ईरान में यूं तो बहुत से धर्म और वर्ग के लोग हैं। उनके बीच तमाम धार्मिक, सांस्कृतिक खींचतान चलती रहती है, जिसका अमरीका और इजराइल लाभ लेते रहते हैं। इधर ईरान पर हुए हमले और उसकी मजबूत स्थिति के बारे में अवलोकन करने के लिए हमें ईरान की इस धार्मिक विविधता की बुनावट को समझना होगा।

यहां तमाम दूसरे धर्मों के मुकाबले इस्लाम के ही तीन बड़े हिस्से हैं, तो हम इन तीन बड़े वर्गों की बात करते हैं। एक हैं शिया, दूसरे हैं सुन्नी और तीसरे हैं कुर्द। आज से पहले इन तीनों में इख्तेलाफ (मतभेद) था, जो अभी भी है। मगर देखना यह है कि जब इजराइल ने ईरान पर हमला किया, तब यह क्या कर रहे थे। इसी में छिपा है वह राज, जो हमारे भी काम का है।
ईरान को अक्सर एक एकल-सांस्कृतिक शिया इस्लामी गणराज्य के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह दृष्टिकोण इस ऐतिहासिक देश की वास्तविक बहुलता को प्रतिबिंबित नहीं करता। ईरान दरअसल एक गहराई से विविधतापूर्ण समाज है, जहां जातीय और धार्मिक विविधता न केवल मौजूद है, बल्कि ईरानी समाज की बनावट में गहराई से रची-बसी है।
ईरान की जनसंख्या लगभग 8.7 करोड़ (2025 अनुमान) के करीब है, जिसमें सांस्कृतिक रूप से बहुसंख्यक समुदाय फारसी हैं। यह समुदाय लगभग 60-61% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। फारसी भाषा और संस्कृति ईरानी शासन व सांस्कृतिक पहचान की मुख्यधारा में हैं। हालांकि, इस फारसी प्रभुत्व के बावजूद, देश में कई अन्य महत्वपूर्ण जातीय समूह भी मौजूद हैं।
उनमें से एक बड़ा समुदाय है अज़ेरी (Azeri), जो तुर्किये मूल का समुदाय है, जिसे सुन्नी भी माना जाता है। यह उत्तर-पश्चिम ईरान में प्रमुखता से बसा है। यह ईरान की कुल जनसंख्या का लगभग 16% हिस्सा है। इसके अलावा दूसरा बहुत बड़ा वर्ग कुर्द हैं, जो मुख्यतः पश्चिमी ईरान में निवास करते हैं। यह लगभग 10% हैं। इनके बहुत निकट के संबंध इराक के कुर्दों से भी हैं, जो सद्दाम हुसैन के ख़िलाफ़ लड़े थे। इन दोनों बड़े समुदायों के अतिरिक्त लूर 6%, बालूच करीब 2% हैं। यहां अरब 2% और तुर्कमेन के साथ तुर्किये की दूसरी जातियां भी 2% के आसपास मौजूद हैं। बहुत कम संख्या में हिन्दू व सिख भी हैं, मगर यह नहीं कहा जा सकता कि इनकी मौजूदगी नहीं है। इसके अतिरिक्त, आर्मीनियाई, अफ्रो-ईरानी और अस्सीरी जैसे अल्पसंख्यक भी ईरानी समाज में अपने विशेष स्थान रखते हैं।
यह जातीय बहुलता ईरान के सांस्कृतिक जीवन को बहुरंगी बनाती है, लेकिन शासन स्तर पर इन जातीयताओं की पहचान और अधिकारों को पूरी तरह मान्यता नहीं मिलती, जिससे सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष की स्थितियां बनती रही हैं। बहुत बार इनमें आपस में संघर्ष होता है। इजराइल और अमरीका इस बहुलता से उपजी खिन्नता का लाभ उठाने का हर प्रयत्न करते हैं।
ईरान का संविधान इस्लामिक गणराज्य के रूप में शिया इस्लाम को सर्वोच्च धर्म के रूप में मान्यता देता है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, लगभग 90-95% लोग शिया मुसलमान हैं और 5-10% सुन्नी मुसलमान। ईरान की सरकार ईसाई, यहूदी, धार्मिक ज़रोस्ट्रियन जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी मान्यता देती है।
GAMAAN जैसे स्वतंत्र शोध, जो कि 2020 और 2022 के बीच ऑनलाइन सर्वे के रूप में हुआ, वहां यह बात सामने आई है कि ईरानी समाज में धर्म को लेकर बड़ी विविधता है। इन सर्वेक्षणों में लगभग 32-38% लोग स्वयं को शिया बताते हैं, जबकि 9% तक लोग नास्तिक, 6-7% अग्नोस्टिक, और 7-8% ज़रोस्ट्रियन या अन्य परंपरागत धर्मों से जुड़े बताए गए। आश्चर्य इस बात का है कि लगभग 22% लोगों ने सभी धर्म से दूरी बनाकर ‘कोई धर्म नहीं’ का विकल्प चुना। जब यह सर्वेक्षण सामने आया, तो दुनिया को ईरान के अंदर की विविधता पर आश्चर्य हुआ। तभी बहुत से विचारक यह कहने लगे कि खामनेई साहब की सत्ता जा रही है, जबकि वास्तव में वह और मजबूत होकर निकले।
ईरान की जातीय और धार्मिक विविधता इस देश को एक समृद्ध और जटिल सामाजिक ताने-बाने में ढालती है। लेकिन यह भी सच है कि इस विविधता को राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर पूरी तरह सम्मान और स्वतंत्रता नहीं मिल पाती। सरकार की धार्मिक कट्टरता और फारसी केंद्रीकरण की नीति के कारण कई जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों में असंतोष बना रहता है।
वास्तविक रूप से, ईरान एक ऐसा राष्ट्र है, जहां कई नस्लें, भाषाएं और धार्मिक मान्यताएं सह-अस्तित्व में हैं। यही इसकी असली ताकत भी है।
यहां सत्ता को लेकर शिया, सुन्नी और कुर्दों में जबरदस्त जोर-आजमाइश रहती है। यह भी नहीं है कि आयतुल्लाह खामनेई सबके दिलों में बराबर ऊंचाई रखते हों। बहुत से कुर्दों और सुन्नियों को अखरता है। यह सारी दुनिया जानती है कि इन सब में आपस में बड़ी खटास है, मगर जब ईरान के सिर पर जंग मुसल्लत हुई, तब वहां क्या हुआ?
अमरीका को यकीन था कि सुन्नी खामोश हो जाएंगे और कुर्द खामनेई साहब के खिलाफ बगावत कर देंगे। यही मौका होगा, जब शाह पहलवी की नस्ल को ईरान की सत्ता सौंपकर अपना गुलाम बना लिया जाएगा। मगर आप खामनेई साहब के काम करने के तरीके को देखिए, उन्होंने सबसे पहले अपने अंदर के इख्तेलाफ को दूर किया। मतलब, सबसे ऊपर “ईरानी” सभ्यता को रख दिया, जिसे कुर्द भी मानते हैं, सुन्नी भी और शिया भी इसकी इज्जत करते हैं।
जब ईरानीयत खतरे में आई, तो भला कोई फिरौनियत इसको कैसे बांट सकता था। खामनेई ने खुद को पीछे किया और ईरानीयत को सामने कर दिया। आप सोचिए, इसी युद्ध के दौरान बड़ी प्लानिंग से अमरीका ने ईरान के टीवी हैक करके खामनेई साहब के खिलाफ जनता को उकसाया, सड़कों पर निकलने का आह्वान किया। इनकी सत्ता को जड़ से उखाड़ने के लिए ललकारा, मगर जनता तो उल्टे खामनेई की तस्वीर और ईरान का झंडा लेकर निकल उठी। यह हुआ कैसे?
असल में अमरीका और इजराइल की मक्कारियां ईरान ने खूब देखी हैं। युद्ध से पहले ही ईरान सतर्क था कि वह अंदर से न बंटने पाए। खामनेई साहब ने सबसे बड़ी सख्ती अपने लोगों पर की और कहा कि ईरान को मुट्ठी की तरह मानो, इसे अलग करके देखोगे, तो तबाह हो जाओगे। कुर्दों और सुन्नियों के खिलाफ जहर उगलने पर सख़्तियां हुईं। सबके एक होने पर जोर दिया। वहां किसी मिनिस्टर ने किसी दूसरे समुदाय के खिलाफ बयान नहीं दिए।
वहां के प्रेसिडेंट ने यह नहीं कहा कि किसी को कपड़े से पहचानिए। किसी को रंग और हुलिए से पहचानिए, बल्कि सबसे कहा कि बतौर ईरानी, हम सब तो एक हैं। तमाम झगड़ों के बावजूद वह एक रहे, युद्ध के दौरान किसी ने किसी पर गद्दारी के आरोप नहीं लगाए। किसी टीवी एंकर ने यह नहीं कहा कि देखो, फलां कौम गद्दार है। सबने बड़ी समझदारी से इस बला से निपटने में जोर दिया।
जब इजराइल ने कहा कि सुन्नियों हमारे साथ आओ, हम तुम्हारे लिए शियाओं से लड़ रहे हैं, तब सुन्नियों ने उन पर यह फरेब वापस थूक दिया। आज अमरीका को वापस जाना पड़ रहा है, इजराइल की औकात सबने देख ली। यह सब हुआ इसलिए, क्योंकि वह जब लड़े, तो एक-दूसरे पर भरोसा किया। एक हुए और भिड़ गए। किसी ने किसी के खिलाफ जहर नहीं उगला, हुकूमत ने सबकी हुकूमत बनकर दिखाया। अपनी जनता को इस घड़ी में भी बांटकर नहीं देखा।
कल कुछ भी हो, मगर आज तो ईरान ने सबक दे दिया। इजराइल को लगता था कि उसने इन्हें अंदर से खोखला कर दिया है। अब वह खुद बौखला चुका है। ईरान की रेजिम भले न बदले, नेतन्याहू की बदलने जा रही है। ईरान ने यह लड़ाई नेतन्याहू के साजिश के साथ अपने भीतर नफरत से भी लड़ी है। दोनों जगह आज इसका शोर सुनाई दे रहा है। खामनेई जन-जन की आवाज बनकर उभरे हैं। यह तब होता है, जब आप अपने हर हिस्से को अपना समझें। सामने वाले गलती करेंगे, क्योंकि वह आवाम हैं, मगर हुकूमत को यह गलती नहीं करनी चाहिए। वह जनता को बांटकर न देखे, बांटे न, तो सबमें मकबूल होती है। केवल एक वर्ग, एक धर्म के नेता बन भी गए, तो क्या ही बने। बात तो तब है, जब सब आपको अपना रहबर समझें। यही खामनेई साहब ने कमाया है।
हम यह नहीं कहते कि कुर्दों, सुन्नियों या शियाओं के झगड़े ख़त्म हो जाएंगे। ईसाई या यहूदी के मसले खत्म हो जाएंगे। यह रहेंगे, जब सत्ताएं इन झगड़ों से लाभ लेने लगें। एक घर में झंडा गाड़ने के लिए, दूसरे घर में आग लगा दें। कपड़ों से लोगों में फर्क करें। पूजा पद्धतियों से जनता को बांटें। पहचान देखकर घर ढहा दें, उनके उपासना स्थल नष्ट करें। तब बुरा होता है। ऐसी हर सत्ता, संकट में बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। यह लड़ाई सिर्फ ईरान-इजराइल की लड़ाई नहीं थी। यह थी सभ्य और असभ्य के बीच सभ्यता की लड़ाई, जिसमें खामनेई हीरो और ईरानी हीरोइज़्म की वजह बनकर उभरे हैं। सबक ले सकिए तो सबक लीजिए, अपने से अलग धर्म, वर्ग से लड़िए मत, भरोसा कीजिए, भरोसा अर्जित कीजिए, एक होइए, ईरान की तरह सिर उठाकर चल सकेंगे…