रुचिर गर्ग | क्या आपको पता है कि जिस समय देश भर की ट्रेड यूनियंस मजदूरों के हक में देशव्यापी हड़ताल पर थीं उसी समय छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से मुश्किल से चालीस किलोमीटर दूर करीब सौ मजदूरों से एक कृषि फार्म में उनके मालिक चौबीस घंटे काम ले रहे थे,एक वक्त का खाना दे रहे थे और काम करते हुए नींद आ जाए तो बेल्ट और डंडों से मार रहे थे?
क्या आपको पता है कि इन अमानवीय यातनाओं का शिकार मजदूरों में गर्भवती महिलाएं थीं,बच्चे थे ?
क्या आपको पता है कि इस कृषि फार्म के मालिक कोई तिवारी,कोई खेतान जैसे लोगों के खिलाफ इन पंक्तियों के लिखे जाने तक एफआईआर तक नहीं हुई?तब जब लगातार शिकायतों के बाद खुद एक सरकारी विभाग – महिला और बाल विकास विभाग ,ने इस फॉर्म पर छापा मारा और इन मजदूरों को इस यातना गृह से मुक्त करवाया !
क्या आपको मालूम है कि आला अफसर और कुछ सत्ताधारी नेता इस कोशिश में थे कि इन मजदूरों को चुपचाप इनकी बकाया मजदूरी दिलवा कर मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश स्थित इनके गांव भेज दिया जाए ?
इन भूखे मजदूरों की यातना की कहानियां गुरुवार और शुक्रवार को खबरें भी बनी लेकिन ये कहानियां सिस्टम को तो झकझोर ही नहीं सकीं पर क्या इन अमानवीय कहानियों को सुनकर आपके भी रोंगटे खड़े नहीं हुए ?
चौबीस घंटे गुजर जाने के बाद भी एफआईआर नहीं हुई! उल्टे क्रूरता के जिम्मेदार मालिक भगा दिए गए !
अभी तक ना विपक्ष के लिए यह मुद्दा बना, दुर्भाग्य यह है कि उस कांग्रेस पार्टी के लिए यह मुद्दा नहीं बना जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष एक दलित मल्लिकार्जुन खरगे जैसा धुरंदर नेता हो। ना ही कोई मजदूर संगठन इन मजदूरों को न्याय दिलाने सड़क पर आए और ना सरकार ने इस मामले में कोई अलग जांच शुरू करवाई और विभाग का तो ये हाल है कि उसने अपने छापे के बाद जो रिपोर्ट दी उसमें से यातनाओं को गायब ही कर दिया गया !बताते हैं कि बस इतना ही जिक्र है कि मजदूरों को मजदूरी नहीं मिली और वे अपने घरों को लौटना चाहते थे!
इन मजदूरों में अधिकांश दलित थे और दलितों पर अत्याचार,उनको अमानवीय यातनाएं इस देश में अब किसी को कहां झकझोरती हैं!!

सिस्टम भी इतना नैतिक,इतना संवेदनशील,इतना लोकतांत्रिक,इतना संविधान पसंद या इतना प्रतिबद्ध कहां बचा है कि किसी भूखे और बेल्ट–डंडों से पिटते दलित की चीख उसके कान फोड़ सके!
देश की आजादी अब बस साल की गिनती रह गई है।किसी को जा कर इन मजदूरों से पूछना चाहिए कि क्या उनको मालूम है कि इस आजाद मुल्क में बंधुआ मजदूरी खत्म हो गई!
किसी को उन मजदूरों से पूछना चाहिए कि क्या उन्हें मालूम है कि इस देश के पास गर्व करने लायक अपना एक संविधान है जो उन्हें गरिमा के साथ जीने और स्वतंत्रता के साथ रोजगार करने का अधिकार देता है?
The Lens English Editorial: Nothing to cover our collective shame
उस संविधान के खरोरा के एक फार्म में चीथड़े उड़े और नेता–अफसर इस कोशिश में थे कि दलितों को इतनी क्रूर यातना देने वालों को कैसे बचाया जाए!
ये मजदूर बेहतर काम की तलाश में छत्तीसगढ़ आए थे।छत्तीसगढ़ से भी बेहतर रोजी की तलाश में मजदूर देश के दूसरे हिस्सों में जाते हैं लेकिन इन असंगठित मजदूरों की दुर्दशा कोरोना में लॉकडाउन के समय देश देख चुका है।लेकिन यातनाओं का शिकार अगर गरीब मजदूर हों तो किसे फिक्र कि उनके हक में एक संवेदनशील व्यवस्था बनाई जाए !किसे फिक्र कि कोई इस फॉर्म तक जा कर पूछता कि उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ भी मिल रहा है या नहीं !किसे फिक्र कि कोई जा कर यह जानने की कोशिश करता कि यातना के उस फॉर्म में श्रम कानूनों का कितना पालन हो रहा है? हो रहा है या नहीं हो रहा है ?
ये आजादी के सात दशकों बाद का हासिल है और हम नया भारत गढ़ने के नारे लगा रहे हैं !
हमारे गर्व का कारण क्या अब हमारी अंतरिक्ष यात्राएं हीं रह गई हैं? क्या दलित मजदूरों के साथ ऐसी क्रूरता,ऐसी अमानवीय यातना हमारी शर्म का कारण हैं ?नहीं हैं ! होतीं तो क्या अब तक इस फॉर्म के मालिक सलाखों के पीछे ना होते ?
इन मजदूरों के साथ हुई बर्बरता की और कहानियां सामने आतीं उससे पहले अफसरों ने उन्हें उनके घरों को रवाना कर दिया।लेकिन ये मजदूर बहुत सारे सवाल छत्तीसगढ़ छोड़ गए हैं ।

छत्तीसगढ़ अभी अपने गठन के पच्चीसवें बरस में प्रवेश कर रहा है।क्या इस राज्य का गठन मजदूरों और किसानों के लिए हुआ था या इस भू–भाग को सिर्फ कॉर्पोरेटियों की खनिज और खदानों की जरूरतों के लिए बनाया गया था? जब एक फार्म मालिक अपने मजदूरों को बंधक बना कर डंडे मारता है और सिस्टम उस फॉर्म मालिक के साथ खड़ा दिखता है तो राज्य का गठन तो दूर देश की आजादी भी बेमानी लगने लगती है।
लगने लगता है कि उस आजादी का क्या मतलब जहां दलित मजदूरों को इस तरह रौंदे जाना सिस्टम या समाज की संवेदनाओं को झकझोर नहीं पाता!
ये इकलौती घटना नहीं है,ये आखिरी घटना नहीं है लेकिन ये हमारी सामूहिक चेतना पर बड़ा सवाल है।हमारी सामूहिक चेतना से स्वतंत्रता,समता ,लोकतंत्र और संविधान के मूल्य हाशिए पर जा रहे हैं।ये घटना और इस पर सरकारी कार्रवाई ये बताती है कि हमारे तंत्र को अभी गणतंत्र होना बाकी है।
भारत एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है लेकिन लोकतंत्र और गणतंत्र तो अभी खरोरा के फार्म तक भी नहीं पहुंचा है !
आखिरी सवाल इस प्रदेश या देश की किसी अदालत से – सरकारी रिपोर्ट्स तो लीपापोती है लेकिन क्या मीडिया की खबरों के आधार पर कोई अदालत,कोई जज इस दलित प्रताड़ना का संज्ञान लेगा?