छत्तीसगढ़ में एनएचएम कार्मचारी और मितानिनों के दोहरे आंदोलन पर गौर किए जाने की जरूरत है, जिनकी आवाजें लंबे समय से अनसुनी कर दी गई हैं। दरअसल राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) कार्यकर्ता हों या मितानिनें उनकी मांगों को लेकर राज्य सरकार का रवैया टालने वाला ही रहा है और इस लंबी जड़ता के खिलाफ उनका गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा है, तो इसे समझने की जरूरत है।
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के दो साल बाद 2002 में तत्कालीन अजीत जोगी सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूती देने के लिए मितानिन व्यवस्था शुरू की थी, वहीं नेशनल हेल्थ मिशन की शुरुआत 2005 में हुई। एनएचएंम कार्यकर्ता जहां संविदा नियुक्ति पर रखे जाते हैं, वहीं मितानिनों की भूमिका तो बस स्वास्थ्य कार्यकर्ता जैसी ही है।
वास्तव में प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था इन दोनों के कंधों पर है और मितानिनें तो सही मायने में ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ ही हैं। मितानिनें चाहती हैं कि उन्हें एनएएचएम के दायरे में लाया जाए और एनएएचएम कार्यकर्ताओं की मांग है कि उन्हें नियमित किया जाए।
ऐसे समय, जब मेडिकल कॉलेज की महंगी पढ़ाई के बाद डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में जाना नहीं चाहते, ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में मितानिनें ही बेबस लोगों का सहारा बनती हैं। यह दर्ज किया जाना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की आधिकारिक वेबसाइट गर्व से बताती है कि मितानिन कार्यक्रम आज दुनिया का सबसे बड़ा सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता कार्यक्रम है और इसने स्वास्थ्य संबंधी व्यवहार में बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मीडिया में ऐसी कहानियां आती रहती हैं कि कैसे दूरस्थ आदिवासी क्षेत्र हों या दुर्गम इलाके मितानिनों ने हमेशा अपनी उपयोगिता साबित की है। राज्य ने यदि संस्थागत प्रसव के मामले में अपनी स्थिति बेहतर की है, तो उसमें मितानिनों की भूमिका भी अहम है। कोरोनाकाल में मितानिनों के साथ ही एनएचएम कार्यकर्ताओं ने भी अपनी उपयोगिता साबित की थी।
विधानसभा चुनाव के समय भाजपा ने अपने घोषणा पत्र मोदी की गारंटी में 72 हजार मितानिनों की मांगों पर अमल करने का आश्वासन दिया था, लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के करीब दो साल बाद वे सड़क पर हैं!
वहीं 16 हजार एनएचएम कार्यकर्ताओं ने अपने आंदोलनरत 25 साथियों की बर्खास्तगी के बाद सामूहिक इस्तीफे जैसा कदम उठाया है, तो यह उनकी बेबसी को ही दिखा रहा है। लोकतांत्रिक तरीके से किए जा रहे इन आंदोलनों के प्रति सरकार को न केवल संवेदनशील होना चाहिए, बल्कि बातचीत कर कोई सुलह का रास्ता निकालना चाहिए।