बीते दो अक्टूबर को अपनी स्थापना के सौ साल पूरा करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) को लेकर जाने-माने राजनीति विज्ञानी और सुप्रसिद्ध लेखक क्रिस्टोफ जॉफरलोट ने एक दिलचस्प दावा किया है। हाल ही में एक इंटरव्यू में जॉफरलोट ने कहा है कि 1979 में जनता पार्टी के बिखरने के बाद और 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद इस वृहत संगठन ने जो दिशा पकड़ी वह दरअसल संघ के तत्कालीन प्रमुख बालासाहब देवरस के विजन का नतीजा था!

यह दिलचस्प इसलिए है कि संघ के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता है, 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के दौरान जेल से भेजे गए कथित माफीनामे को लेकर चर्चित रहे हैं। इसलिए भी, क्योंकि संघ और भाजपा में जो महत्व संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर और यहां तक कि मौजूदा संघ प्रमुख मोहन भागवत का है, वैसा देवरस का नहीं रहा है।
देवरस ने दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के निधन के बाद इमरजेंसी लगने से महज दो साल पहले 1973 में ही यह जिम्मेदारी संभाली थी। हालांकि यह भी सच है कि 27 सितंबर, 1925 को अपनी स्थापना के बाद से ही आरएसएस हिंदुत्व की जिस विचारधारा को लेकर चला था, उसमें कभी विचलन नहीं आया। फिर भी, 1974 के जेपी आंदोलन के दौरान आरएसएस को जो वैधता मिली, उसने उसे एक तरह से राजनीति की मुख्य़धारा से जोड़ दिया था, बावजूद इसके कि वह खुद को एक गैर राजनीतिक संगठन बताता है।
याद किया जा सकता है कि खुद जेपी ने अपने आंदोलन के दौरान आरएसएस और उसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनसंघ को जोड़ते हुए भरोसा जताया था कि संघ कालांतर में ‘हिंदू राष्ट्र’ के अपने एजेंडे को छोड़ देगा। जेपी की यह पीड़ा जनता पार्टी के शासन के दौरान 11 सितंबर 1977 को आए सामयिक वार्ता के प्रवेशांक में दिए गए उनके साक्षात्कार में भी झलकती है, जिसमें उन्हें संघ के हिंदू राष्ट्र का एजेंडा न छोड़ने पर मायूसी दिखाई थी।
1979 में जनता पार्टी के बिखराव के बाद जनसंघ ने भाजपा के रूप में नया अवतार धारण कर लिया और हमेशा की तरह आरएसएस उसके पीछे खड़ा था। उस समय बाला साहेब देवरस संघ के सरसंघचालक थे।
डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म द वॉयर के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन को दिए गए एक इंटरव्यू में क्रिस्टोफ जॉफरलोट ने 1975 की इमरजेंसी और जेपी आंदोलन मं़ आरएसएस की भूमिका की विस्तार से चर्चा करते हुए दावा किया है कि जनता पार्टी के बिखराव के बाद यह देवरस ही थे, जिन्होंने आरएसएस और भाजपा की भावी दिशा तय कर दी।
जॉफरलोट ने 1979 में चरण सिंह की सरकार के गिरने के बाद जनता पार्टी में हुए बिखराव की चर्चा करते कहा, जनता पार्टी जल्दी टूट गई। यह दो साल की कहानी थी। उन्होंने याद दिलाया कि समाजवादी मधु लिमये ने संघ का विरोध करते हुए दोहरी सदस्यता मुद्दा उठाया था।
लिमये ने सवाल किया था कि या तो आपकी निष्ठा आरएसएस के प्रति हो सकती है, या जनता पार्टी के। जॉफरलोट के मुताबिक यह विरोध इसलिए था, क्योंकि उस समय आरएसएस गोहत्या और धर्मांतरण पर पूर्णतया रोक लगाने वाले कानून की मांग कर रहा था। साथ ही वे इतिहास की किताबें भी बदलना चाहते थे।
जनता पार्टी के बिखराव के बाद जनसंघ से जुड़े लोगों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया और यहीं पर जॉफरोलट देवरस की भूमिका को रेखांकित करते हैं और उनके एक भाषण का जिक्र करते हैं।
उन्होंने द वॉयर को दिए इंटरव्यू में कहा, “….देवरस ने माना कि गठबंधन से काम नहीं चलेगा। विपक्षी दल भरोसेमंद नहीं हैं। हमें हिंदू वोटबैंक बनाना होगा। देवरस ने कहा अब हम हिंदुओं को उनके अधिकारों के लिए जागरूक करेंगे बिना किसी सहयोगी के। यहां से अयोध्या आंदोलन शुरू हुआ। 1984 में सड़कों पर प्रदर्शन हुए जिसमें कहा गया कि भगवान (राम) को मुक्त करना है इंदिरा गांधी की हत्या के कारण 1984 में कोई बदलाव नहीं हुआ, लेकिन 1989 में यही एजेंडा लौटा और यह बड़ा मोड़ था। ”
जाहिर है, संघ और भाजपा की बढ़ती ताकत में बालासाहब देवरस की बड़ी भूमिका रही है। यह देवरस को लेकर प्रचलित उस धारणा के एकदम उलट है, जिन्हें आपातकाल के दौरान उनकी विवादास्पद भूमिका के कारण भी जाना जाता है।

26 जून, 1975 को इमरजेंसी लगाए जाने के बाद जब विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां हुई थीं, उस समय आरएसएस के सरसंघचालक बालासाहब देवरस को भी नागपुर से गिरफ्तार किया गया था। अपनी गिरफ्तारी के बाद यरवदा सेंट्रल जेल पुणे से देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे। इन पत्रों में उन्होंने यह दावा किया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और हिंसा में लिप्त नहीं है।
दस नवंबर, 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम भेजे गए अपने एक पत्र में देवरस ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ द्वारा 1971 के निर्वाचन को वैध ठहराने वाले फैसले को लेकर बधाई दी। यह पत्र इसलिए अहम है, क्योंकि देवरस ने इसमें इन्कार किया कि जेपी आंदोलन में आरएसएस की कोई भूमिका है। देवरस ने लिखाः
‘… श्री जयप्रकाश नारायण जी के आंदोलन के संदर्भ में संघ का नाम लिया गया है। गुजरात आंदोलन, बिहार आंदोलन, जिनके संबंध में सरकार की ओर से बार-बार और बिना कारण जोड़ा गया, अतः उसके बारे में मेरा कहना क्रमप्राप्त था। इन आंदोलनों से संघ का कुछ भी संबंध नहीं, इसके स्पष्टीकरण में मैंने केवल दो बातें प्रमुखतः कही हैं।
एक, वे आंदोलन जनता में व्याप्त असंतोष के कारण हुए हैं, अतः उसके लिए आप और हम सभी जिम्मेदार हैं। और दूसरी ओर यह कि श्री जयप्रकाश नारायण को सीआईए का एजेंट, सरमायेदारों का साथी, देशद्रोही कहना यह ठीक नहीं, अनुचित है। वे भी देशभक्त हैं। आपके भाषणों में अनेक बार ऐसे ही विचार कहे गए हैं।…’ ( दस साल, जिनसे देश की सियासत बदल गई)
देवरस के ऐसे पत्रों के बावजूद, जैसा कि जॉफरलोट के इंटरव्यू से साफ है, आरएसएस और भाजपा आज इतनी ताकतवर है, तो उसके पीछे देवरस के विजन की भूमिका है, जिसके केंद्र में हिंदू राष्ट्र का एजेंडा है।
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जनता पार्टी के बिखराव के बाद आरएसएस की छवि दोहरी सदस्यता की वजह से धूमिल हुई थी और वह तकरीबन 1974 में जेपी आंदोलन से पहले की स्थिति में आ गया था।
जनवरी, 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जबर्दस्त तरीके से वापसी की। इसके दो महीने बाद 15 मार्च, 1980 के अपने अंक में इंडिया टुडे ने अपनी एक स्टोरी में लिखा कि आएसएस की सिकुड़ती छवि को तब और धक्का लगा जब इसके सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने इंदिरा गांधी की नई सरकार के साथ सहयोग की पेशकश की।
इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद देवरस की भूमिका को लेकर इसीलिए सवाल उठते हैं। किन जैसा कि जॉफरलोट ने कहा है, आरएसएस और भाजपा की अब तक की यात्रा में बालासाहब देवरस ने एक तरह से निर्णायक हस्तक्षेप किया था।
असुविधाजनक को खारिज कर देता है संघः जयशंकर गुप्ता
जेपी आंदोलन से जुड़े रहे और इमरजेंसी में जेल में रहे वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्ता क्रिस्टोफ जॉफरलोट के आरएसएस और देवरस को लेकर किए गए आकलन पर कहते हैं, संघ तो 27 सितंबर, 1925 को अपनी स्थापना के समय से ही अपने एक मिशन पर काम कर रहा है।

इस मिशन के लिए उसे जो कुछ सुविधाजनक लगता है, उसे वह अपना लेता है और जो असुविधाजनक लगता है, उसे खारिज कर देता है। इसे स्पष्ट करते हुए वह 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि तब गोलवलकर ने उसमें तब यह कहते हुए हिस्सा लिया था कि अभी हमारी लड़ाई अंग्रेजों से नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों और कम्युनिस्टों से है।
जयंशकर गुप्त आरएसएस की संरचना और उसके कामकाज को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि संघ के लोगों ने तो गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थाट्स तक से बाद के संस्करणों से वे हिस्सा हटा लिए जो उन्हें असुविधाजनक लग रहे थे!
इमरजेंसी के दौरान देवरस की इंदिरा को लिखी गई चिट्ठियों और माफी के सवाल पर वह कहते हैं कि उस समय आरएसएस में दो धाराएं थीं, एक थी, देवरस की धारा, जो इंदिरा के समर्थन को अपनी रणनीति का हिस्सा मान रही थी, वहीं दूसरी धारा, जिसमें रज्जू भैया और सुदर्शन जैसे लोग थे, उनका मानना था कि इंदिरा और इमरजेंसी का दमदारी से विरोध करना चाहिए।