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उद्धव और राज ठाकरे एक मंच पर… विरोध हिंदी का, निशाना गुजरातियों पर?
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Home » उद्धव और राज ठाकरे एक मंच पर… विरोध हिंदी का, निशाना गुजरातियों पर?

लेंस रिपोर्ट

उद्धव और राज ठाकरे एक मंच पर… विरोध हिंदी का, निशाना गुजरातियों पर?

Raghuveer Richhariya
Last updated: July 5, 2025 8:00 pm
Raghuveer Richhariya
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Thackeray
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समाचार विश्लेषण

खबर में खास
विपक्ष की नजर‘लुंगी हटाओ, पुंगी बजाओ’ से हिन्दी तकबाल ठाकरे थे चुनाव लड़ने के खिलाफठाकरे नाम की कहानीचाचा के नक्शेकदम पर
रघुवीर रिछारिया, वरिष्ठ पत्रकार

…अगर मराठी के लिए लड़ना गुंडागर्दी है, तो हम गुंडे हैं। – उद्धव ठाकरे
… अगर कोई मराठी नहीं बोलता है और ज्यादा ड्रामा करता है, तो उसे कान के नीचे बजाएं.. लेकिन उसका वीडिया न बनाएं। – राज ठाकरे
… ये लोग मुंबई के सारे रोजगार गुजरात ले गए और मुंबई की जमीन अडानी को दे दी। – उद्धव ठाकरे
..हम दोनों भाइयों के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़े लेकिन नरेंद्र मोदी किस स्कूल में पढ़े? भाजपा अफवाह फैलाने वाली पार्टी है। – उद्धव ठाकरे
… लालकृष्ण आढवाणी मिशनरी स्कूल में पढ़े हैं तो क्या हम उनके हिंदुत्व पर सवाल उठाएं? – राज ठाकरे

मुंबई की आवाज दूर तक जाती है और जब इस आवाज में ठाकरे नाम जुड़ता है तो ये और बुलंद हो जाती है, इसे दरकिनार करना किसी के लिए भी मुश्किल हो जाता है। मुंबई के वर्ली डोम सभागार में 5 जुलाई को 20 साल बाद राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे एक मंच पर आए तो कुछ इसी तरह की आवाजें गूंजीं। बहाना हिंदी विरोधी एकजुटता का था.. लेकिन इसके पीछे दोनों ठाकरे बंधुओं की घटती राजनीतिक ताकत और बृहन्नमुंबई महानगरपालिका यानी बीएमसी चुनाव है, जो अगले 3-4 महीनों के अंदर होने वाले हैं।

बीएमसी चुनाव के लिए मराठी वोटरों को एकजुट करने के लिए दोनों पार्टियां बेचैन हैं, उद्धव ठाकरे के हाथ से शिवसेना छिन गई, एकनाथ शिंदे पार्टी और चुनाव चिह्न ले गए। लेकिन कई राज्यों के बजट से ज्यादा बजट वाली बीएमसी में अभी भी उद्धव ठाकरे की पार्टी की सत्ता है। राज ठाकरे महाराष्ट्र की सियासत के ‘एंग्री यंग मैन’ फेस तो बने हुए हैं, उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ती है, उनके बयान वायरल होते हैं लेकिन सियासी फलित के नाम पर इस समय वे शून्य पर हैं। पिछले साल महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की पार्टी का एक भी विधायक नहीं जीत सका। उन्होंने अपने बेटे अमित ठाकरे को मुंबई की माहिम सीट से मैदान में उतारा, लेकिन अमित ठाकरे भी चुनाव हार गए। ये वही राज ठाकरे हैं, जब इन्होंने 2008-09 में हिंदी विरोध के नाम पर महाराष्ट्र में जमकर उत्पात मचाया था, MNS ने मुंबई, पुणे, औरंगाबाद और नासिक में हिंदी बोलने वालों की पिटाई का अभियान चलाया था। तब 2009 के विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की पार्टी MNS के 13 विधायक जीते थे और नासिक नगर निगम में इनकी पार्टी का मेयर भी बन गया था।

अब फिर राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे हिंदी विरोध के नाम पर पुरानी शिवसेना का पुराना फॉर्मूला आजमाने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों के पास इस मुद्दे पर खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं दिख रहा है, हां इस मुद्दे पर भले दोनों भाई भाजपा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को घेरने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन अगर इनका आंदोलन जोर पकड़ता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम और शिवसेना अध्यक्ष एकनाथ शिंदे को हो सकता है।

विपक्ष की नजर

बीस साल बाद उद्धव और राज ठाकरे के साथ आने को लेकर विपक्ष का महागठबंधन बड़ी उम्मीद की तरह देख रहा है। आखिर उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा 48 लोकसभा सीटों वाले राज्य महाराष्ट्र में इससे विपक्ष को ताकत बढ़ने की खुशबू आ रही है। इसलिए राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के मंच पर एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले, विधायक जितेंद्र आह्वाड और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता दिखाई दिए… लेकिन अभी महाराष्ट्र में ठाकरे एकता का राजनीतिक लाभ मिलना थोड़ी दूर की कौड़ी दिखाई देती है।

2019 में मुख्यमंत्री बनाने के मुद्दे पर उद्धव ठाकरे की शिवसेना और भाजपा का 30 साल पुराना गठबंधन टूटा, 2022 में भाजपा ने एकनाथ शिंदे के हाथों उद्धव की शिवसेना तुड़वा दी, उनका मुख्यमंत्री पद चला गया। बाद में पार्टी भी चली गई। ये तो सबको मालूम है, लेकिन राज ठाकरे की स्थिति तो इससे भी ज्यादा खराब रही। 2013 में सबसे पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की वकालत करने वाले राज ठाकरे के भाजपा और नरेंद्र मोदी से संबंध उतार चढ़ाव भरे रहे।

2024 के लोकसभा चुनाव की कुछ रैलियों में राज ठाकरे मोदी के साथ दिखे, लेकिन उनकी पार्टी MNS को चुनाव लड़ने के लिए जब भाजपा ने एक भी सीट नहीं दी, तो राज ठाकरे और भाजपा की बात बिगड़ गई। 2024 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव आते आते राज ठाकरे की पार्टी न घर की रही, न घाट की। इसीलिए वर्ली की रैली में उद्धव ठाकरे ने खुद को और राज ठाकरे को आगाह करते हुए कहा कि भाजपा उन लोगों को यूज एंड थ्रो करने वाली पार्टी है, हमें इस्तेमाल करके फेंक देती है। इसीलिए अब हमें साथ रहना है।

‘लुंगी हटाओ, पुंगी बजाओ’ से हिन्दी तक

भूमिपुत्र, क्षेत्रवाद और भाषावाद के नाम पर 1966 में बालासाहेब ठाकरे की बनाई शिवसेना अलग-अलग समय पर दूसरे प्रदेशों और दूसरी भाषा के लोगों को निशाना बनाती रही है। 70 के दशक में सबसे पहले इन्होंने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान शुरू किया… लुंगी हटाओ, पुंगी बजाओ। महाराष्ट्र में स्थानीय लोगों को रोजगार और भाषा के नाम पर पहले भी आंदोलन होते रहे हैं। तर्क ये दिया जाता है कि जब भाषा के नाम पर ही बॉम्बे स्टेट से महाराष्ट्र का जन्म हुआ है, तो यहां स्थानीय भाषा यानी मराठी को ही प्रमुखता क्यों नहीं।

ताजा विवाद शुरू हुआ 16 अप्रैल को महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार की तरफ जारी एक आदेश से.. जिसमें कक्षा एक से कक्षा 5 तक महाराष्ट्र के सभी प्राइवेट और सरकारी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने को कहा गया। ये आदेश नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति यानी NEP-2020 को लागू करने के लिए था.. लेकिन मुंबई और महाराष्ट्र में हुए विरोध के कारण, जिनमें ठाकरे भाइयों का एक साथ आना भी कारण था, इस आदेश को वापस ले लिया गया है।

यानी अब हिंदी विरोध के नाम पर राजनीति महाराष्ट्र के स्कूली पाठ्यक्रम या शिक्षा नीति को लेकर नहीं, बल्कि मुंबई और राज्य के दूसरे शहरों की सड़कों पर होनी है। उधर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पहले ही कह चुके हैं कि हिंदी विरोध के नाम पर उत्पात और मारपीट करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। अगर शिवसेना UBT और MNS के कार्यकर्ता हिंसा पर उतारू होते हैं तो ये मुद्दा बीएमसी चुनाव के पहले बड़ा हो सकता है और इससे ठाकरे भाइयों की दोनों पार्टियों की राजनीतिक ताकत बढ़ सकती है।

बाल ठाकरे थे चुनाव लड़ने के खिलाफ

आजकल की चुनावी राजनीति में पॉपुलरिटी का पर्याय आपकी आक्रामकता और वायरल होने से नहीं होता है। आपके पास कितने पार्षद, कितने विधायक, कितने सांसद हैं, यही मौजूदा राजनीति का सत्य है। विचारधारा के स्तर पर बात की जाए तो पिछले 20 साल में गंगा और गोदावरी में बहुत पानी बह चुका है। ठाकरे परिवार अपने सभी पुराने उसूल तोड़ चुका है।

उद्धव ठाकरे कांग्रेस के साथ सरकार बना चुके हैं। दिवंगत बालासाहेब ने प्रण लिया था कि उनके परिवार का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा, लेकिन 2019 में आदित्य ठाकरे ये प्रण तोड़ चुके हैं। 2024 में राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे भी चुनाव लड़ चुके हैं। राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का चुनाव चिह्न रेल का इंजन है। 2006 में MNS के गठन के 18 साल में रेल के इंजन ने महाराष्ट्र में कभी बहुत तेज रफ्तार नहीं पकड़ पाई। राज ठाकरे की पार्टी MNS की 2006 में बनी, शुरुआती दिनों में वह अपनी ताकत का अहसास कराने सफल रहे थे।

2007 के मुंबई महानगरपालिका यानी BMC चुनाव में उन्हें सात सीटें हासिल हुईं। नासिक में तो MNS का महापौर तक बन गया था, लेकिन सफलता का रिकार्ड पार्टी भविष्य में कायम नहीं रख सकी। 2006 से 2010 के आसपास एक समय था जब MNS महाराष्ट्र की राजनीति में उभरती हुई दिखाई दी थी…

2009 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे की पार्टी ने मुंबई, ठाणे, नासिक, कल्याण और पुणे की 11 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे.. औऱ सभी जगह सवा लाख से लेकर डेढ़ लाख के बीच वोट पाए थे.. लेकिन उसके बाद MNS का सूर्य अस्त होता गया। 2012 के BMC चुनाव में MNS के 28 पार्षदों ने जीत दर्ज की थी।

ठाकरे नाम की कहानी

बालासाहेब ठाकरे की जीवनी लिखने वालीं सुजाता आनंदन लिखती हैं कि बालासाहेब के दादा प्रबोधन ठाकरे अंग्रेजी लेखक William Makepeace Thackeray के मुरीद हुआ करते थे। और उन्ही से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपना सरनेम ठाकरे रख लिया था। ये सरनेम बालासाहेब के पिता केशव ठाकरे और उनके भाई श्रीकांत ठाकरे को भी भाया.. फिर ये नाम सरनेम इस परिवार के साथ साथ चलने लगा।

बालासाहेब और उनके भाई श्रीकांत ठाकरे दोनों की शादियां दो सगी बहनों मीना ठाकरे और कुंदा ठाकरे से हुईं। इसलिए उद्धव और राज ठाकरे चचेरे के अलावा मौसेरे भाई भी हैं।

साल 1948 में बाल ठाकरे ने अपने भाई श्रीकांत ठाकरे के साथ मार्मिक नाम से एक वीकली न्यूज़ पेपर निकाला। इस पेपर के लिए बालासाहेब खुद ही कार्टून बनाते थे, और श्रीकांत ठाकरे बाकी पूरा काम देखते थे। देश के बड़े पत्रकार रहे वैभव पुरंदरे अपनी किताब Bal Thackeray And The Rise Of The Shivsena में लिखते हैं कि 1960 के दशक में जब बालासाहेब राजनीति में सक्रिय हुए तो मार्मिक उनके भाई श्रीकांत ठाकरे ने संभाल लिया। उस समय बंबई में ज्यादातर बड़े कारोबारों पर गुजरातियों का कब्जा था। छोटे-मोटे काम दक्षिण भारतीय और मुसलमानों ने कब्जा रखे थे।

मराठियों के लिए काम-धंधे का स्कोप ना के बराबर था। बाल ठाकरे ने इसी मुद्दे को उठाया और खुद को मराठी मानुष की आवाज़ बना लिया। मार्मिक इस बात को औऱ हवा दे रहा था… बाल ठाकरे ने 1966 में शिवसेना की नींव रखी… शिवसेना ने जब अपना पहला मेनिफेस्टो जारी किया तो उसमें दक्षिण भारतीयों की जगह मराठियों को नौकरी देने की बात कही। उन्होंने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाया पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ अभियान चलाया। शिवसेना औऱ बाल ठाकरे भूमिपुत्रों के मुद्दे पर आगे बढ़ रही थी। 80 के दशक तक भूमिपुत्रों की राजनीति से शिवसेना को सियासी कामयाबी तो उम्मीद के मुताबिक कम मिली लेकिन महाराष्ट्र के जनजीवन में बाल ठाकरे और शिवसेना ने अपनी पकड़ बना ली। मुंबई औऱ कोंकण शिवसेना के मजबूत किले बन गए।

चाचा के नक्शेकदम पर

फिर आया 90 का दशक। 1989 में लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के लिए रथयात्रा निकाली। उनका तब केंद्र की वी पी सिंह सरकार से टकराव हुआ और भाजपा ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तब तक बालासाहेब ठाकरे कट्टर हिंदुत्व की लाइन पकड़ चुके थे। 14 जून 1968 को जन्मे राज ठाकरे तब तक युवा हो चुके थे.. और चाचा बालासाहेब के साथ उन्होंने हिंदुत्व के मुद्दे को जबरदस्त धार दी। जिस तरह बालासाहेब खुलकर बोलने और कभी अपनी बात से न पलटने के लिए जाने जाते थे, उनका वही अक्स राज ठाकरे में दिखाई दे रहा था। बालासाहेब ठाकरे तब तक हिंदू ह्रदय सम्राट कहे जाने लगे थे।

साल 2000 आने तक बालासाहेब ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे शिवसेना में दूसरे नंबर के नेता बन चुके थे… राज के आक्रामक तेवर और विस्फोटक बयानों को देख कर लगने लगा था कि आगे चल कर वही बालासाहेब के उत्तराधिकारी बनेंगे… लेकिन दिसंबर 2005 में जब बालासाहेब ठाकरे ने उद्धव को पार्टी प्रमुख बना दिया तो राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ने का फैसला किया. और अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम रखा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना।

MNS की स्थापना के बाद राज ठाकरे ने कई बड़े आंदोलन किए, मुंबई और पुणे में उत्तर भारतीयों के खिलाफ उनकी मुहिम ने खूब सुर्खियां बटोरीं। कई जगह तोड़फोड़ और हिंसा के आरोप भी उनके समर्थकों पर लगे। इंफोसिस की पुणे यूनिट ने तो बाकायदा शिकायत दर्ज कराई थी कि MNS की गुंडागर्दी के कारण उनके तीन हजार कर्मचारियों को पुणे से दूसरे शहरों में भेजना पड़ा।

राज ठाकरे पिछले कुछ वर्षों से परप्रांतीयों के खिलाफ पहले जितने मुखर नहीं रहे हैं। हालांकि मुस्लिमों के खिलाफ उनकी आक्रामकता बरकरार रही। दो साल पहले साल मुंबई, नासिक और पुणे में अजान के लिए बजने वाले लाउडस्पीकर हटाने की मुहिम राज ठाकरे की पार्टी ही सबसे आगे थी।

20 साल बाद जब उद्धव और राज ठाकरे एक मंच पर आए हैं तो फिर मराठी मानुष में 2005 के पहले वाली भावनाएं हिलोरें मार सकती हैं। ये तो सभी राजनीति विश्लेषक और पत्रकार मानते हैं कि दिवंगत बालासाहेब की विरासत राज ठाकरे को मिलनी चाहिए थी… लेकिन ये नहीं हो सका।

उद्धव और राज ठाकरे अभी हिंदी विरोध के नाम पर 20 साल बाद एक साथ आए हैं। हालांकि इन 20 वर्षों में दोनों के पारिवारिक रिश्ते कायम रहे। अभी राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में उस महागठबंधन का हिस्सा होने का सार्वजनिक तौर पर ऐलान नहीं किया, जिसका प्रमुख धड़ा शिवसेना UBT है। अगर राज ठाकरे महागठबंधन में आते हैं, तो उनको कितना स्पेस मिलता है, क्या वे 2005 के पहले वाले राज ठाकरे के रूप में दिखेंगे, इसका उत्तर भविष्य के गर्त में छिपा है। फिलहाल शिवसेना यूबीटी के नेता संजय राउत का ये बयान महत्वपूर्ण है कि दोनों ठाकरे भाइयों के साथ आने पर महाराष्ट्र में उत्सव जैसा माहौल है। हिंदी विरोध दोनों भाइयों के एक साथ आने की वजह है, ये तो साफ दिखाई दे रहा है.. लेकिन जिस तरह वर्ली के मंच से उद्धव ठाकरे ने उद्योगपति गौतम अडानी का नाम लेकर सीधा उन पर हमला बोला है, उससे भविष्य की राजनीति के संकेत भी दिखाई दे रहे हैं। क्या विरोध हिंदी का है और ठाकरे भाइयों के निशाने पर गुजरात है?

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