द लेंस के लिए राजकुमार सोनी की रिपोर्ट
“यदि हम लिखने-पढ़ने वाले लोग, लेखक और संस्कृतिकर्मी नई पीढ़ी के बीच नहीं पहुंचेंगे, तो फिर ‘ वे ‘ लोग पहुंचेंगे और उनकी गाड़ी में एक लीटर पेट्रोल डलवाकर कहेंगे कि जाओ मस्जिद की गुंबद पर झंडी लगाकर आओ। किसी मस्जिद के सामने डीजे बजाओ और तमाशा मचाओ। साहित्य, कला-संस्कृति और पत्रकारिता के रचनात्मक पक्ष से जुड़े हुए तमाम लोगों को पहुंच के विविध माध्यमों को ध्यान में रखते हुए विचार के नए औजारों के साथ नई पीढ़ी के पास पहुंचना ही होगा, तभी फासीवाद की विभाजनकारी शक्तियों से मुकाबला संभव हो पाएगा।”
हाल ही में झारखंड की राजधानी रांची में संपन्न जन संस्कृति मंच ( Jan sanskriti Manch) के 17 वें राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद जारी वक्तव्य में यह चिंता व्यक्त की गई है। सम्मेलन में फासीवाद से मुकाबले के लिए लेखक और संस्कृति कर्मियों के बीच कई तरह की चिंताएं देखी गई और उनसे निपटने के लिए उपायों को खोजा भी गया।
वर्ष 1956 में चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग ने कहा था- ” सौ फूलों को खिलने दो। सौ विचारधारा में होड़ होने दो ” वर्ष 1985 में अपनी स्थापना के दिनों से ही जसम माओत्से तुंग के इस नारे को चरितार्थ करता आया है। यहीं एक वजह है कि 17 वां राष्ट्रीय सम्मेलन भी तेज-तर्रार और धारदार विमर्श के साथ संपन्न हुआ।
प्रोफेसर आशुतोष ने इस बात को लेकर चिंता जताई कि आज पूरे देश में आजादी की जगह दासता और ‘भक्ति’ और समानता की जगह पितृसत्ता और वर्ण व्यवस्था को स्थापित किया जा रहा है।
देश की नामचीन सोशल एक्टिविस्ट डॉ.नवशरण सिंह का मानना था कि वर्तमान सत्ता दमन और विभाजन के के औजारों का बर्बर ढंग से इस्तेमाल कर रही है। फासीवादियों की नफरत को हम सब अपनी सांस्कृतिक विरासत, आपसी मोहब्बत और एकता के सहारे ही पराजित कर सकते हैं। नामचीन लेखक रवि भूषण का कहना था कि नब्बे साल पहले ब्रेख्त ने सत्य को लिखने के लिए कुछ जरूरी बातें बताई थीं। उन बातों को देखना और अमल में लाना बेहद जरूरी हो गया है। देश की जनता भाषा, धर्म और संप्रदाय में विभाजित है। किसान, मजदूर, युवा, बेरोजगार, स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक सब संकट में हैं। लोगों को सच बोलने और सवाल पूछने से रोका जा रहा है। कवि, लेखक और संस्कृतिकर्मी एकजुट नहीं हैं, तो अभी तक फासीवाद की विभाजनकारी संस्कृति के खिलाफ अखिल भारतीय स्तर पर न तो कोई सांस्कृतिक मोर्चा बना है और न ही कोई राजनीतिक मोर्चा।
रवि भूषण ने फासीवाद के बढ़ावे के लिए दिल्ली सहित देश के 10 हिन्दी प्रदेश को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि वर्ष 2014, 2019 और 2024 में भाजपा के अधिक सांसदों की जीत हिंदी प्रदेश से हुई है। उन्होंने कहा कि फासीवाद से मुकाबले के लिए सांस्कृतिक संगठनों को ही नहीं जनता को लामबंद करना होगा। काफी बुरा समय है, लेकिन हमें प्रेमचंद के उस कथन को भी याद रखना होगा कि-“अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”
जनता के दस्तावेजी फिल्म बनाने वाले फिल्मकार संजय काक का कहना था कि जब वे डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे, तो जनता लगातार जुड़ रही थीं, लेकिन जैसे-जैसे उनके कैमरे जनसंघर्षों की ओर घूमते गए वैसे- वैसे सेंसर भी सक्रिय हो गया। अब स्क्रीनिंग पर पहरे हैं, लेकिन हम लोग यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसे नए मैदानों पर अपनी बात रख रहे हैं।
जसम के दो दिवसीय सम्मेलन में जसम दिल्ली के अध्यक्ष मदन कश्यप, बीजू टोप्पो, राशिद अली, महादेव टोप्पो, एम जेड खान, शैलेंद्र के साथ- साथ प्रोफेसर सियाराम शर्मा, कौशल किशोर, राष्ट्रीय महासचिव मनोज कुमार सिंह और अहमद सगीर ने अपने वक्तव्य में विविध आयाम जोड़े। अमूमन सभी ने यह माना कि अगर साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है, तो उस मशाल को बुझने नहीं देना है। साहित्य केवल कला नहीं है… बल्कि वर्ग संघर्ष का औजार है और इस औजार को भोथरा नहीं होने देना है।
सम्मेलन में यह तय किया गया कि जसम के साथी अब हर उस जगह पर दस्तक देंगे, जहां उनकी जरूरत है। गीत लिखें जाएंगे और सड़कों पर गीत गाया भी जाएगा। कविताओं का पोस्टर भी तैयार होगा, तो नाटक भी खेला जाएगा। जनगीतों में ढफली भी बजती रहेगी तो भारतीय संदर्भों में जैज का उपयोग भी होता रहेगा। वैसे भी जसम के साथी सुविधाओं की चादर तानकर सोने वाले लेखक और संस्कृतिकर्मी नहीं है, इसलिए तय है कि विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ प्रतिवाद जारी रहेगा। सम्मेलन में यह संकल्प तो ले ही लिया गया है कि चाहे जो हो जाय नफ़रत को जीतने नहीं दिया जाएगा।