची ने की। उस समय वैज्ञानिक सोचते थे कि इम्यून टॉलरेंस सिर्फ थाइमस ग्लैंड (छाती में एक अंग) में होती है जिसे सेंट्रल टॉलरेंस कहते हैं। वहां हानिकारक सेल्स को खत्म कर दिया जाता है। लेकिन साकागुची ने दिखाया कि यह प्रक्रिया कहीं ज्यादा जटिल है। उन्होंने रेगुलेटरी टी-सेल्स की खोज की ये ‘सुरक्षा गार्ड’ सेल्स इम्यून सिस्टम को कंट्रोल करती हैं।
साकागुची के मुताबिक “ये सेल्स बैक्टीरिया से लड़ने के लिए तैयार रहती हैं, लेकिन शरीर के अपने हिस्सों को छेड़ती नहीं।” उनके शोध ने ऑटोइम्यून रोगों की रोकथाम का नया रास्ता खोला। फिर मैरी ई. ब्रंकॉ और फ्रेड राम्सडेल ने 2000 के दशक में महत्वपूर्ण सबूत दिए। ब्रंकॉ ने ‘स्कर्फी’ म्यूटेशन की खोज की, जो चूहों में ऑटोइम्यून बीमारियां पैदा करता था। राम्सडेल ने दिखाया कि यह म्यूटेशन फॉक्सप3 जीन से जुड़ा है, जो रेगुलेटरी टी-सेल्स को बनाता है। अगर यह जीन खराब हो, तो इम्यून सिस्टम बेकाबू हो जाता है।
राम्सडेल ने कहा, “हमारी खोज से पता चला कि ये सेल्स शरीर के हर कोने में काम करती हैं, न कि सिर्फ थाइमस में।” नोबेल प्रेस रिलीज में चित्रों के जरिए समझाया गया कि कैसे टी-सेल्स वायरस पहचानती हैं और हानिकारक सेल्स को कैसे रोका जाता है। यह खोज सिर्फ थ्योरी नहीं, बल्कि प्रैक्टिकल है। इससे कैंसर थेरेपी में मदद मिलेगी क्योंकि इम्यून सिस्टम को ट्यूमर पर फोकस करने के लिए कंट्रोल किया जा सकता है। अंग ट्रांसप्लांट में रिजेक्शन कम होगा, क्योंकि बॉडी को नया अंग ‘सेल्फ’ समझाने में आसानी होगी।
रूमेटोलॉजी प्रोफेसर मैरी वाहरेन-हर्लेनियस ने बताया, “यह खोज नए इलाजों का द्वार खोलेगी, जैसे इम्यून सिस्टम को ‘ट्रेन’ करना।” विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण से ऑटोइम्यून बीमारियां बढ़ रही हैं, इसलिए यह रिसर्च समय पर आई है। पिछले साल 2024 में यह पुरस्कार विक्टर एम्ब्रोस और गैरी रुवकुन को मिला था जिन्होंने माइक्रो RNA की खोज की। यह छोटा RNA जीन को कंट्रोल करता है जो कोशिकाओं को बनने और काम करने में मदद करता है। उनकी 1993 की खोज ने कैंसर और जेनेटिक बीमारियों के इलाज को बदला। 50 करोड़ साल पुरानी यह खोज इंसानों में 1,000 से ज्यादा माइक्रो RNA जीन पाई गई है।
भारतीय कनेक्शन की बात करें तो मेडिसिन में नोबेल सिर्फ एक भारतीय मूल के वैज्ञानिक को मिला है डॉ. हरगोविंद खुराना को 1968 में। अमेरिका में बसे खुराना ने जेनेटिक कोड डिकोड किया जो बताता है कि DNA से प्रोटीन कैसे बनते हैं। उनकी खोज ने कैंसर दवाओं, जेनेटिक इंजीनियरिंग और नई थेरेपी का आधार रखा।
भारत से जुड़े कुल 12 नोबेल विजेता हैं, लेकिन मेडिसिन में खुराना अकेले हैं। उनकी विरासत आज भी प्रेरणा देती है। नोबेल प्राइज की घोषणाएं 6 से 13 अक्टूबर तक चलेंगी फिजिक्स में पुरुस्कारों की घोषणा कल की जायेगी। यह पुरस्कार अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत से 1901 से दिए जाते हैं, जो मानवता के भले के लिए खोजों को सम्मानित करते हैं। वैज्ञानिक समुदाय का कहना है कि 2025 का यह पुरस्कार इम्यूनोलॉजी को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा।