सीटू, एटक, इंटक और एचएमएस सहित दस केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की चौबीस घंटे की राष्ट्रव्यापी हड़ताल का भले ही व्यापक असर नजर न आया हो, लेकिन जिन मुद्दों को लेकर करोड़ों श्रमिक, कर्मचारी और किसान सड़कों पर उतरे हैं, उन पर गौर करने की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े मजदूर संगठन बीएमएस ने खुद को इस भारत बंद से अलग रखा है, तो इसे समझा जा सकता है। हालांकि वास्तविकता यह है कि इस हड़ताल में जीवन बीमा निगम, विभिन्न बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मियों तथा श्रमिकों के साथ ही अनेक प्रमुख किसान संगठन और औपचारिक तथा अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों ने हिस्सा लिया। जिन मांगों को लेकर ये हड़ताल की गई है, उनमें चार श्रम संहिताओं को वापस लेने, न्यूनतम वेतन 26 हजार रुपये करने और पुरानी पेंशन को वापस लाने की मांगें अहम हैं, जिन्हें लेकर लंबे समय से मजदूर संगठन आवाज उठा रहे हैं, लेकिन उनकी आवाजें अनसुनी कर दी गई हैं। श्रम संहिताएं कर्मचारियों से अधिक नियोक्ताओं के हक में नजर आती हैं, जिसमें 12 घंटे काम करने की अनुमति दी गई है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि आठ घंटे की पाली के लिए चले संघर्ष से श्रमिकों की लड़ाई आज कहां पहुंच गई है! हाल की रिपोर्टें भारत में बढ़ती असमानता को रेखांकित कर रही हैं, तो इसका प्रमाण असमान न्यूनतम वेतन के रूप में भी देखा जा सकता है। श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा की तो बात ही छोड़ दी जाए। यही हाल छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों का है। यहां यह दर्ज किए जाने की भी जरूरत है कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के माकपा नेता मोहम्मद युसूफ तारिगामी ने एक्स पर लिखा है कि पहले उन्हें प्रशासन ने श्रीनगर के शेर ए कश्मीर पार्क में शांतिपूर्ण प्रदर्शन की मंजूरी दे दी, लेकिन बाद में वापस ले ली! इससे सरकार के रवैया का पता चलता है कि वह लोकतांत्रिक आवाजों को लेकर कितनी गंभीर है? मोदी सरकार जिन नीतियों पर चल रही है, उस पर तो पहले से ही सवाल हैं, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण तीन विवादास्पद कृषि कानून हैं, जिन्हें उसे किसानों के लंबे आंदोलन के बाद वापस लेना पड़ा था।
भारत बंद का असर

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