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लेंस संपादकीय

मराठा आरक्षणः इस बार आरपार का मतलब

Editorial Board
Last updated: August 31, 2025 4:10 pm
Editorial Board
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मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे पाटील अपने हजारों समर्थकों के साथ दो दिन से मुंबई में डेरा डाले हुए हैं और कह रहे हैं कि इस बार यह आरपार का मामला है। यही नहीं, वह भूख हड़ताल पर हैं और यह धमकी भी दी है कि वह जल भी छोड़ देंगे! उनके साथ आए समर्थकों के मीडिया में बयान हैं कि वे महीने भर का राशन लेकर आए हैं।

यह कुछ-कुछ उसी तरह के स्वर हैं, जैसा कि पांच साल पहले तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन के समय राजधानी दिल्ली में न केवल सुने गए थे, बल्कि उस आंदोलन ने मोदी सरकार को उन कानूनों को वापस लेने को मजबूर कर दिया था।

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए अभी साल भर नहीं हुए हैं और लोकसभा चुनाव को भी डेढ़ साल ही हुए हैं, लिहाजा मराठा आरक्षण आंदोलन के पीछे सीधे तौर पर कोई तात्कालिक राजनीतिक दबाव बनाने का इरादा तो नहीं दिखता है, लेकिन इसने महाराष्ट्र की सियासत में भूचाल जरूर ला दिया है।

महाराष्ट्र की सियासत में खासा दबदबा रखने वाले इस समुदाय को, जिसने राज्य के 19 में से दस मुख्यमंत्री तक दिए हैं, आरक्षण की क्या जरूरत है? महाराष्ट्र की आबादी में 30 फीसदी की हिस्सेदारी करने वाले मराठा कभी लड़ाका माने जाते रहे हैं, लेकिन आज ज्यादातर वे खेती पर ही निर्भर हैं।

घटती जोत ने उनके लिए भी वैसा ही संकट पैदा किया है, जैसा कि गुजरात में आरक्षण की मांग करने वाले पाटीदारों के साथ हुआ है। दरअसल मराठा आरक्षण की मांग खेती और रोजगार के संकट से उपजी मांग भी है। लेकिन दूसरी ओर मराठा आरक्षण के मुद्दे को महाराष्ट्र की सरकारें राजनीतिक हथियारों और तुष्टीकरण की तरह ही इस्तेमाल करती रही हैं।

पिछले विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले महाराष्ट्र की तत्कालीन एकनाथ शिंदे सरकार ने विधानसभा और विधान परिषद से सर्वसम्मति से मराठाओं को नौकरी और शैक्षणिक संस्थाओं में दस फीसदी आरक्षण देने से संबंधित बिल पारित करवा लिया था। अभी यह बिल अटका हुआ है, क्योंकि यह 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन करता है।

शिंदे सरकार ने महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश पर यह बिल पेश किया था, बावजूद इसके कि 2021 में इसी तरह के एक बिल पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। मराठा आरक्षण की ताजा मांग ने राज्य की देवेंद्र फड़नवीस की अगुआई वाली महायुति सरकार के लिए चुनौती पेश कर दी है, क्योंकि उसके नेता मनोज जरांगे पाटील अलग से दस फीसदी आरक्षण की मांग के बजाय ओबीसी के भीतर ही आरक्षण मांग रहे हैं।

उनकी मांग है कि मराठों को ओबीसी के भीतर खेतिहर जाति कुनबी का दर्जा दिया जाए। वास्तव में राज्य सरकार ने मराठों को कुनबी समुदाय में शामिल करने के लिए एक आयोग बना रखा है और बकायदा उसका कार्यकाल भी अगले साल तक के लिए बढ़ा दिया है। यह आयोग वंशावली और जाति प्रमाणपत्र को प्रमाणित कर मराठा समुदाय के लोगों को कुनबी में शामिल करने का प्रमाणपत्र जारी करता है।

मुश्किल यह है कि पीढ़ियों पुराने दस्तावेज और रिकॉर्ड कहां से लाए जाएं! वास्तव में इस पूरे मामले को उस बड़े संकट के दायरे में देखने की जरूरत है, जिसके कारण लोगों के पास रोजगार नहीं हैं। जिस अनुपात में हर साल बेरोजगारों की जमात पढ़-लिख कर निकल रही है, उस अनुपात में नौकरियां या रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं। खेतिहर समुदाय यदि शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण मांग रहा है, तो यह खेती के संकट को ही दिखा रहा है।

यह भी पढ़ें : अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे मनोज जरांगे की हुंकार-मराठा आरक्षण मिलने तक नहीं छोड़ेंगे मुंबई!

TAGGED:Editorialmaratha reservation
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