लेंस अभिमत
छत्तीसगढ़ के औद्योगिक इलाकों में काम करने वालों की जिंदगी की क्या कीमत है इसका एहसास शुक्रवार को गोदावरी पॉवर एंड स्टील प्लांट में हुए एक हादसे के बाद हुआ। इस हादसे के बाद जिसमें 6 लोगों की मौत हुई और 6 घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती हैं।
दुर्घटना स्थल पर शासन और प्रशासन के प्रतिनिधि के तौर पर जो सबसे बड़ा अफसर पहुंचा वह एक एडिशनल एसपी था। न कलेक्टर, न एसपी, न विधायक, न सांसद, न मंत्री और न विपक्ष का कोई बड़ा नेता दुर्घटना स्थल पर नजर आया।
दुर्घटना के बाद इसकी पहली खबर बाहर आने में भी कई घंटे लग गए थे। आधी रात इन पंक्तियों के लिखे जाने तक न सरकार की तरफ से, न फैक्ट्री प्रबंधन की तरफ से किसी तरह के मुआवजे की घोषणा की गई थी। मृतकों और घायलों के परिजन बदहवास थे। लेकिन, उनसे बात करने के लिए कुछ छोटे अधिकारी ही उपलब्ध थे।
आलम यह था कि उनके भी फोन फैक्ट्री प्रबंधन से लेकर जनप्रतिनिधियों तक कोई नहीं उठा रहा था। दरअसल, छत्तीसगढ़ के औद्योगिक क्षेत्र में यह नजारा पहली बार देखने को नहीं मिला।
इन इलाकों में अब न तो श्रमिकों की मजबूत संगठित आवाज है और न ही उनकी सुरक्षा और कल्याण के ठोस उपाय हैं। औद्योगिक इलाकों की श्रमिक बस्तियों में जीवन नारकीय है। इन श्रमिकों के अधिकारों की चिंता करने की जिम्मेदारी जिस श्रम विभाग की है, वह भी उद्योगपतियों के हितों के परहेदार सा नजर आता है।
दरअसल, सत्ता के हर स्तर पर इस समय सबसे बड़ा एजेंडा सिर्फ निवेश और औद्योगिक विकास है। श्रमिक कल्याण, मजदूरों के अधिकार, उनके मानवाधिकार, उनकी जिंदगी से जुड़े तमाम जरूरी सवाल ताकतवर उद्योगपतियों की चौकठ पर बंधक हैं।
शुक्रवार को हुए हादसे में बहा खून भी धुल जाएगा। फिर कोई नया हादसा होगा। और फिर यही सवाल खड़े रहेंगे। व्यवस्था ऐसी है, जिसमें पूंजी की ताकत के आगे मजदूरों के खून पसीने का मोल नहीं।
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