अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर मनमाने ढंग से 25 फीसदी टैरिफ लगाने के ऐलान के साथ ही रूस से सैन्य साजो-सामान और तेल की खरीद जारी रखने पर अतिरिक्त शुल्क लगाने की धमकी भी दी है। ट्रंप के इस कदम का साफ मतलब है कि दोनों देशों की सरकारों के बीच टैरिफ को लेकर जो चर्चा चल रही थी, वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। जबकि देश के खबरिया टीवी चैनल देश में ऐसा माहौल बनाने में जुटे हुए थे कि दोनों देश ऐतिहासिक ट्रेड डील के करीब हैं! गौर इस पर भी किया जाना चाहिए कि ट्रंप ने टैरिफ का यह ऐलान ऐसे समय किया है, जब भारत की संसद में ऑपरेशन सिंदूर पर महत्वपूर्ण चर्चा चल रही थी और बार-बार यह सवाल आया कि क्या भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध विराम में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की कोई भूमिका थी, जैसा कि वह बार-बार दावा कर रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि कारोबार अंततः दोतरफा रिश्ता है और यदि भारत के निर्यातकों को अमेरिका की जरूरत है, तो अमेरिका के कारोबार को भारत के बड़े बाजार की। वास्तव में रूस के साथ रिश्ते को लेकर ट्रंप की धमकी हमारी संप्रभुता पर अतिक्रमण है। जानकार बताते हैं कि अमेरिका चाहता है कि भारत रूस के बजाय उससे हथियार खरीदे। जहां तक तेल की बात है, तो केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने पखवाड़े भर पहले कहा था कि हम किसी एक देश पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि आज हम चालीस देशों से तेल खरीद रहे हैं। ट्रंप ने रूस के साथ ही चीन को लेकर भी भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की है। ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के दौरान संसद में 1948, 1962, 1965 और 1971 के युद्धों का भी जिक्र आया और यह नहीं भूलना चाहिए कि 1965 और 1971 के युद्धों के समय अमेरिका ने भारत पर खासा दबाव बनाया था। 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने वियतनाम पर अमेरिकी हमले को “हमले की कार्रवाई” (Act Of Aggression) करार देकर दो टूक कहा था कि वह अमेरिकी अनाज के बदले झुकने को तैयार नहीं हैं। इसी तरह 1971 के युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सातवां बेड़ा भेजने वाले तत्कालीन अमेरिकी प्रशासन की धमिकयों को नजरंदाज कर दिया था। दरअसल मौजूदा भू-राजनीति में युद्ध और कारोबार के अंतरसंबंध किसी से छिपे नहीं हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ट्रंप हमारे मामलों में दखल दे रहे हैं? मोदी सरकार के सामने अतीत के दो उदाहरण हैं।

