गांधीजी और भगत सिंह के बीच दीवार खड़ी करने वाले भूल करते हैं ,उनके बीच दीवार नहीं पुल था। दोनों देश की आजादी के लिए प्रतिबद्ध थे। दोनों के दर्शन अलग -अलग थे। गांधी का दर्शन अहिंसा था, उन्होंने ‘बम का पंथ’ से अहिंसा को समझाना चाहा और अपना दर्शन रखा तो भगत सिंह ने देश के सामने ‘बम का दर्शन’ रखा था। हत्या से पहले गांधीजी जानते थे उन पर हमला हो सकता है। भगत सिंह ने भी असेंबली में बम फेकने का निर्णय लेकर शहादत का रास्ता चुना था।
गांधीजी हिंसा के खिलाफ थे और अपनी शहादत तक अहिंसा के सिद्धांत से जुड़े रहे। भगत सिंह फांसी पर चढ़ने को उत्सुक थे, क्योंकि उनकी मौत से उनकी विचारधारा को नई ताकत मिल सकती थी। गांधी और भगत सिंह अपनी -अपनी तरह से आजादी की लड़ाई को रोशन कर रहे थे। इसलिए गांधी हिंसा के दर्शन के खिलाफ होते हुए भी भगत सिंह को बचाने लगे रहे क्योंकि देश के तीन बेटों की जिंदगी का सवाल था।
पर सवाल था भगत सिंह और उनके साथी क्या चाहते थे ? भगत सिंह के हीरो कर्तार सिंह सराभा थे ,जिन्होंने जज से कहा था आपका ख्याल है कि मुझे पता नहीं कि आप क्या सलूक करेंगे ? मैं फांसी को तैयार हूं …अब आपको जो करना हो , करो , मुझे पता है..”
भगत सिंह के क्रांतिकारी साथी शिव वर्मा ने ‘संस्मृतियाँ’ में लिखा है ”… भगत सिंह चाहता था जो साथी बम फेकने जाएं वे वहीं आत्मसमर्पण कर दें और पकड़े जाने पर अपने उद्देश्य की घोषणा करें। वह अदालत को राजनीतिक मंच के रूप में इस्तेमाल करना चाहता था ….हम जानते थे पकड़े जाने पर निश्चित रूप से भगत सिंह को मौत की सजा मिलेगी।’
यानी, शहादत का चोला पहनना भगत सिंह का चुनाव था।
सुखदेव ने भी लिखा था ..”सच पूछा जाए तो सजा घटाने की अपेक्षा फांसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है.’
जो लोग ये दुष्प्रचार करते हैं गांधीजी ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश नहीं की उन्होंने न भगत सिंह को पढ़ने की कोशिश की न इतिहास के पन्ने पलटने की या ….जानबूझ कर गांधीजी को बदनाम करने की मुहीम छेड़े हुए हैं।
पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने फांसी से पहले भगत सिंह से पूछा था, “आप और आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया।”
भगत सिंह का जवाब था, “इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है। अदालत में अपील से नहीं।”
कुछ और तथ्यों को संक्षेप में देखिये और विचार करिये :
1 -बम का दर्शन में भगत सिंह ने लिखा है ” हम न किसी की दया चाहते हैं और न एक इंच भी पीछे हटने को तैयार हैं। हमारी लड़ाई आर-पर की लड़ाई है – जीत या मौत ..इंकलाब जिंदाबाद ”
2 -भगत सिंह की फांसी के बाद कानपुर में भड़की हिंसा पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी ने कहा “मेरा विश्वास है कि अगर भगत सिंह की आत्मा कानपुर काण्ड को देख रही है , तो अवश्य गहरी वेदना और शर्म अनुभव करती होगी।
गांधीजी के भाषण के अंत में किसी ने उनसे सवाल किया कि आपने ‘भगतसिंह को बचाने के लिए क्या किया ?’
इस पर गांधीजी का जवाब था : ‘ मैं अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था , इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या -क्या किया। मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया। समझाने की जितनी शक्ति मुझमे थी सब मैंने उन पर आज़मा कर देखी। भगत सिंह के परिवार वालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन, अर्थात 23 मार्च को सबेरे मैंने वाइसराय को एक ख़ानगी ख़त लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उंडेल दी थी , पर सब बेकार हुआ। [सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय 45 वां खंड पेज :202]
29 मार्च 1931 को गांधीजी ने ‘नवजीवन ‘ में लिखा था – ‘ वीर भगत सिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गए .उनकी देह को बचाने के बहुतेरे प्रयत्न किये गए। कुछ आशा बंधी पर वह व्यर्थ हुई .’
3-21 मार्च को गांधी ने इरविन से मुलाकात भी की। फिर से उन्होंने इरविन से अपील की। 22 मार्च को भी वो इरविन से मिले। वायसराय ने वादा किया कि वो इस पर विचार करेंगे। गांधी को उम्मीद दिखी। 23 मार्च को उन्होंने वायसराय को एक चिट्ठी भेजी। ये गांधी की आखिरी कोशिश थी। क्योंकि 24 मार्च को फांसी मुकर्रर थी।
गांधी ने 23 मार्च, 1931 को वायसराय को एक निजी पत्र में इस प्रकार लिखा था-
दरियागंज, दिल्ली
23मार्च, 1931
प्रिय मित्र,
आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने-जैसा लगता है। पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगतसिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किए जाने की आशा नहीं है। फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। डा सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया किंआप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि इसपर पुन: विचार करने की गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं।
जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो, तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी होती है। यदि सजा हल्की हो जाती है तो बहुत संभव है कि आंतरिक शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सजा दी गई तो निःसंदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी।
चूँकि आप शांति स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को, जैसे भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं। इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए। यूँ ही वह कुछ सरल नहीं है।
मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करुंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। यद्यपि मैं बोल नहीं सकूंगा, (मौन व्रत) पर मैं सुन सकता हूं और जो-कुछ कहना चाहता हूं, वह लिखकर बता सकूंगा।
दया कभी निष्फल नहीं जाती.
मैं हूं
आपका विश्वस्त मित्र
स्रोत –‘द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी , पेज 333 -334 भाग -45 ‘
4-26 मार्च,1931 के कराची कांग्रेस में भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह भी मौजूद थे .उन्होंने भगत सिंह के शब्दों को याद करते हुए कहा, “आप परेशान नहीं हो, मुझे फांसी लगने दो। यही ठीक है. हमें फांसी लगी तो एक हफ्ते में ही स्वराज मिल जाएगा. वो कहता था कि प्रिवी कौंसिल में जाने का कोई फायदा नहीं ,चूँकि गुलामों का हक नहीं है कि शिकायत करें .” [कुलदीप नैयर ‘द मार्टिर भगत सिंह एक्सपेरिमेंट इन रिवोल्यूशन’ ]
5-फांसी पर लटकाए जाने से तीन दिन पूर्व- 20 मार्च, 1931 को- सरदार भगतसिंह तथा उनके सहयोगियों राजगुरु सुखदेव ने पत्र के द्वारा सम्मिलित रूप से पंजाब के गवर्नर से मांग की थी की उन्हें युद्धबन्दी माना जाए । युद्धबन्दियों-जैसा ही व्यवहार किया जाए तथा फांसी पर लटकाए जाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए।
पत्र का समापन इस बात से किया कि ‘हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए.’
5-सुखदेव ने सुना कि गांधीजी कैदियों को छुड़वाने के लिए बातचीत कर रहे हैं। उन्होंने एक खुला पत्र ‘परम कृपालु महात्मा जी ” के नाम से अपने भाई के हाथों में दिया पर पत्र गांधी जी तक पहुंचता इसके पहले 23 मार्च को सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को फांसी हो चुकी थी।” यह चिट्ठी गांधी जी के उत्तर सहित हिन्दी ‘नवजीवन’, 30 अप्रैल, 1931 के अंक में प्रकाशित हुई थी ,जो उपलब्ध है और दोनों पत्रों को साथ में पढ़ा जाना चाहिए। ये दोनों पत्र सुखदेव के भाई मथरादास थापर की पुस्तक ‘अमर शहीद सुखदेव’ में संकलित हैं।
एक तथ्य ये भी है आरम्भ के दिनों के बारे में क्रांतिकारी शिव वर्मा ने ‘संस्मृतियाँ’ में लिखा है ” उन दिनों गांधीजी हर महीने की 18 तारीख़ को उपवास रखते थे। सुखदेव यह उपवास रखता था ”
6-भगत सिंह खुद अपनी सजा माफी की अर्जी देने के लिए तैयार नहीं थे। जब उनके पिता ने इसके लिए अर्जी लगाई तो उन्होंने बेहद कड़े शब्दों में पत्र लिखकर इसका जवाब दिया था। 30 सितम्बर, 1930 को भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को एक अर्जी देकर बचाव पेश करने के लिए अवसर की मांग की।
लेकिन भगतसिंह और उनके साथी बिल्कुल अलग नीति पर चल रहे थे। उनके अनुसार, ब्रिटिश सरकार बदला लेने की नीति पर चल रही है व न्याय सिर्फ ढकोसला है। किसी भी तरीके से उसे सजा देने से रोका नहीं जा सकता। उन्हें लगता था कि यदि इस मामले में कमजोरी दिखायी गई तो जन-चेतना में अंकुरित हुआ क्रांति-बीज स्थिर नहीं हो पायेगा। पिता द्वारा दी गई अर्जी से भगतसिंह की भावनाओं को भी चोट लगी थी :
पत्र का अंश -:
4 अक्तूबर, 1930
”पूज्य पिता जी,
मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि आपने मेरे बचाव-पक्ष के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन भेजा है। यह खबर इतनी यातनामय थी कि मैं इसे खामोशी से बर्दाश्त नहीं कर सका। इस खबर ने मेरे भीतर की शांति भंग कर उथल-पुथल मचा दी है। मैं यह नहीं समझ सकता कि वर्तमान स्थितियों में और इस मामले पर आप किस तरह का आवेदन दे सकते हैं?
आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूं लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूं कि आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था। आप जानते थे कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं।
मैं आपकी सहमति या असहमति का ख्याल किये बिना सदा स्वतन्त्रतापूर्वक काम करता रहा हूं।…… अंत में मैं आपसे, आपके अन्य मित्रों एवं मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेनेवालों से यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपके इस कदम को नापसंद करता हूँ। मैं आज भी अदालत में अपना कोई बचाव प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं हूं।…..”
7–कराची कांग्रेस में ही गांधीजी की ओर से नेहरूजी ने प्रस्ताव पेश कर कहा ‘ भगतसिंह वीर योद्धा थे जिन्होंने खुले मैदान में दुश्मन का सामना किया। वह देश के लिए जोश से भरे नौजवान थे। वह एक चिंगारी की तरह थे जो कुछ ही समय में लौ बन गयी ओर हर जगह अँधेरा दूर करते एक कोने से दूसरे तक फ़ैल गयी। [रिपोर्ट ऑफ़ द कराची सेशन मार्च 1931 ]
अपूर्व गर्ग स्वतंत्र लेखक हैं