नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों एक अख़बार में लेख लिखकर पांच ऐसे चरण बताये थे जिनके जरिए बीजेपी ने महाराष्ट्र की सत्ता पर कब्जा जमाया। इसमें चुनाव आयोग का सहयोग भी था जिसके दम पर वोटर लिस्ट में फर्जीवाड़े या मतदान प्रतिशत में शाम पांच बजे हुए उछाल की असल सच्चाई सामने नहीं आने दी गयी। लेकिन बिहार में चुनौती बड़ी है, इसलिए एक और मुद्दे को उछाल दिया गया है। यह मुद्दा है ‘विदेशियों’ का जो कथित तौर पर गलत तरीके से मतदाता सूची में पैठ बना चुके हैं।

जब ‘सूत्रों’ के मुताबिक आयी इस खबर पर तेजस्वी यादव से प्रतिक्रिया मांगी गई तो उन्होंने सूत्र का तुक भिड़ाते हुए जो बोला, उसे न दोहराना ही ठीक है लेकिन उनके ग़ुस्से की वजह जायज थी। बीजेपी विदेशी का मुद्दा उछालकर क्या करना चाहती है, यह किसी से छिपा नहीं है। विदेशी कहते ही बीजेपी का रात दिन चलने वाले ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ का चित्र दिमाग में बनता है। प्रचार ये है कि ‘इन्हें देश से बाहर भगाना है तो फिर वोट बीजेपी को देना पड़ेगा!’
यह कोई नहीं पूछता कि देश में ग्यारह सालों से मोदी जी की सरकार है। गृहमंत्री अमित शाह हैं। तो ये विदेशी घुसपैठिए आये कहां से? इन्हें रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी? और अगर मोदी राज के आगमन से पहले ये घुसपैठ हुई थी तो उन्हें निकाला क्यों नहीं गया अब तक? निकालना तो दूर वे मतदाता सूची में दर्ज हो गये? वह भी बिहार जैसे राज्य में जहां डेढ़ साल की अवधि को छोड़ दें तो बीते बीस साल से बीजेपी, नीतीश कुमार के साथ मिलकर सरकार चला रही है!
वैसे यह समझना मुश्किल है कि इतने गंभीर मुद्दे की जानकारी ‘सूत्रों’ के हवाले से क्यों आ रही है। इस बेहद गंभीर मुद्दे पर तो चुनाव आयोग को खुलकर सामने आना चाहिए। अगर उसे पता चल गया है कि बड़े पैमाने पर विदेशी मतदाता बन गये हैं तो कहां और कब बने, यह भी उसे पता होगा। इसकी सूची जारी करके, आयोग उन कर्मचारियों और अफसरों को सजा दिलाने की कार्रवाई क्यों नहीं शुरू करता जो इस ‘फर्जीवाड़े’ में शामिल थे। इससे पता चलता कि आयोग की नजर में ये कितना गंभीर मामला है।
लेकिन न यह मंशा है और न इसके लायक़ सबूत ही हैं। सिर्फ पांच साल पहले चुनाव आयोग ने ही जो जानकारी दी थी, वह ऐसी किसी स्थिति का खंडन करती है। 2019 में आयोग ने बताया था कि विदेशियों के मतदाता बन जाने के देशभर में महज तीन मामले मिले हैं।
यह जानकारी किसी विज्ञप्ति या प्रेस कान्फ्रेंस के जरिए सामने नहीं आई थी, बल्कि आयोग का यह जवाब संसद के रिकॉर्ड में है। 10 जुलाई 2019 को एक सवाल पूछा गया था कि बीते तीन वर्ष और चालू वर्ष के दौरान मतदाता सूची में विदेशी नागरिकों के नाम शामिल होने के कितने मामले सामने आये हैं। जवाब में आयोग की ओर से कहा गया था कि 2016, 2017, 2019 में एक भी मामला सामने नहीं आया। 2018 में ऐसी तीन शिकायतें मिली थीं जो तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और गुजरात से थीं। गौर कीजिए कि बिहार से एक भी शिकायत नहीं थी।
लेकिन तमाम मीडिया संस्थानों ने ‘सूत्रों’ के मुताबिक दावा किया कि बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन संशोधन (SIR) के दौरान आयोग को बड़ी संख्या में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के नागरिकों के नाम मतदाता सूची में मिले हैं। मीडिया ने इन ‘सूत्रों’ को चुनाव आयोग के बराबर ही तवज्जो दी और कोई सवाल नहीं उठाया। ‘सूत्रों’ के मुताबिक़ यह भी दावा किया गया कि उचित जांच के बाद 30 सितंबर 2025 को प्रकाशित होने वाली अंतिम मतदाता सूची में ये नाम शामिल नहीं किये जाएंगे।
यह हैरानी की बात है कि इतनी महत्वपूर्ण जानकारी आयोग ने खुद नहीं देकर सूत्रों के हवाले कर दिया। कौन चाहेगा कि मतदाता सूची में विदेशी नागरिकों के नाम हों। देश के किसी राजनीतिक दल ने ऐसी माँग नहीं की। शक दरअसल ये है कि ‘विदेशी’ के नाम पर देश के लोगों को मतदान से वंचित करने की कोशिश की जाएगी। जिस तरह के दस्तावेज आयोग ने मतदाता सूची में नाम दर्ज करने के लिए मांगे हैं, उसे लेकर विवाद यूं भी गरमाया हुआ है।
गरीब तबके खासतौर पर दलित और लगभग उसी स्थिति में पहुंचे अल्पसंख्यक समाज के गरीब तबके के पास ऐसे दस्तावेज़ों का मिल पाना बेहद मुश्किल है। ऐसे में किसी अल्पसंख्यक नागरिक को विदेशी बताकर मतदाता सूची में जगह नहीं मिलेगी तो वह क्या कर पायेगा? उसके प्रतिवेदन और आपत्तियों पर कोई भी कार्रवाई चुनाव के बाद ही हो पायेगी और मंशा भी यही लगती है।
लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि अगर पांच साल पहले तक बिहार में एक भी विदेशी नागरिक मतदाता सूची में दर्ज नहीं था, जैसा कि संसद के जवाब में कहा गया था, तो आज कैसे मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर विदेशी मिल रहे हैं। ‘सूत्रों’ पर यकीन करें तो इन्हीं पांच वर्षों में यह खेल हुआ है। तो इसकी ज़िम्मेदारी किसी पर तो तय करनी ही चाहिए। बीते पांच साल के अधिकारियों और कर्मचारियों को पकड़ना मुश्किल नहीं है। आयोग की नीयत साफ है तो उसे यह करना ही चाहिए। पर ऐसी कोई गतिविधि तो नजर नहीं आ रही है।
तेजस्वी यादव के सामने यह साफ है कि बीजेपी हमेशा की तरह बिहार में सांप्रदायिक मुद्दे की तलाश में है। विदेशी मुद्दा उसके भाषण-वीरों को आग उगलने का कारण दे सकता है। मुस्लिम मतदाताओं को संदिग्ध बनाने के लिए यह मुद्दा कारगर होगा। वैसे भी किसी भावनात्मक मुद्दे के अभाव में बीजेपी चुनाव लड़ने का ख्वाब भी नहीं देख सकती। जो भी सेक्युलर दल हैं, उनके सामने हमेशा ये चुनौती रही है और आज भी है कि वे चुनाव को बीजेपी के मुद्दों पर न जाने दें।
शायद इसीलिए बिहार को लेकर काफी सतर्क नजर आ रहे राहुल गांधी सामाजिक न्याय को बिहार के चुनाव की धुरी बनाने में जुटे हैं। जाति जनगणना के सवाल पर झुककर बीजेपी ने इस मुद्दे की धार को कम करने की कोशिश की है, लेकिन इससे समाज के एक बड़े तबके में यह संदेश भी गया है कि राहुल गांधी ने बेहद जरूरी और संजीदा मुद्दा उठाया है। वरना मोदी सरकार इतनी आसानी से झुकती नहीं है। अब राहुल गांधी इसे और आगे लेकर जाना चाहते हैं और लगातार हर स्तर पर प्रतिनिधित्व का सवाल उठा रहे हैं। एक तरह से सामाजिक न्याय की प्रयोग-भूमि कहे जाने वाले बिहार में राहुल गांधी इसे राजनीति का केंद्रीय विषय बनाने में सफल हुए हैं।
ओबीसी की भागीदारी का प्रश्न वह बड़ी रेखा है जिसके सामने पिछड़ी जातियों के बीच महज़ ‘अपनी जाति के विधायकों की संख्या’ का मामला छोटा पड़ जाता है। इसी संकट से उबरने के लिए ‘सूत्रों’ को सक्रिय किया गया है ताकि ‘विदेशी’ मुद्दे को तूल मिल सके। एक भी विदेशी का मिलना बीजेपी की केंद्र और राज्य सरकार के साथ-साथ आयोग की भी नाकामी है। अपनी नाकामी को कामयाबी बताकर जनता से समर्थन पाने की यह कोशिश कितनी परवान चढ़ पाएगी, इसका पता तो बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे ही दे पायेंगे।
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।