गुजरात से फिर एक तकलीफदेह खबर आई है। इस राज्य के महीसागर जिले के एक गांव में एक इंजीनियरिंग कॉलेज की दलित छात्रा को कुछ कथित ऊंची जातियों की महिलाओं ने उस वक्त बाल पकड़ कर घसीटा, मारा पीटा, जाति सूचक गालियां दीं जब वह दलित इंजीनियरिंग छात्रा अपनी एक सहेली के साथ गरबा कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुंची थी। आरोपी महिलाओं के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया है।
इस देश में गुजरात, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और बिहार जैसे राज्य तो ऐसी नफरत के प्रतिनिधि प्रदेश हैं ही लेकिन हकीकत यह है कि पूरा देश ही अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों और दलितों के खिलाफ ऐसी नफरत की आग में झुलस रहा है।
हाल ही में राज्यसभा में सरकार के ही दिए आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय अत्याचार निवारण अधिनियम हेल्पलाइन पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध प्रताड़ना की करीब साढ़े छह लाख कॉल्स दर्ज की गईं हैं। यह तो वह शिकायतें हैं जो दर्ज हैं।जो दर्ज नहीं हैं वो तो हर दिन,हर कदम पर उनकी जिंदगी का हिस्सा ही हैं !
सरकार द्वारा दी गई इस जानकारी के मुताबिक 2020 से जुलाई 2025 के बीच सबसे ज्यादा कॉल्स उत्तर प्रदेश से आईं – करीब साढ़े तीन लाख।इसके बाद बिहार और फिर राजस्थान से।
सरकार ने तो इसे इन समुदायों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ बढ़ती जागरूकता कहा।लेकिन क्या यह सच नहीं है कि सदियों से उत्पीड़ित इन जातियों के विरुद्ध अत्याचार कम होने के बजाए बढ़ता ही रहा है? क्या यह सच नहीं है कि सैकड़ों वर्षों से छुआ–छूत के जिस दंश को इस देश के दलित झेलते आ रहे हैं वो आज भी,आजादी के इतने दशकों बाद भी, लोकतंत्र के तमाम दावों और इरादों के बाद भी इस देश के माथे पर कलंक की तरह चिपका हुआ है?
क्या यह सच नहीं है कि तमाम कानूनों और सुरक्षा की संवैधानिक गारंटियों के बावजूद आज भी किसी दलित के मुंह पर पेशाब किया जाता है, किसी दलित को उसकी जाति की वजह से कत्ल कर दिया जाता है, किसी दलित बेटी का उसकी जाति की वजह से बलात्कार हो जाता है, किसी दलित को घोड़ी पर चढ़ने के गुनाह में कोड़े लगाए जाते हैं, किसी का घर फूंक दिया जाता है?
क्या यह सच नहीं है कि गांधी जी ने हिंदू समाज की एकता की खातिर डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ 1932 में जो ऐतिहासिक पूना पैक्ट किया था उसके उद्देश्यों की धज्जियां उसी हिन्दू समाज के सवर्णों का एक बड़ा हिस्सा ही उड़ा रहा है? आज गांधी जिंदा होते तो दलितों से क्या कहते और डॉ.आंबेडकर से ही क्या कहते?
एक सच और है।ये अगर प्रवृत्ति है तो बेहद खतरनाक और चिंताजनक है। सच यह है कि दलितों पर अत्याचार की अधिकांश शिकायतें उन राज्यों से हैं जहां भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टियां सत्ता में हैं। हालांकि गैर भाजपा शासित राज्यों से भी दलित प्रताड़ना की शिकायतें हैं पर क्या यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि देश में हिंदुत्व के नाम पर एक ऐसी आक्रामकता तेजी से फैल रही है जिसके निशाने पर मुसलमान, दलित, आदिवासी ही नहीं अन्य अल्पसंख्यक भी हैं?
दलितों के सदियों से चले आ रहे जिस उत्पीड़न की शिनाख्त डॉ.आंबेडकर कर रहे थे,जिसके खिलाफ वे संविधान के जरिए दलितों को सशक्त बनाने की चिंता कर रहे थे, निर्वाचन के उनके अवसर बढ़ाए गए, सत्ता में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाई गई वो चिंताएं जस की तस हैं और तमाम उम्मीदें धराशायी हैं।
एक सच यह भी है कि इन उत्पीड़ित, उपेक्षित जातियों में शिक्षा और रोजगार से लेकर अपने तमाम अधिकारों को हासिल कर लेने की बेचैनी बढ़ी है। वे उत्पादन के साधनों पर भी हक चाहते हैं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर भी। उनकी यह बेचैनी हिन्दू नहीं हिंदुत्ववादियों को खटकती है। इन जातियों की गरिमा को कुचलने में यही तबका पूरे उन्माद और बेशर्मी से सामने होता है लेकिन क्या इस मानवीय गरिमा के कुचले जाने का दोषी पूरा समाज नहीं है?
उस समाज को तो सिर्फ धिक्कारा ही जा सकता है जो आज एक दलित छात्रा को अपने साथ गरबे में शामिल होने पर अपमानित करता है या ऐसे अपमान पर खामोश रह जाता है।