भारत में सांप्रदायिक तनाव या दंगों के दौरान पुलिस की निष्पक्षता को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं और अब सुप्रीम कोर्ट के एक ताजा आदेश ने इसकी तस्दीक की है।
महाराष्ट्र के अकोला में मई, 2023 में मामूली विवाद से हुए दंगों से संबंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस के एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का निर्देश देने के साथ ही स्पष्ट कहा है कि इसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को शामिल किया जाए।
सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि पुलिस को हर तरह के पक्षपात से ऊपर उठकर निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच करनी चाहिए। यह विडंबना ही है कि एक संवैधानिक गणतंत्र बनने के करीब आठ दशक बाद भी देश की सर्वोच्च अदालत को पुलिस को ऐसी हिदायत देनी पड़ रही है। वास्तव में जब बात सांप्रदायिक दंगों में पुलिस या सुरक्षा बलों की भूमिका की बात आती है, तो इसे तत्कालीन राज्य सरकार या केंद्र सरकार की भूमिका से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए।
आखिर पुलिस सरकारों के अधीन ही काम करती हैं। तमाम रिपोर्ट्स बताती हैं कि आजादी के बाद अब तक हुए तमाम छोटे बड़े दंगों में पुलिस की भूमिका अक्सर संदिग्ध ही रही है। 1987 में उत्तर प्रदेश के चर्चित हाशिमपुरा नरसंहार के मामले को निर्णायक तरीके से ऊंची अदालत तक ले जाने वाले सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी और जाने माने साहित्यकार विभूति नारायण राय अपने अध्ययन में लंबे समय से सांप्रदायिक दंगों में पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठाते रहे हैं।
राय का यह आकलन यहां रेखांकित करने लायक है कि, जब तक राज्य यानी सरकार न चाहे, तो किसी भी दंगे को 24 घंटे में नियंत्रित किया जा सकता है! दरअसल अभियोजन होने के नाते दंगों से पहले और उसके बाद पुलिस की भूमिका अहम होती है, लिहाजा इसका असर इनसे संबंधित अदालती फैसलों पर भी पड़ता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों से लेकर 2002 के गुजरात दंगों तक यह पैटर्न देखा जा सकता है।
सवाल पुलिस की क्षमता का नहीं, बल्कि उसे नियंत्रित करने वाली सरकारों का भी है, जो अक्सर राजनीतिक कारणों से पुलिस का दुरुपयोग करती रहती हैं। गैरसरकारी संगठन कॉमन कॉज औऱ सीएसडीएस की भारत में पुलिसिंग से संबंधित इसी साल की रिपोर्ट (एसपीआईआर-2025) के मुताबिक जाति, धर्म और राजनीतिक संबद्धता अक्सर पुलिस की धारणाओं को आकार देने और उनके काम को प्रभावित करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक यह पक्षपात शुरुआती जांच और फिर आगे की कानूनी प्रक्रिया को प्रभावित करता है। अकोला के जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी गठन का आदेश दिया है, उसी को देखें, तो इस मामले में पुलिस का रवैया शुरू से बेहद पक्षपातपूर्ण रहा है और उसका खामियाजा पीड़ित पक्ष को उठाना पड़ रहा था।
यह आदेश दंगों के दौरान जानलेवा हमले में बच गए 17 साल के किशोर मोहम्मद अफजल की याचिका पर है, जिसने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उसकी शिकायत पर न तो एफआईआर दर्ज की थी और न ही जांच की। कहने की जरूरत नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की इस मामले में पुलिस पर की गई सख्त टिप्पणी सरकारों के लिए भी सबक की तरह है; लेकिन सवाल तो यही है कि क्या सरकारें कोई सबक लेंगी?