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सरोकार

चर्चिल की भविष्यवाणी के आईने में भारत का वर्तमान

अनिल जैन
Last updated: August 14, 2025 1:40 pm
अनिल जैन
Byअनिल जैन
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भारत को आजादी हासिल होने से पहले ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल का मानना था कि भारतीयों में शासन करने की योग्यता नहीं है, इसलिए अगर भारत को स्वतंत्र कर दिया गया तो भारतीय नेता शासन नहीं चला पाएंगे और यह देश बिखर जाएगा। चर्चिल ने यह बात भारत की आजादी को लेकर ब्रिटेन की संसद में हुई चर्चा के दौरान भी कही थी और बाद में भी कई बार दोहराई।

चर्चिल का कहना था कि आजादी के बाद भारत की सत्ता दुष्टों, बदमाशों और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी। चर्चिल के इस पूर्वाग्रह को भारत अपनी आजादी के बाद 67 सालों तक झुठलाता रहा, लेकिन हाल के सालों में हुए कुछ घटनाक्रमों पर, अभी जारी घटनाओं पर और भारत पर शासन कर रही राजनीतिक शक्तियों की भाषा और भाव-भंगिमा पर गौर करें, तो पाएंगे कि चर्चिल महाशय हर दिन, हर स्तर पर सही साबित हो रहे हैं।

आजादी के बाद इस देश ने कई रंग की सरकारें देखीं- लंबे समय तक मध्यमार्गी कांग्रेस की, समाजवादी सितारों से सजी जनता पार्टी, राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा की और धुर दक्षिणपंथी भाजपा की अगुवाई में बने कई दलों के गठबंधन की भी। जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक 14 प्रधानमंत्री भी देखे। जिस तरह कोई व्यक्ति अपने आप में पूर्ण या सौ फीसदी सही नहीं होता उसी तरह हम किसी भी सरकार के बारे में यह नहीं कह सकते कि उसने सब कुछ अच्छा ही अच्छा किया।

सो, आजादी के बाद हर सरकार और हर प्रधानमंत्री में कुछ न कुछ खामियां रहीं और उनसे छोटी-बड़ी गलतियां भी हुईं, लेकिन इसके बावजूद देश ने हर क्षेत्र में क्रमश: अपने आपको सजाया-संवारा और खरामा-खरामा तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता रहा। हमारा लोकतंत्र भी धीरे-धीरे परिपक्व होता रहा। इस तरह हमने चर्चिल को लगातार गलत साबित किया।

कुछ साल पहले तक 15 अगस्त के मौके पर भारत की आजादी का जश्न मनाते वक्त कम से कम इस बात पर हम फख्र कर सकते थे कि भारत एक लोकतंत्र है। हमारी चिंता और कोशिश इसे बेहतर बनाने की होती थी कि हम कैसे देश में बसने वाले सभी समूहों को इसमें समान रूप से भागीदार बनाएं। हमें लगता था कि अगर लोकतंत्र को जीवंत बनाना है, तो आर्थिक और सामाजिक बराबरी की ओर बढ़ना होगा। हमारी चिंता यह नहीं होती थी कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं।

1975 में लगे आपातकाल के वक्त यह ख्याल जरूर आया था कि अब भारत में लोकतंत्र नहीं बचेगा। लोगों को लगा था कि इंदिरा गांधी अब शायद चुनाव नहीं कराएंगी, लेकिन यह आशंका निर्मूल साबित हुई। उन्होंने न सिर्फ 1977 में चुनाव कराए, बल्कि करीब तीन साल तक सत्ता से बाहर रह कर 1980 में फिर से सत्ता हासिल करने के बाद आपातकाल को सही ठहराने या उस दौरान बने उन कानूनों को वापस लाने की जिद भी नहीं की, जिन्हें पांच दलों के विलय से बनी और सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने रद्द कर दिए थे।

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की अग्नि परीक्षा था, जिसमें पास होने के बाद यह भरोसा हो गया था कि भारत के लोकतंत्र को कोई नहीं हरा सकता। हम समझने लगे थे कि राजनीतिक दल सत्ता में आएंगे और जाएंगे, वे चुनाव जीतने के लिए धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल भी करेंगे तथा लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन अंत में उन्हें जनता की बात ही माननी पड़ेगी।

टीएन शेषन और जेएम लिंगदोह के कार्यकाल में और उसके बाद चुनाव आयोग ने इतनी शक्ति हासिल कर ली थी कि यह लगने लगा था कि देश जनादेश को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक ढंग से प्रभावित करने की कोशिशें भी बर्दाश्त नहीं करेगा। धार्मिक, सांप्रदायिक और जातिगत भावनाएं उभार कर वोट मांगने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने भी सख्त रवैया अपना लिया था। सवाल है कि क्या आजादी के आजादी के 79वें वर्ष में प्रवेश करते हुए हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र अब साबूत और सुरक्षित है?

इस सवाल के जवाब में हम चुनाव आयोग की तमाम तरह के विवादों से घिरी कार्यप्रणाली को देख सकते हैं। पिछले सात-आठ वर्षों के दौरान कोई चुनाव ऐसा नहीं रहा जिसमें उसकी भूमिका पर सवाल न उठे हो। हर चुनाव में उसकी निष्पक्षता का पलडा सत्तारूढ़ पार्टी की ओर झुका हुआ रहा है। लेकिन उसने न तो कभी किसी सवाल का समाधानकारक जवाब दिया और न ही ऐसा कुछ किया जिससे कि उसे निष्पक्ष माना जा सके। हाल ही में उसने बिहार में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अचानक मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण करने का ऐलान किया और एक महीने के अंदर 65 लाख से ज्यादा लोगों के नाम मतदाता सूची से हटा दिए।

इस सिलसिले में उसने कई लोगों को मरा हुआ घोषित कर उनके नाम सूची से हटा दिए हैं। उस पर आरोप है कि उसने यह काम केंद्र सरकार के इशारे पर सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए किया है। फिलहाल मामले की सुनवाई अभी सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। इसी बीच देश के नेता विपक्ष ने भी सबूतों के साथ देश को बताया है कि चुनाव आयोग किस तरह सत्ताधारी पार्टी के लिए काम कर रहा है। इस पर चुनाव आयोग तो खामोश बना हुआ है और सरकार के मंत्री उसके बचाव में सक्रिय हैं।

इस सिलसिले में हम हाल के कुछ वर्षों के दौरान महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में जनादेश को पलटने या निर्वाचित सरकारों को गिराने की घटनाओं को भी देख सकते हैं। इन सभी राज्यों में बेशुमार पैसे के अलावा राज्यपालों, चुनाव आयोग और केंद्रीय जांच एजेंसियों की मदद से सरकारें गिराई और बनाई गई हैं। कोशिशें राजस्थान और झारखंड में हुई थीं लेकिन नाकाम रहीं। हैरानी और अफसोस की बात यह है कि मीडिया के एक बड़े हिस्से और कुछ हद तक न्यायपालिका ने भी इस प्रवृत्ति को मान्यता दे दी है, जिससे भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे कमजोर प्राणी की शक्ल में दिखाई दे रहा है, जिसके वस्त्र तार-तार हो गए हैं और शरीर के कई अंग बुरी तरह से चोटिल होने से वह लहूलुहान हो गया है।

भारतीय लोकतंत्र की दुर्गति का सबसे बड़ा सबूत पिछले ढाई साल से हम सुदूर पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में देख रहे हैं, जहां हाई कोर्ट के एक निहायत गैर जरूरी आदेश के बाद दो समुदाय आपस में बुरी तरह गुत्थमगुत्था हो गए। एक साल पहले तक मणिपुर शब्दश: जल रहा था, मर रहा था। सैकड़ों लोग मारे जा चुके थे, वहां महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुए और उन्हें नंगा कर सड़कों पर घुमाया गया, हजारों घर और सरकारी इमारतें राख के ढेर में तब्दील हो गईं और हजारों की संख्या में बेघर हो चुके लोगों को अपनी जान बचाने के जंगलों में छुपना पड़ा। वहां प्रशासनिक मशीनरी बुरी तरह ध्वस्त हो चुकी थी। इस सबके बावजूद हमारे प्रधानमंत्री वहां जाने के लिए आज तक समय नहीं निकाल पाए। 

मणिपुर के संगीन हालात लेकर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की निष्ठुरता और बेपरवाही का आलम देखिए! विपक्ष दलों के लाख कहने के बाद भी जब प्रधानमंत्री संसद में आकर मणिपुर पर बोलने को तैयार नहीं हुए, तो विपक्ष की ओर से मजबूर होकर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। तीन दिन चली बहस के दौरान भी प्रधानमंत्री सदन में मौजूद नहीं रहे। वे सिर्फ उसी समय प्रकट हुए जब उनके बोलने की बारी आई।

प्रधानमंत्री ने अपने सवा दो घंटे भाषण में मणिपुर के हालात पर विपक्षी सदस्यों के सवालों का जवाब देने के बजाय उनके सवालों की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में कहा कि विपक्ष के प्रस्ताव में कोई इनोवेशन (नयापन) और क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) नहीं है। इसे अहंकार और अमानवीयता का चरम ही कहेंगे कि बुरी तरह से जल रहे, पिट रहे और मर रहे मणिपुर पर लाए गए प्रस्ताव में देश का प्रधानमंत्री नवीनता और रचनात्मकता तलाश रहा था और उसके इस कथन पर समूचा सत्तापक्ष ठहाके लगाते हुए मेजें थपथपा रहा था। सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री और सत्तापक्ष का यह निष्ठुरताभरा रवैया देख कर देश के आम लोगों और खास कर मणिपुर के लुटे-पिटे और हर तरह से तबाह हो चुके लोगों के दिलों पर क्या गुजरी होगी।

हमारे लोकतंत्र के ललुहान होने का एक बडा नजारा हमने और पूरी दुनिया ने कुछ साल पहले दिल्ली की सीमाओं पर एक साल तक चले किसान आंदोलन के रूप में भी देखा है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में जुटे किसानों ने पूरे एक साल तक सत्ता की निष्ठुरता, फरेब और उसके दमनचक्र का अहिंसक मुकाबला किया। इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून के बनते वक्त भी देखा गया कि इस विभाजनकारी कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के आंदोलन को बदनाम करने तथा उनकी आवाज का दबाने के लिए सरकार ने कैसे-कैसे हीन हथकंडे अपनाए।

सत्ता की निर्ममता और नाकारापन को हमने कोरोना महामारी के चलते देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान भी देखा है, जब देश के महानगरों और बड़े शहरों से लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर चिलचिलाती गरमी में भूखे-प्यासे और पैदल ही अपने घरों-गांवों की ओर पलायन को मजबूर हुए। कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में मारे गए असंख्य लोगों की लाशें जिस गंगा नदी में तैरती हुई देखी गई थीं, बाद में उसी गंगा में और उसके तट पर हमारे प्रधानमंत्री टीवी कैमरों की मौजूदगी मे धार्मिक क्रीड़ाएं करते दिखे थे।

किसी भी लोकतंत्र में संसद लोगों की इच्छाओं और उसकी तकलीफों का आईना हुआ करती है, लेकिन अब संसद में वही होता है जो सरकार चाहती है। विपक्ष के जायज सवालों को हो हल्ले में दबा दिया जाता है और महत्वपूर्ण विधेयक बिना बहस के ध्वनिमत से पारित करा लिए जाते हैं। प्रधानमंत्री दिल्ली में रहते में हुए भी संसद का सामना करने से कतराते हैं। संसद के दोनों सदनों के मुखिया भी हर वक्त स्पीकर और सभापति से ज्यादा मार्शल या बाउंसर की भूमिका में नजर आते हैं। संसद का ऐसा बदचलन और आवारा रूप पहले कभी नहीं देखा गया।

हमारे प्रधानमंत्री मौजूदा दौर को आजादी का अमृतकाल कहते हैं, लेकिन इस अमृतकाल में उन वजहों की शिनाख्त करना भी जरूरी है, जिनके चलते हमारा लोकतंत्र आज दारुण अवस्था में है और हम अघोषित तानाशाही के दौर में पहुंच गए हैं। एक चीज तो साफ दिखाई देती है कि देश की अर्थव्यवस्था पर देशी-विदेशी पूंजी का शिकंजा कसने और जल, जंगल, जमीन की लूट तेज होने का लोकतंत्र पर हमले से सीधा संबंध है। लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्थाओं- सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, सूचना आयोग आदि को कमजोर करने की रफ्तार उसी हिसाब से बढ़ी है।

न्यायपालिका की हालत तो यह हो गई है कि हाई कोर्ट का एक जज इस्तीफा देकर सत्तारूढ़ पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लडता है और जीत जाता है तो दूसरी ओर सत्ताधारी पार्टी की ही एक प्रवक्ता को हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट के एक प्रधान न्यायाधीश तो सेवानिवृत्त होते ही राज्यसभा का सदस्य मनोनीत कर दिया जाता है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट का कोई प्रधान न्यायाधीश देश के किसी शहर में जाए तो वहां की सरकार उसके स्वागत में सड़कों पर होर्डिंग्स लगाए या मुख्यमंत्री किसी जज के सम्मान में भोज का आयोजन करे या कोई जज सार्वजनिक मंच से प्रधानमंत्री की तारीफ करे या ऐसा कहे कि यह देश बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार ही चलेगा। लेकिन अब ऐसा होना सामान्य बात हो गई है। यही नहीं, अब तो विपक्ष का नेता अगर सरकार से देश की सुरक्षा को लेकर कोई सवाल करे तो सुप्रीम कोर्ट उस पर भी एतराज जताते हुए उस नेता की देशभक्ति पर सवाल उठाने लगा है। कुल मिला कर चुनाव आयोग के साथ ही न्यायपालिका भी अब सरकार और सत्ताधारी पार्टी का हिस्सा बनती जा रही है।

भारत की सेना का कभी किसी सरकार ने अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन अब ऐसा खुलेआम किया जा रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर सरकार अपनी नाकामी छुपाने के लिए सेना का सहारा लेने में कोई संकोच नहीं करती है और सैन्य अफसरों को सरकार के सुर में सुर मिलाने के लिए बाध्य किया जाता है।

कुल मिला कर मौजूदा सत्ता तंत्र उस राजनीतिक व्यवस्था को खत्म करने में लगा है जो आजादी के आंदोलन में उभरे और विकसित हुए श्रेष्ठतम मूल्यों तथा विचारों पर आधारित है। आजादी का आंदोलन उपनिवेशवाद, आर्थिक-सामाजिक विषमता तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष था। मौजूदा सत्ता-शीर्ष और उसका मार्गदर्शक संगठन इन तीनों बुराइयों को बनाए रखने और चर्चिल के कथन को सही साबित करने के लिए ‘परिश्रम की पराकाष्ठा’ कर रहा है।

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