- राजेश खन्ना की तेरहवीं पुण्यतिथि (18 जुलाई 2012) पर एक विनम्र श्रद्धांजलि
दिल्ली इतफाक की आबादी है, यह बार-बार अपने लुटने और बसने की बस्ती है। परोक्ष रूप से उसकी यह आदत उसकी जिंदगी का सलीका बन गया है। डॉ. राममनोहर लोहिया लिखते हैं – “दिल्ली को जिस शासक ने मोहब्बत की, दिल्ली ने उसे बड़ी निर्ममता से तबाह किया है और जिसने दिल्ली को बेरहमी के साथ तबाह किया, उसे दिल्ली ने भरपूर मोहब्बत की है।”

दिल्ली ने अपने इतिहास के इस कड़वे अर्क को अपनी जीवन पद्धति में ढाल लिया है। यहां हर कोई एक-दूसरे को लूटने की जुगत में लगा रहता है। तख्त-ए-ताऊस (ताऊस कहते हैं, नाचते हुए मोर को) के तर्क पर दिल्ली “ताऊस” से भले ही महरूम हो, लेकिन “तख्त” की भरमार है। हर मोहल्ले में एक तख्त जरूर मिलेगा। और हर तख्त पर एक शहंशाह बैठा मिलेगा।
यह कथा शुरू होती है दक्षिण दिल्ली में बैठे एक शहंशाह के तख्त से उनका नाम है नरेश जुनेजा। अकूत संपत्ति के मालिक, कभी देश के बड़े फिल्म वितरक रहे नरेश जुनेजा, दिल्ली में कई मकानों के मालिक हैं। सुपर स्टार रहे राजेश खन्ना जब फिल्म से निकलकर राजनीति में आए और दिल्ली को अपना कार्यक्षेत्र बनाया, तो राजेश खन्ना की समूची जिम्मेदारी नरेश जी ने अपने ऊपर ले ली और उनके रहने का प्रबंध वसंतकुंज के अपने खाली पड़े मकान में किया। नरेश जी पार्टी करने और पार्टियों में भाग लेने के शौकीन रहे। ऐसी ही एक पार्टी, जो नरेश जुनेजा जी के घर पर आयोजित थी, में हमारी राजेश खन्ना से पहली मुलाकात हुई।
हुआ यूं कि एक दिन नरेश जी का फोन आया – घर पर एक “छोटी” सी पार्टी है, आपको आना है, कोई बहाना नहीं चलेगा। और हम गए। दिल्ली में होने वाली पार्टियों से यह पार्टी थोड़ी अलग थी। इसमें “राजनेता” बिल्कुल ही आमंत्रित नहीं थे। इस पार्टी में जो बुलाए गए थे, वे दो अलग-अलग खांचों के लोग थे। फिल्म से जुड़े फिल्म वितरक, बड़े-बड़े निर्देशक, प्रोड्यूसर बेडरूम में बैठाए गए थे और ड्राइंग रूम में दूतावासों के राजदूत या अधिकारी बैठाए गए थे।
हम पहुंचे तो हमें बेडरूम में जाने को कहा गया। हमारे साथ गिप्पी (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के सुपुत्र सिद्धार्थ द्विवेदी उर्फ गिप्पी) भी थे। अंदर घुसे तो वहां बड़ा मजमा मिला। अचानक संतोषानंद जी (मशहूर गीतकार) चहक पड़े – आओ प्यारे! हम तो संघियों के बीच फंस गए हैं, लोग बापू का भी मजाक उड़ा रहे हैं। कमरे में रोशनी कम रखी गई थी, बिल्कुल फिल्मी अंदाज में।

हमने भी मजाक किया – भीड़ की सतह तक हम भी आ जाएं तो बात होती है। कहकर हम और गिप्पी फटाफट दो-दो पेग मार लिए। फिर हमने बोलना शुरू किया – आप सब कलाकारों की बहुत हसीन दुनिया के लोग हैं, हमें एक बात बताइए, गांधी से बड़ा कोई जीवंत कलाकार, पोस्टर डिजाइनर आपने देखा या सुना है? कमरे में सन्नाटा छा गया। एक कोने से आवाज आई – गांधी और पोस्टर डिजाइनर? कमाल की बात करते हैं! हमने कहा, यह सच है।
कैसे?
- चलिए फ्लैशबैक में चलते हैं। भारत गुलाम है, लेकिन आजाद होने की तड़प है। ऐसे में एक फकीर स्क्रीन पर आता है। एक धोती का आधा हिस्सा पहने हुए है, आधा ओढ़े हुए है। उसने कांग्रेस के पाचन के रूप में एक पोस्टर पेश किया, उस पोस्टर को आप जानते हैं, वह है चरखा। नंगे आजादी में चरखा चलाना मतलब कांग्रेसी होना होता था। चरखा एक ऐसा पोस्टर रहा, जिस पर प्रतिबंध भी नहीं लगाया जा सकता था, क्योंकि वह उत्पादन का एक स्रोत भी था। कहकर हम चुप ही हुए थे कि पीछे से एक आवाज आई।
- साहिब, हम देर से पहुंचे हैं, एक बार फिर बताएंगे?
आवाज जानी-पहचानी लगी, लेकिन चेहरा नहीं दिखाई पड़ रहा था। हमने आहिस्ता से पूछा – आपका परिचय? फिर वही आवाज – - साहिब! हमें राजेश खन्ना कहते हैं! हम आपके पास ही आ जाते हैं।
राजेश खन्ना सुनते ही हम सेल्यूलॉइड की दुनिया में चले गए, एक-एक करके सारी फिल्में आंखों के सामने आ गईं। राजेश खन्ना, सुपर स्टार! हड़बड़ी में हमने जवाब दिया – आप वहीं बैठे रहिए, हम आते हैं। हम उनके नजदीक गए। उनके साथ राजीव शुक्ला भी बैठे थे। काका से हमारी दोस्ती हो गई और ताउम्र चली। आज उसी काका की पुण्यतिथि है। अलविदा नहीं कहूंगा काका। “आनंद मरा नहीं करते।”