हाल के बरसों में टीवी चैनलों की राजनीतिक बहसों का स्तर जिस तरह से नीचे गिरा है, उसमें इन दिनों सबआल्टर्न ग्रुप से आने वाली दो युवा स्कॉलर संभावनाओं से भरी आवाजों के रूप में उभर रही हैं, जिन पर गौर किया जाना चाहिए।
ये हैं, राष्ट्रीय जनता दल की युवा प्रवक्ता और जेएनयू की स्कॉलर कंचना यादव और प्रियंका भारती, जिन्होंने बेहद मामूली पृष्ठभूमि से ऊपर उठकर और करिअर के बहुत से सुरक्षित विकल्पों को दरकिनार कर राजनीति के जरिये अपनी बात रखने का फैसला किया है।
दरअसल कंचना और प्रियंका की चर्चा हम यहां इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि हाल ही में ऐसी खबरें आईं जिनसे पता चला कि कथित रूप से भाजपा प्रवक्ताओं ने टीवी डिबेट में उनके साथ शामिल होने से परहेज किया है। हालांकि प्रियंका भारती और कंचना यादव दोनों के आरोप हैं कि बकायदा उनके नाम लेकर टीवी चैनलों से कहा गया कि वे उन्हें बहस में न बुलाएं!
हम राजद की राजनीति या उसकी विचारधारा पर यहां बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम यहां कहना चाहते हैं कि किस तरह से भाजपा, जैसा कि उस पर लंबे समय से आरोप लग रहे हैं, टीवी की डिबेट को प्रभावित करती है।
कथित मुख्यधारा के टीवी चैनलों की निष्पक्षता को लेकर सवाल उठते हैं, तो इसकी वजह यही है कि वहां सरकार से असहमत आवाजें, खासतौर से हाशिये के लोगों की आवाजें सिमटती जा रही हैं।
वास्तव में कथित मुख्यधारा के मीडिया में हाशिये के लोगों की आवाजें कम सुनाई देती हैं तो इसकी दो बड़ी वजहें हैं, एक तो यह कि मीडिया के संगठनात्मक ढांचे में आज भी निचले या वंचित तबके की हिस्सेदारी बहुत कम है और आज भी इसका चरित्र कुलीन है, दूसरा यह कि प्रमुख राजनीतिक दलों की दिलचस्पी भी टीवी डिबेट में शोर-शराबे का हिस्सा बनने तक कहीं अधिक सीमित है, बजाए तर्कसंगत तरीके से और विचारधारा के स्तर पर बहस करने के।
यही नहीं, टीवी चैनलों की डिबेट में गाली गलौज से लेकर मारपीट तक के दृश्य आम हो गए हैं और यहां तक कि टीवी एंकर तक सांप्रदायिक और जातीय टिप्पणियों से गुरेज नहीं करते, इन दोनों युवा प्रवक्ताओं ने न केवल कम समय में अपनी प्रतिभा के दम पर अलग जगह बनाई है, बल्कि सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख और पेरियार-आंबेडकर की विचारधारा को लेकर तर्कों के साथ बात करती हैं।
वास्तव में सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग के दम पर सत्ता में पहुंच चुकी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कंचना तथा प्रियंका की अपनी पार्टी राजद तक को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए कि उन्होंने भी मंडल आंदोलन के बाद और मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू होने के बाद बहुजन समाज के सबलीकरण की दिशा में बहुत रचनात्मक ढंग से काम नहीं किया।
इन दलों की सत्ता भी कुछ हाथों तक सिमट गई। दरअसल इन दलों के लंबे समय से सत्ता से बाहर रहने की भी यह एक वजह है। बेशक राजद नेता तेजस्वी यादव ने कंचना और प्रियंका जैसी प्रतिभाशाली युवाओं को मौका देकर अच्छा काम किया है, लेकिन यह बदलाव सिर्फ उनके प्रवक्ता बनने तक सीमित न रहे।