आरएसएस और बीजेपी नेताओं के बाद अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने भी इमरजेंसी के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवाद’ और ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्दों पर आपत्ति जताते हुए ‘नासूर’ शब्द का इस्तेमाल किया है। जाहिर है, वे आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के उस विचार को धार दे रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि इन शब्दों को संविधान में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार हो।

25 जून को इमरजेंसी की पचासवीं वर्षगांठ पर ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाते हुए दत्तात्रेय होसबाले ने जो कहा है उसे अगर वास्तव में संविधान की हत्या की बरसों पुरानी आरएसएस की साध का प्रकटीकरण कहा जाए तो गलत नहीं होगा। ‘समाजवाद’ और ‘पंथ निरपेक्षता’ ही नहीं, इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संशोधन के जरिए ‘अखंडता’ शब्द भी जोड़ा था। क्या संघ शिविर के योद्धा क्या इस पर भी सवाल करेंगे और क्या उपराष्ट्रपति महोदय कहेंगे कि प्रस्तावना में इस शब्द को जोड़ना भी गलत था?
ऐसा नहीं है कि यह बात किसी से छिपी है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की मांग को खारिज कर दिया है। नवंबर 2024 में प्रस्तावना से समाजवाद और पंथ निरपेक्षता शब्द हटाने की मांग को स्पष्ट रूप से ठुकरा चुका है। इसके अलावा 1973 के केशवानंद भारती केस और 1994 के एस. आर. बोम्मई केस में भी
सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट कर चुका है कि पंथ निरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है जिसे बदला नहीं जा सकता। इन फैसलों की वजह से ही पिछले दिनों बार-बार संविधान के मूल ढांचे के अपरिवर्तनीय होने पर सवाल उठाए गए। यहां तक कि राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गए पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपने पहले भाषण में ही ये सवाल उठाया था। यह बीजेपी का कर्ज उतारने की तरह था। बाबरी मस्जिद तोड़ने को अपराध बताने और राम मंदिर तोड़ने का साक्ष्य न होने के बावजूद राम मंदिर बनाने के पक्ष में फैसला देकर विवादों में आए रंजन गोगोई को रिटायर होने के कुछ दिन बाद ही राज्यसभा में मनोनीत किया गया था।
हैरानी की बात ये है कि 1977 में जब इमरजेंसी के दौरान लिए गए कुछ फैसलों को पलटने के लिए कानून में संशोधन किए गए तब जनता पार्टी की सरकार से ऐसी कोई मांग नहीं रखी गई थी। उस सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे जनसंघ के दिग्गज नेता शामिल थे। जनसंघ आरएसएस का ही पहला राजनीतिक प्रयोग था और जनता पार्टी के गठन के समय जनसंघ का विलय कर दिया गया था। बाद में जब आरएसएस की सदस्यता के सवाल को लेकर जनता पार्टी टूटी और पूर्व जनसंघ के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया तब भी ऐसी कोई मांग नहीं की गई। उल्टा ‘गांधीवादी समाजवाद’ को निर्देशक सिद्धांत घोषित किया गया। 1980 में पार्टी के स्थापना सम्मेलन में अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘गांधीवादी समाजवाद’ ही नहीं, पंथ निरपेक्षता के प्रति भी पार्टी की प्रतिबद्धता जताई थी।
यानी समाजवाद और पंथ निरपेक्षता, दोनों ही शब्द बीजेपी के आधारभूत संकल्पों में शामिल रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसे इन शब्दों से परेशानी होने लगी है। पिछले लोकसभा चुनाव में ‘चार सौ पार’ होने पर संविधान बदलने का दावा कुछ बीजेपी नेताओं ने किया था जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा और वह 240 सीटों पर सिमटते हुए अकेले बहुमत के सपने से दूर हो गई। ऐसे में अब इन दो शब्दों को निशाना बनाकर संविधान को संदिग्ध बनाने की कोशिश हो रही है।
यह भूलना नहीं चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी ‘संविधान समीक्षा आयोग’ बनाया था और संविधान स्वीकार किए जाने के महज चार दिन बाद आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में 30 नवंबर 1949 को इस संविधान को ‘अभारतीय’ घोषित करते हुए कहा गया था कि इसमें मनुस्मृति (शूद्रों और स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज) जैसे ‘भारतीय’ संस्कृति के ग्रंथों के लिए स्थान नहीं है।
मोदी सरकार में ताकतवर महसूस कर रहे आरएसएस को पता है कि इन शब्दों के संविधान में रहते ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का उसका संकल्प पूरा नहीं हो पाएगा। ये केवल शब्द नहीं हैं बल्कि जनता के लिए जीवित संदर्भ हैं जिनके रहते वह आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती जिसका आरएसएस ने संकल्प लिया है। संसद में सेंगोल स्थापित करने भर से वह प्राचीन गौरव नहीं लौट पाएगा जिसमें ‘धर्म-सभा’ हमेशा ‘राज्य-सभा’ से ऊपर होती है।
भारत में ‘समाजवाद’ को कभी उन अर्थों में नहीं लिया गया जैसे कि ‘समाजवादी क्रांति’ से गुजरे देशों में लिया गया। शास्त्रीय मतलब तो यही है कि समाजवाद में उत्पादन के साधन पूरी तरह राज्य के अधीन होते हैं, लेकिन भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चला जिसमें निजी पूंजी के लिए भी पर्याप्त जगह थी। संविधान की प्रस्तावना में मौजूद ‘समता’ का सिद्धांत इसी समाजवाद की छटा थी जिसका मकसद गैरबराबरी को कम से कम करना था और श्रमिकों को उचित मजदूरी और किसानों को उपज का उचित दाम दिलाने की व्यवस्था करना था।
दरअसल जिन दलों ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी थी, सबका सपना समाजवादी भारत का निर्माण करना था। सिर्फ कांग्रेस नहीं, भगत सिंह का हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का भी यही सपना था। इस नारे से विचलित लोग आजादी की लड़ाई में शामिल ही नहीं थे। वे अंग्रेजों का साथ दे रहे थे जैसे कि मुस्लिम लीग, सावरकर की हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। मुस्लिम लीग ने जो पाकिस्तान बनाया उसमें जमींदारी उन्मूलन नहीं हुआ जबकि भारत में आजादी के बाद ही यह प्रक्रिया शुरू हो गई। बड़े पैमाने पर गरीबों के बीच जमीन बांटी गई। इसके अलावा आरक्षण की व्यवस्था भी उसी समतामूलक समाज बनाने की दिशा में उठाया गया कदम था जिसके मूल में समाजवाद था।
यह बात तो किसी से छिपी नहीं है कि नेहरू सरकार के ऐसे तमाम कदम संघ को रास नहीं आए। उसका सुर हमेशा आरक्षण से विरोध में था जो सत्ता की मजबूरी से मद्धिम पड़ा है। संविधान में समाजवाद नहीं होगा तो न आरक्षण की अनिवार्यता रह जाएगी और न श्रमिकों और किसानों के अधिकारों को महत्व देने के लिए सरकार बाध्य की जा पाएगी।
वैसे भी समाजवादी नीतियों के तहत बनाए गए सार्वजनिक उपक्रमों को जिस तेजी से मोदी सरकार ने बेचा है, उसने प्रकारांतर से आरक्षण के सिद्धांत को बेमानी बना दिया है। दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को सीधा नुकसान हुआ है क्योंकि निजी क्षेत्र में आरक्षण की फिलहाल कोई व्यवस्था नहीं है। यानी संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद शब्द को हटाने के पीछे सिर्फ राजनीति नहीं बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों का दबाव है। जल, जंगल और जमीन की लूट के आड़े अभी बहुत से कानून आते हैं जिनके मूल में समाजवाद का संवैधानिक संकल्प ही है।
यह सवाल अक्सर उठाया जाता है कि डॉ. आंबेडकर प्रस्तावना में समाजवाद शब्द जोड़ने के खिलाफ थे। दरअसल, डॉ. आंबेडकर का तर्क था कि भविष्य में समाजवाद से बेहतर व्यवस्था आ सकती है, इसलिए किसी निश्चित विचारधारा से बांधने के बजाय संविधान को लचीला रखना चाहिए। वैसे यह भी गौर करने की बात है कि बतौर राजनेता डॉ. आंबेडकर राजकीय समाजवाद के समर्थक थे और भूमि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे। लेकिन संविधान में सबको साथ लेकर चलना जरूरी था और ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाने का समय तब नहीं आया था।
अब बात करते हैं पंथ निरपेक्षता की। जनता के बीच इसका व्यवहार ‘सर्वधर्म समभाव’ के रूप में है लेकिन इसका सही अर्थ राज्य का धर्म से विलग होना है। पंथ निरपेक्षता का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति धर्म से विमुख हो जाए। यह निर्देश राज्य के लिए है कि वह धर्मों के झमेले से दूर रहे। यह बात गौर करने वाली है कि राज्य और धर्म के क्षेत्र बिल्कुल अलग हैं। राज्य का काम लौकिक यानी हमारे आसपास की दुनिया को बेहतर बनाना है। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीजों की व्यवस्था करना है जबकि धर्म का रिश्ता अलौकिक दुनिया से है। हर धर्म की मान्यता है कि जीव के लिए धरती पर जीवन सिर्फ पड़ाव की तरह है। जाना तो उसे स्वर्ग है। मोक्ष हो या कयामत की धारणा, धर्म का आग्रह इस धरती के मोह से मुक्त होने का ही रहता है। जब राज्य यही काम करने लगे तो समझिए कि वह अपना काम नहीं कर रहा है।
बीजेपी के समय राज्य जिस तरह धर्म और अलौकिकता को बढ़ावा दे रहा है, उसका मकसद यही है कि जनता इस धरती को पड़ाव ही माने। सराय में हो रही तकलीफों के लिए किसी को जिम्मेदार ठहराने के फेर में न पड़े क्योंकि जाना तो स्वर्ग है। जब जनता के अंदर यह भाव भरता है तो राज्य से नहीं सिर्फ ईश्वर से उम्मीद करती है। प्रस्तावना में समाजवाद की तरह पंथ निरपेक्षता नहीं जोड़ा गया था क्योंकि संविधान की पूरी प्रकृति ही धर्म निरपेक्ष थी। इसमें धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों को एक समान माना गया था। संविधान ने गैर हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक मानने को असंभव बना दिया है जैसा कि आरएसएस के सिद्धांतकार बार-बार लिख चुके हैं।
यानी समाजवाद और पंथ निरपेक्षता के बीच सीधा रिश्ता है। दोनों का एक आर्थिक आयाम भी है जो आपस में जुड़ता है। बीजेपी जिस तरह का समाज और अर्थतंत्र गढ़ना चाहती है उसमें ये दोनों शब्द कांटे की तरह हैं। ये सिर्फ प्रस्तावना में लिखे कोरे शब्द नहीं, जीवित संदर्भ हैं जिनके सहारे जनता सरकार को जवाबदेह बना सकती है जबकि आरएसएस और बीजेपी चाहते हैं कि जनता उसे नहीं ईश्वर को जिम्मेदार माने। इसलिए ये लड़ाई महज दो शब्दों की नहीं, भारत नामक विचार (आइडिया ऑफ इंडिया) से जुड़ी है जिसे स्वतंत्रता आंदोलन के ताप ने पैदा किया था और आरएसएस ने जिससे मुंह मोड़ रखा था।
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।