वेलिक्ककाथु शंकरन अच्युतानंदन यानी कॉमरेड वी एस ने 101 बरस का भरपूर जीवन जिया, इसके बावजूद उनके निधन ने देश में संसदीय कम्युनिस्ट राजनीति में एक विराट शून्य पैदा कर दिया है। अपने आठ दशक के राजनीतिक जीवन में उन्होंने खुद को केरल तक सीमित जरूर रखा, लेकिन वह देश में कम्युनिस्ट आंदोलन के अग्रणी नेता थे। वास्तव में 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन से बनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 32 संस्थापकों में से वे एक थे। सारे देश में कम्युनिस्ट पार्टियों के क्षरण के बावजूद केरल यदि आज भी वामपंथी राजनीति का गढ़ बना हुआ है, तो उसमें वी एस की भी अहम भूमिका रही है, जिन्होंने आजादी से पहले महज 17 साल की उम्र में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का हाथ थाम लिया था। 2019 में 95 वर्ष की उम्र में गंभीर रूप से बीमार पड़ने की वजह से वह सक्रिय राजनीति से अलग हो गए थे, लेकिन वह तमिलनाडु के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि की तरह उन गिने-चुने राजनेताओं में से एक थे, जिन्होंने अनथक दशकों तक सक्रियता बनाए रखी और जिनका निचले स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं से संपर्क बना रहा। वह पहली बार 1965 में विधानसभा के लिए चुने गए थे और उन्होंने 2021 में 97 बरस की उम्र में आखिरी चुनाव जीता था। इसके बावजूद उन्हें सिर्फ एक बार 2006 से 2011 के बीच केरल के मुख्यमंत्री के रूप में काम करने का मौका मिला था। 2016 के विधानसभा चुनाव में वह लेफ्ट फ्रंट की जीत के बावजूद मुख्यमंत्री पद की दौड़ में अपने से अपेक्षाकृत युवा पिनराई विजयन से पिछड़ गए थे, लेकिन पार्टी में उनकी हैसियत को नकारा नहीं जा सकता और इसीलिए तब उन्हें पार्टी के सलाहकार की भूमिका देते हुए माकपा के तत्कालीन महासचिव सीताराम येचुरी ने केरल के फिदेल कास्त्रो के रूप में एक नया तमगा दिया था। सचमुच जिस तरह राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद कास्त्रो कई वर्षों तक क्यूबा में कम्युनिस्ट सरकार के मार्गदर्शक बने रहे, वीएस केरल में लेफ्ट फ्रंट के लैम्प पोस्ट की तरह थे। यह जरूर अचरज हो सकता है कि माकपा के पोलित ब्यूरो के सदस्य रहने के बावजूद वी एस ने राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए कोई भूमिका नहीं देखी और केरल में रहे। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि 90 बरस की उम्र के बावजूद उनकी सभाओं में लोग उनके खास चुटीले अंदाज का भाषण सुनने जुटते थे। वह उन गिने चुने कम्युनिस्ट नेताओं में से एक थे, जिन्होंने लीक से हटकर और आलोचनाओं को परे रख कर फैसले लिए। इनमें मुख्यमंत्री रहते दुर्गम पहाड़ियों में स्थित सबरीमाला मंदिर की उनकी यात्रा शामिल है, जिसे उन्होंने श्रद्धालुओं की तकलीफ जानने के लिए अंजाम दिया था। तो दूसरी ओर 11 साल पहले जब इस्राइल ने गाजा पर भीषण हमला किया था, तो 90 बरस की उम्र में उसके विरोध के लिए सड़क पर थे। जाहिर है, भारत में कम्युनिस्ट राजनीति का अध्याय वी एस अच्युतानंदन के जिक्र के बिना हमेशा अधूरा ही रहेगा।
केरल के “फिदेल कास्त्रो” का जाना

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