बिहार में इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन को लेकर दिशा निर्देश जारी किए हैं। स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन यानी विशेष गहन पुनरीक्षण के तहत न केवल मतदाता सूचियों को नए सिरे से तैयार किया जा रहा है, बल्कि 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं से नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज भी मांगे जा रहे हैं।
महाराष्ट्र चुनाव में मतदाता सूची का मुद्दा पहले से ही गरम है, अब बिहार की राजनीति भी इस पर गरमाती जा रही है। मीडिया और सोशल मीडिया पर एक बड़े तबके की ओर से आशंका जताई जा रही है कि इसका उद्देश्य बिहारियों से वोटिंग का अधिकार छीनना और चुनाव पूर्व एनआरसी जैसी प्रक्रिया को लागू करना है। बिहार में करीब 7.73 करोड़ मतदाता हैं और गणना फॉर्म जमा करने की अंतिम तिथि 26 जुलाई है।

चुनाव आयोग के निर्देश
चुनाव आयोग के निर्देशों के मुताबिक प्रत्येक मौजूदा वोटर को एक अलग गणना फॉर्म जमा करना होगा। इस फैसले के तहत आयोग के अधिकारी घर-घर जाकर मतदाताओं का वेरिफिकेशन करेंगे। जिन मतदाताओं के नाम सूची में जनवरी 2003 के बाद जोड़े गए हैं, उन्हें अपना जन्म प्रमाण पत्र पेश करना होगा। आयोग के मुताबिक पिछले 20 वर्षों के दौरान, बड़े पैमाने पर नाम जोड़ने और हटाने के कारण मतदाता सूची में महत्वपूर्ण बदलाव हुए और तेजी से शहरीकरण और आबादी का एक जगह से दूसरी जगह लगातार पलायन हुआ है।
यह विशेष गहन संशोधन अंततः सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करेगा। इसमें पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेजों के अलावा, 1 जनवरी 2003 तक बिहार की मतदाता सूची में माता-पिता के नाम का विवरण अपने आप में पर्याप्त दस्तावेज माना जाएगा। चुनाव आयोग ने यह भी कहा है कि इसके लिए लिस्ट में नाम जोड़े जाएंगे और जिनकी पुष्टि न हो सके, वे नाम लिस्ट से हटा दिए जाएंगे।
सवाल क्यों उठ रहे हैं?
चुनावी प्रक्रिया पर नजर रखने वाले संगठन एडीआर के सह-संस्थापक प्रोफेसर जगदीप छोकर के द्वारा लिखे एक विश्लेषणात्मक लेख में निर्वाचन आयोग पर कई सवाल उठाए हैं। आखिर शहरीकरण, प्रवास या फर्जी नामों की समस्या को लेकर अचानक 21 साल बाद पुनरीक्षण क्यों? क्या यह समस्या पिछले दो दशकों में अचानक गंभीर हुई है? तो 21 वर्षों तक इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? बिहार जैसे राज्य में जहां पढ़ाई की दर, बिजली की उपलब्धता, और प्रवास जैसी समस्याएं हैं, वहां कार्यवाही की समयसीमा अव्यावहारिक है। नागरिकता प्रमाण के लिए माता-पिता तक के दस्तावेज मांगना एनआरसी-सीएए विवाद की याद दिलाता है। क्या यह मतदाता सूची सुधार है, या गुप्त एनआरसी?
नाम न बताने की शर्त पर दलित जाति से आने वाले युवा लेखक बताते हैं कि अधिकारी कागज और सरकारी व्यवस्था से जो जितना दूर है, उसका नुकसान है इस सर्वे में। और वह समुदाय दलित और महादलित है। जिन्हें न कागज बनाना आता है न दिखाना। वहीं निर्वाचन आयोग आखिर चुनाव से ठीक पहले आठ करोड़ मतदाताओं का 25 दिन में पुनरीक्षण का कार्य क्यों कराना चाहती है? बिहार में बाढ़ से घिरे 73 प्रतिशत लोग दस्तावेज कहां से बनवाकर देंगे। इतने कम समय में कैसे हो पाएगा?
पेशे से इंजीनियर और राजनीति पर लिखने वाले साकिब बताते हैं कि बिहार वोटर लिस्ट मामले में बकवास तर्क दिया जा रहा है कि 11 डॉक्यूमेंट का लिस्ट कोई न कोई तो होगा। 11 हो या 110 एक शब्द में बताओ कि इस केस में क्या होगा? एक आदमी 1980 में गरीब भूमिहीन परिवार में पैदा हुआ वह कौन सा डॉक्यूमेंट दे सकता है?
1987 से पहले शायद ही उसका कोई सरकारी डॉक्यूमेंट बना होगा। बैंक खाता तब 2 प्रतिशत लोगों के पास भी नहीं था। दूसरा सवाल मुसलमान को विशेष दिक्कत क्या है? इसमें कहीं स्पष्ट किया गया है कि जो लोग अपना 1987 से पहले का दस्तावेज देने में विफल होंगे और मतदाता सूची से बाहर हो जाएंगे उनको वापस सीएए तहत शामिल नहीं कर लिया जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो मुसलमानों को छोड़कर बाकी तो फिर से आ ही जाएंगे साबित कर पाएं या न कर पाएं।
विरोध का सिलसिला
पत्रकार असगर खान सोशल मीडिया पर लिखते हैं कि मेरे अब्बा की उम्र 92 साल हो गई और अम्मा 80 के करीब हैं। न जाने कितनी बार, इन्होंने लोकतंत्र के इस पर्व को मनाया है। पता नहीं, इस बार अक्टूबर नवंबर में बिहार में होने वाले चुनाव में मतदान डाल पाएंगे कि नहीं। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि क्योंकि चुनाव आयोग, इनसे वो कागज मांग रहा है कि जिसके बारे में उन्होंने कभी तसव्वुर भी नहीं किया होगा। अब ये कैसे बता पाएंगे कि ये किस कोठरी में पैदा हुए थे? किसने पैदा करवाया, यानी नर्स, हॉस्पिटल, या दाई? पता नहीं, ये मजाक है या साजिश रची जा रही है।
तेजस्वी यादव ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पूरे मुद्दे पर अपनी बात कहते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निर्वाचन आयोग को बिहार की समस्त मतदाता सूची को निरस्त कर केवल 25 दिन में 1987 से पूर्व के कागजी सबूतों के साथ नई मतदाता सूची बनाने का निर्देश दिया है। चुनावी हार की बौखलाहट में ये लोग अब बिहार और बिहारियों से मतदान का अधिकार छीनने का षड्यंत्र कर रहे हैं। विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर ये आपका वोट काटेंगे ताकि मतदाता पहचान पत्र न बन सके। फिर ये आपको राशन, पेंशन, आरक्षण, छात्रवृत्ति सहित अन्य योजनाओं से वंचित कर देंगे। निर्वाचन आयोग ने आदेश दिया है कि सभी वर्तमान मतदाता सूची को रद्द करते हुए हर नागरिक को अपने वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने के लिए नए सिरे से आवेदन देना होगा, भले ही उनका नाम पहले से ही सूची में क्यों न हो।
पटना में मीडिया से बात करते हुए भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय सह-संयोजक योगेंद्र यादव ने बताया कि ये वोटर लिस्ट सुधार नहीं, वोट उड़ाने का खेल बन सकता है। क्या बिहार में लोकतंत्र को चुपचाप नष्ट करने की तैयारी है? 24 जून को चुनाव आयोग ने विशेष गहन पुनरीक्षण का जो आदेश जारी किया है, वह पहली नजर में एक तकनीकी प्रक्रिया दिखती है, लेकिन असल में यह एक चुनावी जनगणना है, जो करोड़ों नागरिकों को मताधिकार से वंचित कर सकती है। जिस किसी का नाम 2003 की सूची में नहीं है, उसे अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। जिनके पास न जन्म प्रमाणपत्र है, न मैट्रिक का प्रमाण, न जाति प्रमाण — वे वोटर लिस्ट से बाहर हो सकते हैं। बिहार में लगभग 4 करोड़ से ज्यादा युवाओं से ऐसे दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, जो करोड़ों के पास नहीं होंगे।
हिंदू बनाम मुस्लिम की राजनीति शुरू

इस पूरे मुद्दे पर जहां एक ओर राजद, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी सरकार की मुखालफत में खड़ी है। वहीं सत्ताधारी पार्टी खासकर भाजपा इस पूरे मुद्दे को हिंदू बनाम मुस्लिम की राजनीति के तहत मोड़ रही है।
बिहार के उप मुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा ने कहा कि राजद की मानसिकता संविधान विरोधी है। उन्होंने राजद पर संवैधानिक संस्था का अपमान करने और राजद और कांग्रेस पश्चिम बंगाल की राह पर चल पड़े हैं। ममता बनर्जी की संगति का असर दिखाई पड़ रहा है। ये बांग्लादेशियों की भाषा बोलने लगे हैं।
मुद्दे को लेकर नीतीश कुमार की पार्टी में मतभेद
इस पूरे मुद्दे पर नीतीश कुमार की पार्टी में भी अलग-अलग बयान आ रहे हैं। एक ओर जेडीयू के एमएलसी व बड़े अल्पसंख्यक चेहरा खालिद अनवर ने इस मुद्दे पर कहा कि वोटरों का वेरिफिकेशन होना चाहिए, लेकिन चुनाव आयोग ने जो प्रोफार्मा जारी किया है वह गलत है। एनपीआर एनआरसी जैसा है। 2020 में एनपीआर का हम लोगों ने विरोध किया था कि 2010 की तर्ज पर होना चाहिए, क्योंकि उसमें माता पिता का प्लेस और डेट ऑफ बर्थ पूछा जा रहा था। हमारे नेता नीतीश ने एनपीआर को रिजेक्ट किया था। एनआरसी के खिलाफ भी हम लोग हैं। उसके खिलाफ भी विधानसभा से प्रस्ताव 2020 में पारित हुआ था। वहीं दूसरी ओर जदयू प्रवक्ता अरविंद निषाद ने कहा कि हमारी पार्टी में कौन विरोध कर रहा है यह हमने अभी देखा नहीं है, लेकिन हमारी पार्टी का स्टैंड साफ है कि चुनाव आयोग का जो वोटर लिस्ट परीक्षण अभियान है। हम उसके पक्ष में हैं। निर्वाचन आयोग ने वोटर लिस्ट की निष्पक्षता और शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए यह किया गया है। इस पूरे मुद्दे पर जदयू और जनसुराज पार्टी के नेता बयान देने से बच रहे हैं।
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इस मुद्दे पर सोशल मीडिया पर क्या बोला जा रहा
राष्ट्रीय जनता दल ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा है कि क्या मतदाता पुनरीक्षण के बहाने भाजपा के इशारे पर चुनाव आयोग गरीबों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को वोटर सूची से बाहर करने का षड्यंत्र रच रही है! चुनाव आयोग द्वारा ऐसे दस्तावेज और प्रमाणपत्र मांगे जा रहे हैं जो सबके पास होना संभव भी नहीं है और बनाने में बहुत समय भी लग जाएगा! भाजपा वाले जानते हैं कि बिहार के निर्धन और मध्यम वर्ग के लोग उन्हें वोट नहीं डालते हैं, इस पुनरीक्षण के बहाने बहुजनों के मताधिकार पर भाजपा कुठाराघात कर रही है! भाजपा को अपने वोट की ताकत से अबकी सबक सिखाने की जरूरत है!
वहीं भाजपा के द्वारा सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि जब चुनाव से पहले चुनाव आयोग, मतदान प्रणाली और ईवीएम पर विपक्ष के हमले शुरू हो जाएं तो समझ जाना चाहिए कि विपक्ष की चुनावी गाड़ी का पहिया पंचर हो चुका है। हमारी सलाह है कि जवाब दे चुके पहिए के भरोसे यात्रा पर न निकलें। 95 चुनाव हार चुके धक्कमठेल नेता के भरोसे चुनाव यात्रा पर न निकलें।
एआईएमआईएम पार्टी के हेड असदुद्दीन ओवैसी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि निर्वाचन आयोग बिहार में गुप्त तरीके से एनआरसी लागू कर रहा है। वोटर लिस्ट में नाम दर्ज करवाने के लिए अब हर नागरिक को दस्तावेजों के जरिए साबित करना होगा कि वह कब और कहां पैदा हुआ था, और साथ ही यह भी कि उसके माता-पिता कब और कहां पैदा हुए थे। विश्वसनीय अनुमानों के अनुसार भी केवल तीन-चौथाई जन्म ही पंजीकृत होते हैं। ज्यादातर सरकारी कागजों में भारी गलतियां होती हैं। बाढ़ प्रभावित सीमांचल क्षेत्र के लोग सबसे गरीब हैं; वे मुश्किल से दिन में दो बार खाना खा पाते हैं। ऐसे में उनसे यह अपेक्षा करना कि उनके पास अपने माता-पिता के दस्तावेज होंगे, एक क्रूर मजाक है।
:: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ::