देश में बीजेपी आईटी सेल के प्रभाव में फंसे लोग अगर देश की हर समस्या कारण नेहरू जी को मानें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ग्यारह साल के कार्यकाल में यही रिकॉर्ड बिना नागा बजाया है। नेहरू जी का निधन वैसे तो 1964 में हो गया था, लेकिन बीजेपी या आरएसएस के लोगों को हर वक़्त उनका भूत सताता है।
इसकी वजह वैचारिक है। महात्मा गांधी के योग्य शिष्य के रूप में वे जिस आधुनिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत का सपना देखते थे, वह संघ परिवार के लिए हमेशा ही निशाने पर रहा।
स्वभाविक ही है कि स्वतंत्रता संग्राम और पहले प्रधानमंत्री के रूप में निभाई गई अन्यतम भूमिका पर मिट्टी डालने का एक विराट उपक्रम चल रहा है। न जाने कितने असत्य और अर्धसत्य के सहारे यह परियोजना चौबीस घंटे चलायी जा रही है।
लेकिन हैरानी की बात है कि दिल्ली के एक बड़े कोचिंग संस्थान के संस्थापक और मशहूर शिक्षक विकास दिव्यकीर्ति भी इस परियोजना का हिस्से बने हुए हैं।
विकास दिव्यकीर्ति यूपीएससी कोचिंग के क्षेत्र में चर्चित नाम हैं। वे दिल्ली में ‘दृष्टि आईएएस’ (Drishti IAS) नामक कोचिंग संस्थान के संस्थापक और निदेशक हैं, जो सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने के लिए जाना जाता है। वे अपने यूट्यूब चैनल और लेक्चर्स के माध्यम से इतिहास, राजनीति और समसामयिक मुद्दों पर सहज व्याख्या के लिए लोकप्रिय हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के सामने हाल ही में उनका एक वीडियो सामने आया जिसमें वे छात्रों के सामने नेहरू जी के बारे में सरासर झूठ बोल रहे हैं। वे बता रहे हैं कि नेहरू जी ने चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाने के लिए काफ़ी कोशिश की थी। साथ में वे नेहरू जी की इस उदारता के लिए महात्मा गांधी को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं, जिनके साथ नेहरू जी ने तीस साल तक ‘अप्रेंटिस’ की थी।
हक़ीक़त ये है कि चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का संस्थापक सदस्य है। वह 1945 से ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है, जबकि नेहरू जी के हाथ में भारत की बागडोर 1947 में आई। इस तरह का दुष्प्रचार बीजेपी आईटी सेल करता है, तो कई बार उसे नजरअंदाज़ कर दिया जाता है, लेकिन विकास दिव्यकीर्ति जैसे शिक्षक जब ऐसा करते हैं, तो झूठ को प्रामाणिकता मिल जाती है। सहज ही संदेह होता है कि साख विहीन आईटी सेल क्या ऐसे लोगों का सहारा ले रहा है जिनकी साख बाक़ी है।
चीन के सुरक्षा परिषद के सदस्य बनने के पीछे की परिस्थिति समझना ज़रूरी है। पूरी दुनिया 1939 से 1945 तक द्वितीय विश्वयुद्ध में झुलस रही थी। इस युद्ध ने पहले विश्वयुद्ध के बाद बने लीग ऑफ़ नेशन्स को बेमानी साबित कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में सात-आठ करोड़ लोग मारे गए। इसमें ढाई करोड़ सैनिक थे और बाक़ी आम नागरिक। इससे युद्ध की भयावहता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
इस युद्ध में मित्र राष्ट्रों की जीत हुई और जर्मनी, जापान और इटली के गठबंधन यानी धुरी राष्ट्रों की हार हुई। हिटलर और मुसोलिनी का अंत हुआ था, लेकिन उनके शैतानी विचारों ने पूरी दुनिया को हिला दिया था। ऐसे में विश्व शांति और सुरक्षा के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई ।
साथ ही एक सुरक्षा परिषद भी गठित की गयी जिसमें पाँच सदस्य थे। इसके सदस्य थे- संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और रिपब्लिक ऑफ चाइना। यानी विकास दिव्यकीर्ति की दिव्यदृष्टि के उलट चीन 1945 में ही सुरक्षा परिषद का बन चुका था। उसके पास अन्य स्थायी सदस्यों की ही तरह वीटो पावर भी थी। यानी वह किसी भी फ़ैसले को रोकने की शक्ति रखता था।
यह वह दौर था, जब नेहरू जी स्वतंत्रता आंदोलन को मुक़ाम तक पहुंचाने की कोशिशों में जुटे थे। उनका एक पांव जेल में होता था, तो दूसरा रेल में जिसके ज़रिये वे भारत के कोने-कोने को जागृत करने पहुंचते थे। नेहरू जी कुल मिलाकर नौ साल जेल में रहे। और जब 1947 में भारत आज़ाद हुआ, तो चीन सुरक्षा परिषद का सदस्य बना बैठा था। यानी इस सिलसिले में उनकी कोशिशों के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।
यह मानना मुश्किल है कि विकास दिव्यकीर्ति इस सच्चाई को नहीं जानते। दरअसल 1949 में चीन में माओत्सेतुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट क्रांति हो गई थी और च्यांगकाई शेक का ‘रिपब्लिक आफ चाइना’ माओ का ‘पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना’ बन गया।
च्यांगकाई शेक की सरकार भागकर ताइवान चली गई थी जो चीन का ही एक हिस्सा है। सरकारें बदलने से देश की स्थिति तो बदलती नहीं लेकिन अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटन तो पक्के पूंजीवादी देश थे और हैं, वे सोवियत यूनियन के अलावा सुरक्षा परिषद के एक और देश का कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में जाना बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। वे ‘रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ को ही सुरक्षा परिषद के सदस्य देश के रूप में मान्यता दिये रखना चाहते थे।
नेहरू जी का मानना था कि पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता देना जरूरी है, क्योंकि अगर वह बाहर रहेगा, तो UN के फैसलों का उस पर कोई असर नहीं होगा। ये एक व्यावहारिक सोच थी। और हुआ भी वही। 1971 में ‘पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना’ को मान्यता दे दी गयी लेकिन प.नेहरू के निधन के तब सात साल हो चुके थे।
यह भी अफ़वाह फैलायी जाती है कि नेहरू जी के सामने चीन की जगह भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाने का प्रस्ताव था, लेकिन वे चीन के पक्ष में थे। भारत का दावा उन्होंने नहीं होने दिया। इस अहमकाना बात का नेहरू जी ने ही खंडन कर दिया था।
27 सितंबर 1955 को, नेहरू ने संसद में स्पष्ट कहा, “हमें सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए न तो औपचारिक, न ही अनौपचारिक प्रस्ताव मिला। कुछ संदिग्ध संदर्भों का हवाला दिया जा रहा है, जिनमें कोई सच्चाई नहीं है।”
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भारत को स्थायी सदस्यता देने के लिए अमेरिका की ओर से अनौपचारिक प्रस्ताव का दावा 1950 और 1955 के बीच के कुछ ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़ा है। यह दावा मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू के 2 अगस्त, 1955 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र और कुछ अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों पर आधारित है।
नेहरू ने 2 अगस्त 1955 को मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में उल्लेख किया कि अमेरिका ने अनौपचारिक रूप से सुझाव दिया था कि भारत सुरक्षा परिषद में चीन की जगह ले सकता है। लेकिन इस प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र महासभा या सुरक्षा परिषद में औपचारिक रूप से कभी प्रस्तुत नहीं किया गया।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत, सुरक्षा परिषद की संरचना में बदलाव (जैसे नए स्थायी सदस्य जोड़ना या हटाना) के लिए जटिल प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, जिसमें महासभा और मौजूदा स्थायी सदस्यों की सहमति शामिल है। इन सुझावों को राजनयिक स्तर पर विचार-विमर्श के रूप में देखा जा सकता है, न कि ठोस प्रस्ताव के रूप में।
वैसे भी चीन ख़ुद सुरक्षा परिषद का सदस्य था तो ख़ुद को हटाकर भारत को शामिल करने के किसी भी प्रस्ताव पर वह वीटो कर देता। हो सकता है कि शीत युद्ध के दौरान भारत को -गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के नाते नेहरू की निष्ठा को संदिग्ध बनाने के लिए ऐसा किया गया हो। वरना यह प्रस्ताव औपचारिक रूप से भी अमेरिका कभी पेश करता।
नेहरू ने भारत के लिए जो किया, उसे भुलाया नहीं जा सकता। ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल का कहना था कि विविधिताओं से भरा देश एक राष्ट्र नहीं बन सकता। बना तो टूट जाएगा। लेकिन नेहरू के नेतृत्व ने उसे ग़लत साबित किया। उन्होंने एक ऐसे आधुनिक भारत की नींव डाली जो पचहत्तर साल भी दुनिया के सामने सर उठाये खड़ा है।
पहले प्रधानमंत्री को बदनाम करने की साजिश बीजेपी करे तो समझ आता है, लेकिन विकास दिव्यकीर्ति जैसे लोग इसमें शामिल हो जायें, यह अफ़सोस से कुछ ज़्यादा करने की बात है।
- लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं