यों, तारीख के हिसाब से मुख्य सचिव अनुराग जैन का अगले माह अगस्त में रिटायरमेंट है, लेकिन उन्हें सेवानिवृत्ति मिलेगी या नहीं, इसको लेकर अभी से अटकलें लगाई जाने लगी हैं। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने भी फिलहाल ऐसे संकेत नहीं दिए हैं, जिससे अंदाजा लगाया जा सके कि जैन को अपने पूर्ववर्तियों वीरा राणा और इकबाल सिंह बैंस की तरह “सेवावृद्धि” का लाभ मिलेगा या नहीं। राणा को छह माह और बैंस को छह-छह माह की दो बार सेवावृद्धि मिली थी।

वीरा राणा को लोकसभा चुनाव के कारण एक्सटेंशन दिया गया था, जबकि इकबाल सिंह को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ ‘खास संबंधों’ का लाभ मिला था। लेकिन, निकट भविष्य में न तो कोई चुनाव है, और न ही पिछले 9 माह में जैन के साथ मुख्यमंत्री यादव का वैसा “अनुराग” दिखलाई पड़ा है, जैसा बैंस के साथ शिवराज का था। तो, फिर क्या होगा? अनुराग रहेंगे या जाएंगे? यही मुद्दे का सवाल है, जिसको लेकर अनुमान भर लगाए जा रहे हैं, क्योंकि जवाब सिर्फ मुख्यमंत्री के पास है। बहरहाल, यदि अनुराग जैन को सेवावृद्धि दी जाती है तो वह यह लाभ पाने वाले 7वें मुख्यसचिव होंगे।
सीएस का एक्सटेंशन : दिल्ली के मन की करेंगे मोहन
भोपाल का कलेक्टर रहते एक बड़े बिल्डर के होश ठिकाने लगाने का अनुराग जैन का अंदाज आज भी याद किया जाता है। इसीलिए, जैन ने 9 माह पूर्व जब मुख्य सचिव की कुर्सी संभाली, तो सत्ता के गली-गलियारों में हर तरफ माना गया कि वह संजीदा होने के साथ साफ-सुथरी छवि के कड़क मिजाज अफसर हैं, और अपनी बिरादरी से काम लेने में माहिर हैं। लेकिन, अक्टूबर में उनकी आमद के बाद से ऐसा कोई उदहारण सामने नहीं आया है, जो उनकी “तथाकथित ख्याति” की पुष्टि करता हो। बल्कि, दो मामले तो ऐसे हैं, जो उनकी प्रशासनिक दक्षता पर सवाल खड़ा करने के लिए मजबूर करते हैं। पहला- सरकारी पदोन्नति में आरक्षण का मामला।
इस मुद्दे को मोहन सरकार ने एक चुनौती के रूप में लिया और तय किया कि नए पदोन्नति नियम लाकर वह सारे विवाद और विरोधाभास ख़त्म कर देगी। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने इसका ऐलान कर दिया। मुख्य सचिव की देखरेख में यह काम चालू हो गया और नए नियम बना लिये गए। केबिनेट से मंजूरी मिल गई और सरकार ने कह दिया कि उसके इस ऐतिहासिक फैसले से लाखों कर्मचारियों को लाभ मिलेगा और 2016 से बंद पड़े प्रमोशन चालू हो जाएंगे। लेकिन, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने इस नीति पर अमल रोक दिया और सरकार से पूछा कि नई नीति और 2002 की नीति में क्या अंतर है।
दरअसल, वर्ष 2002 में तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान किया था, जिसके बाद इसी नियम के आधार पर प्रमोशन होते गए। कुछ साल बीतने के बाद कर्मचारी संगठन हाईकोर्ट पहुंच गए और उन्होंने आरोप लगाया कि नए नियम की वजह से आरक्षित वर्ग के कर्मचारी प्रमोशन पाते जा रहे हैं, लेकिन सामान्य वर्ग के कर्मचारी-अधिकारियों को प्रमोशन नहीं मिल रहा है। हाईकोर्ट ने अप्रैल 2016 में मप्र लोक सेवा (पदोन्नति) नियम 2002 खारिज कर दिया, जिसके खिलाफ तत्कालीन शिवराज सरकार सुप्रीम कोर्ट में गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी यथास्थिति रखने का आदेश दिया, जिसके बाद से प्रमोशन रुके हुए थे।
कुल मिलाकर, मोहन सरकार जैसा सोच रही थी, वैसा नहीं हुआ। उसे हाईकोर्ट में इन दो सवालों का कोई जवाब नहीं सूझा कि 2002 और नई नीति के बीच क्या अंतर है? दूसरा, जब प्रमोशन का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है तो फिर राज्य सरकार ने नए नियम क्यों बनाए? खासकर तब, जब राज्य सरकार खुद सुप्रीम कोर्ट में गई हो।
सवाल उठता है कि विधि विभाग क्या कर रहा था? उसकी राय ली गई या नहीं? ली गई तो उसने क्या राय दी? यदि उसके सारे क़ानूनी पहलुओं को जांचने-परखने के बाद ही नए नियमों का प्रस्ताव केबिनेट से मंजूर करवाया गया तो फिर सरकार से हाईकोर्ट के सवालों का जवाब देते क्यों नहीं बना? क्या विधि विभाग को यह नहीं पता था कि सुप्रीम कोर्ट से अपनी अर्जी वापस लिये बिना सरकार का नई कवायद शुरू करना व्यर्थ भी साबित हो सकता है (जैसा कि हाईकोर्ट ने पूछा भी)? कुलमिलाकर, मोहन यादव का यह ड्रीम प्रोजेक्ट झमेले में फंसता लग रहा है।
दूसरा बड़ा मुद्दा पीएचई मंत्री संपतिया उईके के खिलाफ 1 हजार करोड़ के कथित कमीशन की शिकायत की जांच का है, जिसे शुरू करने के तुरंत बाद बंद भी कर दिया गया। यह किसी भी सरकार के लिए अपने किस्म का हैरत में डालने वाला ऐसा मामला है, जो यह दर्शाता है कि नौकरशाही चाहे तो क्या नहीं कर सकती? मुख्यमंत्री, जो मंत्रीपरिषद का मुखिया होता है, के संज्ञान में लाए बिना उसके सहयोगी मंत्री के खिलाफ जांच कर सकती है। और, मंत्री के खिलाफ उसके अधीनस्थ विभाग से ही करवा भी सकती है। अगर, किसी मंत्री के खिलाफ उसी के विभाग के अफसर जांच करें और न मुख्यमंत्री को कुछ पता है और न मुख्यसचिव को तो इसका क्या मतलब निकाला जाए? यही न कि तंत्र पर सरकार का कोई काबू नहीं? कारपेट के नीचे क्या हो रहा है, किसी को कुछ पता नहीं?
बहरहाल, नजरें दिल्ली पर हैं। कहा जा रहा है कि दिल्ली, जिसने अनुराग जैन को सेवानिवृत्ति के दस माह पहले मध्यप्रदेश भेजा था, पर ही दारोमदार है। दिल्ली के मन में क्या है, है भी कि नहीं है, कोई नहीं जानता। लेकिन, मोहन यादव दिल्ली के मन मुताबिक ही चलेंगे। जैसा दिल्ली कहेगी, वैसा करेंगे। क्योंकि, “मोदी के मन में बसे एमपी और एमपी के मन में मोदी।”
पीडब्ल्यूडी के पुलों की डिजाइन और सामाजिक न्याय विभाग
वही इंजीनियर और डिज़ाइन बनाने वाले हैं, मगर पीडब्ल्यूडी ने प्रदेश में लगभग साढ़े तीन सौ फ्लाईओवर और रेलवे ओवर ब्रिज की डिज़ाइन को रद्द कर दिया है, जिससे सारे प्रोजेक्ट रुक गए हैं। कारण, भोपाल और इंदौर में बनाए गए 90डिग्री कोण के ब्रिज हैं, जिनकी वजह से पूरे देश में पीडब्ल्यूडी की बदनामी हुई, उसकी बुरी भद्द पिटी। बताते हैं कि पिछले लंबे समय से पीडब्ल्यूडी में शासन स्तर पर कोई सचिव ही नहीं है।

प्रमुख सचिव से अतिरिक्त मुख्य सचिव हुए नीरज मंडलोई के पास अतिरिक्त चार्ज जरूर था, पर वह बिजली जैसे ज्यादा बड़े और आम जनता से जुड़े विभाग को संभालने के कारण उतना समय दे नहीं पा रहे थे। जब पुलों और डिज़ाइन की खबरें बाहर आईं तो सरकार का ध्यान गया और पिछले हफ्ते उन्हीं सुखबीर सिंह की प्रमुख सचिव के पद पर पोस्टिंग कर दी गई, जो पहले भी पीडब्ल्यूडी का दायित्व संभाल चुके हैं। हालांकि, सचिव का पद अभी भी खाली है।
मुमकिन है, सुखबीर कुछ करें, ताकि डिजाइनें उचित कोण की बनें। समकोण (90डिग्री) या अधिक कोण की नहीं। वो तो गनीमत है कि सामाजिक न्याय एवं निशक्तजन कल्याण विभाग में पुल-पुलियों, ब्रिजों या फ्लाईओवर का काम नहीं होता, वर्ना किसी डिज़ाइन की खबर बाहर आती और सरकार का ध्यान इस विभाग की तरफ भी जाता। यहां भी आयुक्त का पद खाली है।
विजयवर्गीय ने क्यों कहा ऐसा…

नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय को इंदौर का सबसे बड़ा नेता माना जाता है, बावजूद इसके उन्होंने इंदौर के मामलों में सीधा हस्तक्षेप लगभग बंद कर दिया है। इसका कारण, मुख्यमंत्री मोहन यादव हैं, जो इंदौर के प्रभारी होने के साथ-साथ गृह विभाग की जिम्मेदारी भी संभाल रहे हैं। यादव चूंकि हर हफ्ते इंदौर जा रहे हैं, लिहाजा शहर में पार्टी की राजनीति भी उनके इर्द-गिर्द केन्द्रित हो रही है। विजयवर्गीय भले ही ताकतवर मंत्री हैं, पर इंदौर शहर के सरकारी महकमे उनको कितना महत्व दे रहे हैं, यह एक कार्यक्रम में उन्होंने खुद ही अपने अंदाज़ में मुख्यमंत्री को बताया। कहा कि- “आप विदेश जा रहे हैं। जाने से पहले वन विभाग को निर्देश देकर जाएं। वह हमें सहयोग नहीं कर रहा है और समय पर पौधे नहीं दे रहा है। हमारा लक्ष्य 51 लाख पौधे लगाने का है।’’
मोहन के सिलावट और बीजेपी की जमानत जब्त
इंदौर भाजपा के लोग एक और परिवर्तन देख रहे हैं। और वो है, मुख्यमंत्री यादव और मंत्री तुलसी सिलावट की बढ़ती नजदीकी। यादव इंदौर में होते हैं तो सिलावट उनके साथ दिखाई दे ही जाते हैं। अलग बात है कि सिलावट के विधानसभा क्षेत्र सांवेर में एक वार्ड के उपचुनाव में भाजपा की बुरी गत हुई। भाजपा उम्मीदवार को सिर्फ 117 वोट मिले और उसकी जमानत जब्त हो गई। वहीँ कांग्रेस की प्रत्याशी ने 913 वोट के साथ एकतरफा जीत हासिल की।