किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है ?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
– बाबा नागार्जुन
Diamond Land : आजाद भारत की एक सुबह उस धरती से, जो हीरे उगलती है, जहां दुनिया का बेशकीमती रत्न एलेक्जेंड्राइट पाया जाता है और अब प्लेटिनम मिलने के दावे भी किये जा रहें हैं। इस धरती को हीरा चोरों का स्वर्ग कहा जाता है,यहां हीरा चोर झोपड़ियां किराए पर लेकर बसते हैं। ये है छत्तीसगढ़ का गरियाबंद जिला, विश्व के सबसे बड़े हीरा भंडारों में से एक लेकिन इस धरती के असली मालिक की जिंदगी में कितनी चमक है? यही पता करने हम निकले की आजादी के 78 साल बाद भी भारत के गांवों की तस्वीर कैसी है ? और यहां के लोगों के लिए आजादी के मायने क्या है?

इस रिपोर्ट की वीडियो स्टोरी यहां देखें : आजादी के 78 साल बाद भी अंधेरे में Diamond Land Gariyaband पार्ट 1
धवलपुर : जान जोखिम में डालकर शिक्षा की ओर बढ़ते कदम
सबसे पहले हम जा पहुंचे मैनपुर के पास धवलपुर गाँव, सुबह 9.30 बजे हमारी नजर ऐसे गांव की तरफ गयी जहां लोग जान जोखिम में डालकर अपनी ज़िन्दगी गुजार रहें हैं, दरअसल धवलपुर और जरनडीह गांव के बीच पक्की सड़क नहीं है, इसके बीच है बाकड़ी पैरी नाला। नाले के दूसरी तरफ रह रहे हैं 80 से 85 परिवार और ये सभी गांववासी इसी नाले को पार कर अपना राशन लाने के मोहताज हैं, स्वास्थ्य सुविधा के लिए भी इसी नाले को पार करना पड़ता हैं और स्कूल जाने के लिए भी गाँव के सभी बच्चों को इसी नाले से गुज़रना पड़ता है। इसके बाद हमने इसी गांव के सरपंच से बात की उन्होंने बताया की पुल बनवाने के लिए कई बार कोशिश कर ली गयी है लेकिन अब तक सरकारी योजनाएं ठन्डे बस्ते में है। एक बार 7 करोड़ की राशि स्वीकृत जरूर की गयी थी लेकिन काम शुरू नहीं हो सका।

इसके बाद वहां के ग्रामीणों ने एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताया जिसे सुनकर शायद आपकी आँखों में भी आंसू आ जाये। दरअसल 12 साल पहले इसी नाले को पार करते हुए जमुना नाम की एक छात्रा बह गई थी और उसकी मौत हो गई। जमुना का भाई है हेमसिंह जो बीते कई बरसों से रोजाना गांव के इन बच्चों को इस नाले को सुरक्षित पार कराता है, बिना किसी मदद के इस इरादे के साथ कि जैसा उसकी बहन के साथ हुआ कोई और बच्चा ऐसे किसी हादसे का शिकार ना हो। हेमसिंह से हमने बात की और बात करते हुए हेमसिंह की आँखें नाम हो गयीं फिर भी उन्होंने बताया की वो बीते कई बरसों से इसी तरह बच्चों को सुबह शाम ये नाला पार कराता है जब 4 से 5 महीने इसी तरह नाला में पानी भरा रहता है। एक और वृद्ध ग्रामीण साइकल में 50 किलो चावल सोसायटी से लेकर जा रहे थे और उन्हें भी ये नाला पार करना था।


नाले को पार करने के बाद भी तकलीफें कम नहीं होती, ग्रामीणों को 2 किलोमीटर का जंगली रास्ता और तय करना पड़ता है ये सिर्फ एक खबर नहीं, ये सिस्टम से सवाल है कि क्या इन मासूमों और ग्रामीणों की ज़िंदगी इतनी सस्ती है? क्या आज़ादी के 78 साल बाद भी किसी नाले में बह जाने के खतरे के बीच स्कूल तक पहुंचे ?
19 गांवों में नाम की बिजली, ग्रामीणों की जिंदगियों से जगमगाहट दूर
नम आंखों के साथ हम मैनपुर से देवभोग जाने वाले रास्ते के बीच तौरेंगा गांव में ग्रामीणों को देखकर रुके। वहां पर एक सोलर पैनल दिखाई दिया लेकिन बिजली की तारे नहीं थी और इसी विषय पर हमने तौरंगा के ग्रामीणों से बात की, उन्होंने बताया की सोलर पैनल लगा जरूर है लेकिन बिजली की समस्या से हर रोज उन्हें जूझना पड़ता है बारिश के समय सबसे ज्यादा दिक्क्तें होतीं है, तौरेंगा से लेकर जांगड़ा के आस पास के 19 गाँवों में बिजली के तार नहीं है इन सभी जगहों में नाम के लिए सोलर पैनल है लेकिन बिजली कितने देर रहेगी ये पता नहीं होता। इमरजेंसी में मोबाइल फोन चार्ज करने के लिए वे गाड़ी की बैटरी का इस्तेमाल करतें हैं।

ठीक 10 साल पहले 15 अगस्त 2015 को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से ऐलान किया था की 70 साल बाद देश के सभी गांवों में बिजली पहुँच चुकी है, दीन दयाल ग्राम ज्योति योजना के तहत अब सभी गाँव जगमगाने लगें हैं और PM मोदी ने इसे ऐतिहासिक दिन बताया था और आज जब हम 10 साल बाद एक गाँव पहुंचे तो यहाँ आसपास के 19 गांवों में कहने को तो बिजली है लेकिन जगमगाहट नहीं।
लचर शिक्षा व्यवस्था के बीच भारत का भविष्य
तौरेंगा के ग्रामीणों से बात करते हुए हमने देखा पीछे स्कूल है उनसे बातचीत की तो पता चला कि स्कूल में भी समस्या है। स्कूल के अंदर जब हम गए तो वहां कुछ अलग ही बात निकलकर सामने आई, स्कूल है भवन जर्जर है, बच्चे स्कूल यूनिफॉर्म में भी है और कक्षा भी लग रही है लेकिन कक्षा में टीचर ही नहीं है.

जैसे ही हम एक कक्षा के अंदर गए बच्चे वहां हमें टीचर समझकर गुड मॉर्निंग टीचर कहने लगे, बच्चों ने बताया की अटेंडेंस हुआ है लेकिन अब तक एक भी शिक्षक उन्हें पढ़ाने नहीं आया है, इसके अलावा वहां एक साथ 2 से 3 कक्षा एक ही कमरे में लगती है। ये है आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र, यहाँ अब नक्सली नहीं है और हम आज़ादी के जश्न की तैयारियों में जुटें हैं अपने बच्चों की शिक्षा की ऐसी हालत के साथ।

हीरे उगलते कोयबा में भी अंधेरे में दिखा भारत का भविष्य
फिर भी हमें उम्मीद थी कि शायद सिर्फ एक ही स्कूल का ऐसा हाल होगा लेकिन हीरा उगलने वाली इस धरती के ग्राम कोयबा के स्कूल की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। शिक्षक मौजूद नहीं थे और आजादी हमें किनसे मिली बच्चे ये भी नहीं बता पाए। लड़कियां जरूर दिखाई दी यूनिफार्म में पढ़ाई करते हुए और शान्ति से हिंदी की पुस्तक पढ़ रहीं थी बच्चियों से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया की ये कक्षा सातवीं है यहां सुबह से उनकी कोई क्लास नहीं लगी है और अब तक उन्हें संस्कृत की किताब भी नहीं मिली है, जबकि केवल 2 शिक्षक हैं जो हर रोज पूरे विषय पढ़ाते हैं।

शाला भवन की कमी, एक ही कमरे में तीन-तीन कक्षाओं का एक साथ चलना और शिक्षक की कमी के बीच भारत के भविष्य का अंदाजा आप खुद ही लगा सकतें हैं।
हीरे हैं पर जिंदगियां अंधेरी : जांगड़ा, पायलीखंड और सेंधमुड़ा के खदान
मैनपुर से देवभोग जाने वाले रास्ते में अब हम उस जगह पहुंच गए थे जो हीरे की खदानों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है जांगड़ा टेंपल क्षेत्र, जांगड़ा में जाने से पहले ही कुछ लोग बस का इंतजार करते हुए बैठे दिखाई दिए उनमें से एक व्यक्ति से हमने बात करने की कोशिश की उसने बताया की यहां भी पानी, बिजली और सड़क की समस्या है।

ग्रामीण से बात करने के बाद अब हम कच्चे रोड से जांगड़ा पायली खंड वाले रास्ते की ओर आगे बढ़े जिसमें हमें ये नहीं समझ आ रहा था की ये सड़क है या गड्ढों से बना रास्ता। हमने गाड़ी से उतरकर साइन बोर्ड भी पढ़ा वहां प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत रोड के निर्माण की बात लिखी गई थी जिसे दिसंबर 2025 तक पूरा होने की अवधि भी लिखा था लेकिन उस जगह एक भी जटिया पत्थर रखा नहीं दिखाई दिया जिससे पता चल सके कि यह सड़क बननी शुरू हो गई है। 4:00 से 4:30 किलोमीटर का यह रास्ता जो अमूमन 10 से 15 मिनट मैं हो जाना चाहिए था लेकिन वहां हमें पहुंचने में लग गया करीबन एक से सवा घंटा।


इसके बाद हम पहुंचे जांगड़ा क्षेत्र जहां पर हीरे की खदानें है, 2009 के आर्थिक सर्वेक्षण में इस क्षेत्र में भारत की 29 फ़ीसदी हीरा उत्पादन बताया गया है और विश्व के बड़े भंडारों में से एक है यह हीरा खदान, लेकिन गांवों की हालत दयनीय थी। सबसे पहले यहां कड़ी धूप में नंगे पैर बच्चे सबसे पहले दिखाई दिए जिन्हें होना था स्कूल में, लेकिन वो स्कूल गए ही नहीं और कैमरा माइक देखकर हमारे पास आ गए।

इसके बाद गांव के चौपाल में बैठे ग्रामीणों से जाकर हमने बात की, और वहां के ग्रामीणों ने खुद ही अपनी समस्याएं बताने लगे वहां पर उसे गांव का उप सरपंच भी था, जिसने सड़क बिजली पानी सभी की दिक्कतों को बताया। ग्रामीणों ने बताया कि सरपंच से लेकर कलेक्टर सभी तक अनगिनत आवेदन दिया जा चुका है लेकिन केवल आश्वासन मिलता है काम नहीं होता। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई कि जो धरती हीरा उगलती है, आदिवासी क्षेत्र है वहां अब तक कोई मुख्यमंत्री तो छोड़िए एक आदिवासी मंत्री आज तक नहीं पहुंचा ये बात भी ग्रामीणों ने बताई । ग्रामीणों ने यह भी उम्मीद जताई कि शायद इस रिपोर्ट को देखने के बाद सरकार की तरफ से इस दिशा में कार्य हो।

इसके बाद जांगड़ा से पायलीखंड जाने वाले रास्ते में पानी भरा हुआ था और ऐसे ही हालात हर बार बारिश में रहता है यानी मेन रोड में तो पक्की सड़क दिखाई दी लेकिन जैसे ही किसी भी अंदरुनी गांव की ओर हम गए वहां पर कच्ची सड़क ही दिखी ।
देवभोग से सेंदमुड़ा : आदिवासी अंचल में अभावों की जिंदगियां
जांगड़ा पायलीखंड के बाद हम एक और हीरा खदान वाले जमीन सेंदमुड़ा पहुंचे, जहां के हालात भी वैसे ही थे। सेंदमुड़ा में भी हीरा मिलने वाले खेत को लोहे की जाली से घेरा लगा दिया गया था, वहां के ग्रामीणों से जब हमने बात की तो वही मूलभूत समस्याओं को हमने सुना सड़क बिजली पानी। ग्रामीणों ने बताया कि यहां पर नल जल योजना शुरू की गई है नल भी लगाए हैं जगह-जगह पर लेकिन अब तक उसमें से एक बूंद पानी नहीं मिला है।

इसके बाद जब हमने उनसे स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि गांव के आसपास कोई भी स्वास्थ्य केंद्र नहीं है उन्हें इसके लिए करीबन 20 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। और अच्छे इलाज के लिए उन्हें मैनपुर या फिर गरियाबंद पहुंचना पड़ता है इसके बाद भी कोई गंभीर बीमारी हो तो उसके लिए एकमात्र सहारा रायपुर ही है। यहां की महिलाओं को देखने से उनके चेहरे में मुस्कुराहट जरूर दिखाई दी लेकिन उनके सिर पर लकड़ी के गट्ठा का बोझ दिखा। यहां भी बच्चे नंगे पैर घूमते दिखाई दिए। सोलर पैनल दिखा लेकिन ग्रामीणों ने कहा कि यहां बिजली की समस्या बहुत ज्यादा है।

किडनी प्रभावित गांव सुपेबेड़ा की हकीकत
इसी हीरा उगलती धरती के गरियाबंद में सूपेबेड़ा एक ऐसा बदनसीब गांव है, जहां अब तक 125 से ज्यादा लोग किडनी की बीमारी से मौत का शिकार हो चुके हैं। साल 2005 में ये बात सामने आयी की यहां के पानी में कुछ ऐसे तत्व हैं जिनसे किडनी की बीमारी होती है और समय पर इलाज नहीं किया जाए तो मौत का कारण बन सकता है। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी कि सूपेबेड़ा के पानी में फ्लोराइड घुला हुआ है। वहीं इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा की गई मिट्टी की जांच में कैडमियम, क्रोमियम और आर्सेनिक जैसे भारी व हानिकारक तत्व पाए गए। ये सभी किडनी को नुकसान पहुंचाते हैं, जिसके चलते बीते कुछ वर्षों से कई लोग मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं।

ये मामला सामने आने के बाद करोड़ों रुपये खर्च कर फ़िल्टर प्लांट लगा कर घर-घर नल जल का वादा किया गया था, तेल नदी से साफ पानी उपलब्ध कराने की बात सामने आयी थी, लेकिन साल 2025 में क्या ये वादे पूरे हो चुके हैं क्या मौतें बंद हो गयीं हैं, क्या आजादी उनके लिए अब भी पीने के साफ पानी ले कर आयी है ? इस बारे में हमने वहां पहले लोगों से बात की। लोगों ने बताया की ग्रामीणों ने बताया कि फिल्टर प्लांट लगाने का वादा किया गया था लेकिन अब तक पूरा नहीं हुआ है अब तक हम बोरिंग का पानी ही पी रहे हैं। तेल नदी से साफ पानी उपलब्ध कराने की मांग कई वर्षों से रमन सरकार से लेकर भूपेश बघेल सरकार और वर्तमान की साय सरकार से भी किया जा चुका है लेकिन मांग अब तक पूरी नहीं हुई। कुछ महिलाओं से भी बात करने की कोशिश की लेकिन वे ठीक से बात नहीं कर पाई ।

इसके बाद हमने मेडिकल ऑफिसर ऋषिकेश कश्यप से बात की, उन्होंने बताया कि यह सिर्फ किडनी की समस्या नहीं है उनके अंदाजे से ये जेनेटिक भी नजर आती है जबकि यहां के लोगों में नशे की लत है। इस इलाके में झाड़ फूंक भी बहुत ज्यादा प्रचलित है जिसकी वजह से ग्रामीण आज भी डॉक्टरों द्वारा प्रिसक्राइब की गई दवाइयों पर भरोसा नहीं करते हैं। आज भी लोगों के मन में है कि यदि डॉक्टर इंजेक्शन नहीं लगा रहा है मतलब वो सही डॉक्टर नहीं है। पेशेंट के जिद की वजह से भी इलाज में मुश्किल हो रहा है।

इसके अलावा आसपास के इलाकों में झोलाछाप डॉक्टरों का बोलबाला है जिसकी वजह से patient फर्स्टएड या प्राथमिक उपचार के लिए इन्हीं के पास जाना पसंद करतें हैं और स्वास्थ्य केंद्र में सेकंड एड के लिए आते हैं जिससे डॉक्टर के सामने अलग तरह की चुनौतियां सामने आ रही हैं। इसके अलावा मरीजों, प्रशासनिक राजनीतिक दबाव के चलते भी मेडिकल सुविधाओं का दुरुपयोग भी किया जा रहा है।

गरियाबंद की यह धरती जो हीरे और एलेक्जेंड्राइट की चमक से जगमगाती है, आज भी अपने असली मालिकों के लिए एक अधूरी कहानी है। यहाँ के लोग सपने देखते हैं, रोजगार के, मालिकाना हक के और एक बेहतर जिंदगी के लेकिन अवैध खनन, मूलभूत सुविधाओं के साथ सुरक्षा की कमी और सरकारी उदासीनता उनके सपनों पर भारी पड़ रही है। यहां की असली कहानी चमक से नहीं, बल्कि अंधेरे से शुरू होती है क्योंकि हीरे की एक रत्ती भर भी चमक उनकी जिंदगी से गायब नजर आयी, फिर भी यहां की मिट्टी में सिर्फ रत्न नहीं, बल्कि उम्मीद भी छिपी है। सवाल यह है की क्या ये सारी चमक सेठ साहूकारों और सरकारों के हिस्से में चले गयी ? क्या इनके हिस्से केवल उदासी और बेबसी ही रहेगी ? क्या सरकार और समाज इस चमक को असली हकदारों तक पहुँचा पाएंगे? यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई, हम कोशिश करेंगे की आज़ादी की अगली वर्षगाँठ पर भी इस इलाके में आये इस उम्मीद के साथ की जनता की चुनी सरकारें जनता की बुनियादी जरूररतों को पूरा करने तो सामने आएंगी।
कैमरापर्सन कलीम परवेज़ के साथ द लेंस के लिए पूनम ऋतु सेन की रिपोर्ट