जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल के आदेश पर इस केंद्र शासित प्रदेश में 25 किताबों पर लगाया गया मनमाना प्रतिबंध विचलित करने वाला है और यह सरकार के कश्मीर में हालात के सामान्य होने के दावे के एकदम उलट लगता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि यह आदेश जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेश में बदल देने के ठीक छह साल बाद पांच अगस्त 2025 को जारी किया गया। आखिर छह साल बाद इस कदम का क्या मतलब हो सकता है? खासकर तब, जब इनमें से कई किताबें तो कई दशक पुरानी हैं। इनमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत लेखिका अरुंधती राय, संविधानविद् (दिवंगत) ए जी नूरानी, पत्रकार लेखक डेविड देवीदास तथा कश्मीर की संपादक-लेखिका अनुराधा भसीन की किताबें भी शामिल हैं। इस आदेश में कहा गया है कि झूठे नरैटिव का प्रचार प्रसार करने और अलगाववाद तथा आतंकवाद को बढ़ावा देने की वजह से इन किताबों पर प्रतिबंध लगाया गया है और कहा गया है कि इनके प्रसार से युवा भटक सकते हैं। यही नहीं, इस आदेश के जारी होते ही पुलिस ने जम्मू-कश्मीर की किताब दुकानों पर छापे की ताबड़तोड़ कार्रवाई भी शुरू कर दी है। किताबों पर इस तरह की सरकारी और पुलिसिया कार्रवाई नई नहीं है, लेकिन भारत जैसे उदार लोकतंत्र में इस तरह की कार्रवाई की कोई जगह नहीं हो सकती। यह कदम कितना अलोकतांत्रिक है, इसका पता इससे भी चलता है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को एक्स पर सफाई देनी पड़ रही है कि इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं है। प्रतिबंधित किताबों में शामिल इन सर्च ऑफ अ फ्यूचर द स्टोरी ऑफ कश्मीर के लेखक डेविड देवदास का दावा है कि उनकी पुस्तक तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की शांति पहल और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए उठाए गए कदमों का पुरजोर समर्थन करती है! वास्तव में ऐसे मनमाने कदम से दुनिया में एक उदार लोकतंत्र के रूप में देश की छवि खराब होती है। भारत की संप्रभुता और अखंडता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता, यह तथ्य तो निर्विवाद है, लेकिन क्या हमारी संप्रभुता इतनी कमजोर है कि कुछ किताबों से प्रभावित हो जाए?
किताबों से डरने वाले

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