तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पचास साल पहले 25-26 जून, 1975 की दरम्यामनी रात देश में आपातकाल लगाया था। पत्रकार सुदीप ठाकुर की चर्चित किताब, दस सालः जिनसे देश की सियासत बदल गई का एक अंश… आपातकाल के दौरान जेपी की अगुआई में गोलबंद हुए विपक्ष ने जनता पार्टी बनाई थी, लेकिन यह प्रयोग महज ढाई साल में विफल हो गया।
1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी को 295 सीटें मिली थीं और सहयोगी दलों के साथ उसकी सीटों की संख्या 345 पहुंच गई। कांग्रेस 154 सीटों तक सिमट गई थी और सहयोगी दलों के साथ उसका आंकड़ा 189 तक ही पहुंच सका था। कांग्रेस को अविभाजित उत्तर प्रदेश (85 सीटें) और अविभाजित बिहार (54 सीटें) में से एक भी सीट नहीं मिली। अलबत्ता अविभाजित मध्य प्रदेश (40 सीटें) और राजस्थान (25 सीटें) में वह एक-एक सीट जीतने में सफल हुई थी।
छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन के बावजूद गुजरात में उसने दहाई का आंकड़ा पार कर लिया था। दक्षिणी राज्यों, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक में उसका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा था, जबकि तमिलनाडु में नतीजे मिले जुले थे। कांग्रेस को दिल्ली और दिल्ली से सटे हरियाणा में भी एक भी सीट नहीं मिली थी। (चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर) 1977 के आम चुनाव के नतीजे दिखा रहे थे कि जेपी आंदोलन और आपातकाल का प्रभाव विंध्य के उस पार दक्षिण की तरफ अपेक्षाकृत कम ही रहा था।
वैसे यह चुनाव इस मायने में भी अनूठा था कि इसमें जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेता ने जेल में रहते बिहार के मुजफ्फरपुर से चुनाव जीता था।
कांग्रेस पहली बार केंद्र की सत्ता से बेदखल हो गई। प्रधानमंत्री के रूप में मोरारजी देसाई का दावा शुरू से मजबूत था, क्योंकि जेपी को उनका समर्थन हासिल था। हालांकि देसाई के अलावा जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह और यहां तक कि चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। अंततः 24 मार्च,1977 को मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
सरकार बनने से पहले ही जनता पार्टी के अंतरविरोध सामने आने लगे थे। विभिन्न दलों के बीच टकराव बढ़ने लगा। टकराव की दो प्रमुख वजहें थीं, एक तो यह कि चौधरी चरण सिंह देसाई को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे। दूसरी वजह थी जनसंघ से जुड़े लोगों का आरएसएस से जुड़ाव।
खुद जेपी ने जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद एक बार फिर आरएसएस की भूमिका को लेकर संदेह जताया। 11 सितंबर, 1977 को सामयिक वार्ता को दिए गए एक साक्षात्कार में जेपी ने कहा, ‘आरएसएस को खुद को समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि बदली हुई परिस्थितियों में उसके अलग अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं है।’
इसी साक्षात्कार में जेपी ने आगे कहा, ‘आरएसएस के नेताओं और कार्यकर्ताओं से हुई मुलाकातों में मैंने उनके व्यवहार में बदलाव देखा है। अन्य समुदायों के प्रति उनमें अब शत्रुता का भाव नजर नहीं आता। लेकिन वे अपने दिलों की गहराई से अब भी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास रखते हैं। वे इस धारणा के आधार पर हिंदुओं को संगठित करने की बात करते हैं कि मुस्लिम और ईसाई समुदाय पहले से संगठित हैं, जबकि हिंदू विभाजित हैं।’
जेपी ने उम्मीद जताई कि, ‘वे हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय राष्ट्रीयता को अपनाएंगे, जो कि एक धर्मनिरपेक्ष अवधारणा है और यह भारत में रहने वाले सभी समुदायों को अंगीकार करती है।’ सत्ता में आने के बाद से जनता पार्टी के नेताओं के अंतरविरोध और मतभेद सामने आने लगे थे, लेकिन उनमें इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के खिलाफ कार्रवाई को लेकर सहमति थी। इसी का नतीजा है कि जनता पार्टी की सरकार ने एक पखवाड़े के अंदर ही आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए सात अप्रैल, 1977 को सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज जस्टिस जे. सी. शाह की अगुआई में एक आयोग के गठन का एलान कर दिया। आयोग ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों और नौकरशाहों को भी तलब किया।

आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि आपातकाल के दौरान मीसा और डीआईए के प्रावधानों का राजनीतिक विरोधियों को नुकसान पहुंचाने के लिए दुरुपयोग किया गया था। शाह आयोग की रिपोर्ट में नसबंदी की आड़ में हुई ज्यादतियों, और राजधानी दिल्ली के सौंदर्यीकरणके लिए अवैध निर्माण को हटाने के नाम पर हुई बर्बर कार्रवाई का भी संज्ञान लिया था।
इस बीच, इंदिरा गांधी कई बार के समन को टालने के बाद नौ जनवरी, 1978 को दिल्ली के पटियाला हाउस में शाह आयोग के समक्ष उपस्थित हुईं। उनके साथ उनके मंत्रिमंडल के पूर्व सहयोगी प्रणब मुखर्जी (पूर्व राष्ट्रपति) भी थे। इंदिरा ने कहा आपातकाल एक राजनीतिक कार्रवाई थी, जिसे मंत्रिमंडल और संसद की मंजूरी प्राप्त थी, इसलिए यह आयोग के न्यायिक दायरे में नहीं आता। उन्हें अगले दिन भी तलब किया गया, लेकिन उन्होंने आयोग के समक्ष कुछ नहीं कहा। उनके वकील फ्रैंक एंथनी ने आयोग की वैधता पर सवाल उठाया। इंदिरा को आयोग ने चौथी और आखिरी बार 19 जनवरी, 1978 को समन भेजा मगर उन्होंने बयान देने से इनकार कर दिया।
अलबत्ता जनता पार्टी की सरकार कुछ समय के लिए इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय को जेल भेजने में सफल रही। दरअसल जनता सरकार में इस बात को लेकर बेचैनी थी कि सत्ता में आने के कई महीने बाद तक इंदिरा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। बेचैनी इस वजह से भी थी क्योंकि चुनाव हारने के कुछ समय बाद ही इंदिरा राजनीतिक रूप से सक्रिय हो चुकी थीं। 27 मई, 1977 को बिहार के पटना जिले के बेलची गांव में भीषण नरसंहार में 11 लोग मारे गए थे, जिनमें से आठ दलित और तीन सुनार थे। अगस्त के महीने में इंदिरा ने वहां जाने का फैसला किया। 13 अगस्त को वह दिल्ली से विमान से पटना पहुंचीं। उनके साथ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र सहित कांग्रेस के कुछ अन्य नेता थे।
इंदिरा पटना तक तो पहुंच गई थीं, लेकिन बरसात के कारण बेलछी तक पहुंचना मुश्किल था। कच्चा रास्ता था और बरसात के कारण कीचड़ भरा हुआ था। वह पहले कार से आगे बढ़ीं और फिर जीप में सवार हुईं। यहां तक कि एक ट्रैक्टर तक का इंतजाम किया गया। अंततः मोती नाम के एक हाथी का इंतजाम किया गया और इंदिरा उस पर सवार होकर बेलछी तक गईं। रास्ते में लोग उनके पक्ष में नारे लगा रहे थे। वहां यह नारा भी सुना गया, आधी रोटी खाएंगे, इंदिराजी को लाएंगे!1
लौटते समय अगले दिन इंदिरा ने पटना में बीमार जयप्रकाश नारायण से भी मुलाकात की। वह उनके पास घंटे भर तक रहीं और उनसे बेलछी में हुए नरसंहार और दलितों की तकलीफों पर बात की। उनकी बेलछी यात्रा और जेपी से मुलाकात एक मजबूत राजनीतिक बयान की तरह था। इसका संदेश दिल्ली तक सुना गया। इसके करीब दो महीने बाद तीन अक्तूबर को पुलिस ने इंदिरा गांधी के नए पते 12 विलिंगटन क्रिसेंट पर दस्तक दी। कुछ घंटे के नाटकीय घटनाक्रम के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया।
संजय गांधी की गिरफ्तारी भी कम नाटकीय नहीं थी। राजस्थान के कांग्रेस नेता और फिल्मकार अमृत नाहटा ने आपातकाल के दौरान किस्सा कुर्सी का नाम से एक फिल्म बनाई। संजय गांधी और उनकी मारुति कार परियोजना के साथ ही उनकी मंडली पर केंद्रित यह राजनीतिक व्यंग्य फिल्म थी। आरोप था कि संजय ने सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल के साथ इस फिल्म को जारी नहीं होने दिया। जनता पार्टी की सरकार आने के बाद संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ इसे लेकर प्राथमिकी दर्ज की गई। तब तक नाहटा जनता पार्टी में शामिल हो चुके थे। 27 फरवरी, 1979 को दिल्ली की तीस हजारी अदालत के सत्र न्यायाधीश ओ एन वोहरा ने संजय गांधी और सहअभियुक्त विद्याचरण शुक्ल को दो वर्ष की सजा सुनाई। हालांकि कोर्ट ने उन्हें जमानत भी दे दी थी। मगर जनता सरकार ने संजय की जमानत खारिज कर दी, जिससे उन्हें एक महीने तक तिहाड़ में रहना पड़ा।
शाह आयोग को छह महीने में रिपोर्ट देनी थी, लेकिन आयोग ने छह अगस्त, 1978 को अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश की। तब तक जनता पार्टी के अंतरविरोध सतह पर आ चुके थे। प्रधानमंत्री देसाई से मतभेदों के कारण चरण सिंह ने जून, 1978 में मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि छह महीने बाद जनवरी, 1979 में उप प्रधानमंत्री के रूप में वापसी हो गई। इसके बावजूद देसाई और चरण सिंह के रिश्ते सहज नहीं रहे। अंततः 24 जुलाई, 1979 को चरण सिंह और राजनारायण के अलग होने के साथ ही देसाई सरकार गिर गई
देसाई सरकार के गिरने का एक बड़ा कारण था दोहरी सदस्यता का मुद्दा। चरण सिंह और राजनारायण के साथ ही मधु लिमये और जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेताओं ने इस बात पर एतराज किया कि जनसंघ से जनता पार्टी में आए नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाता नहीं तोड़ा है। जेपी ने तो पहले ही, जैसा कि ऊपर जिक्र आया है,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सलाह दी थी कि वह खुद को खत्म कर ले या जनता पार्टी के युवा और सांस्कृतिक संगठनों में विलय कर ले।
अस्वस्थता के बावजूद जेपी जनता पार्टी को बचाने का प्रयास करते रहे। इस बीच, वह चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मोरारजी देसाई जैसे नेताओं को चिट्ठियां लिखते रहे, लेकिन मतभेद इतने गहरे हो चुके थे कि देसाई सरकार का पतन हो गया। देसाई सरकार के गिरने के बाद चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के समर्थन से 28 जुलाई, 1979 को देश के पांचवे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
मगर महज तेईस दिनों के बाद नाटकीय घटनाक्रम में कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से 20 अगस्त, 1979 को चरण सिंह की सरकार गिर गई। उस समय तक वह बहुमत भी साबित नहीं कर सके थे। और इस तरह जनता पार्टी के नाम पर किया गया प्रयोग विफल हो गया। देश एक बार फिर इंदिरा की ओर देख रहा था…।