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सरोकार

आपातकाल – कल और आज

सुभाषिनी अली
Last updated: June 25, 2025 8:30 pm
सुभाषिनी अली
Byसुभाषिनी अली
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पचास साल पहले 26 जून के दिन, आपातकाल की घोषणा की गई थी। बड़ी तेजी से माहौल बदलने लगा। लोग अपने आगे-पीछे देखने के बाद दबी जबान में बोलने लगे, देश में क्या हो रहा है, उसके बारे में पूछने लगे। पता चला कि विपक्ष के तमाम नेताओं को जेल भेज दिया गया है। बहुत सारे गुमनाम लोग भी पकड़े गए हैं। उनको यंत्रणाएं भी दी गई हैं। पता नहीं उनको कहां बंद कर दिया गया है। थे तो वह गुमनाम ही, अदृश्य और लापता भी हो गए।

सुभाषिनी अली, पूर्व सदस्य पोलित ब्यूरो, सीपीआई (एम)

अलग तरह के अखबार छपने लगे। पहला पन्ना खाली। अग्रलेख की जगह खाली। फिर उसके बाद, कोई पन्ना खाली नहीं, सब झूठ से भरे हुए, सरकारी दावों से ओत-प्रोत। जहां संभव था, बीबीसी बजने लगा, उसी की बात को लोग परम सत्य मानने लगे।
एक शोर-गुल वाला देश अचानक खामोश हो गया।

कुछ महीनों तक खामोशी रही, फिर इधर-उधर से आवाजें आने लगीं। पर्चे भी बंटने लगे। कमरों के अंदर, चर्चाएं होने लगीं। जहां लोग इकठ्ठा होते थे शादियों में, श्मशान घाटों पर, जन्मदिन के समारोहों मे फुसफुसाहट होने लगी। विरोध के स्वर सुने जाने लगे। जेलों से आने वाली खबरें लोगों को विचलित करने लगीं। कारखानों में, गाँवों में काम करने वालों पर हमलों और उनके खिलाफ होने वाले विरोध के समाचार भी आने लगे। सारे अधिकार छिन गए और ट्रेनें भी समय से नहीं चलीं! यह बेईमानी का सौदा लोगो को रास न आया।

फिर डरावने अभियानों के समाचार मिलने लगे- नसबंदी और गरीबों के जबरन पुनर्वास के अभियानों के दौरान गोलियां चलीं। बड़े पैमाने पर गरीबों और गरीब अल्पसंख्यकों को इन गोलियों का निशाना बनाया गया। आक्रोश फूटने लगा। पैसे वालों के बंगलों से नहीं, गरीबों की झोंपड़ियों से, मध्यम वर्गीय लोगों के छोटे मकानों और कालोनियों से।

एक तरफ, बंगले वालों का चारों तरफ सुनाई दे रहा समर्थन – कितनी शान्ति है; रोज की हड़तालें, जुलूस और नारेबाजी सब बंद हो गईं; पेड़ों की संख्या बढ़ रही है और बच्चों की घट रही है, पेड़ युक्लिप्टस के लग रहे हैं, तो क्या हुआ? गरीबों और पेशेवर विरोध करने वालों का मुंह बंद होने से बंगलों में सुकून कितना बढ़ गया है! और दूसरी ओर, डर के घेरे में ढकी बस्तियां और कॉलोनियां, जिनके बाशिंदे फुसफुसा ही सकते थे, उनकी खामोशी। इन दोनों सच्चाइयों ने आपातकाल लागू करने वाली इंदिरा गांधी में, जिन्हें वैसे भी अपनी जनप्रियता पर बहुत विश्वास था, चुनाव की घोषणा करने का हौसला पैदा किया और 1977 के चमत्कारी चुनाव हुए।

कुछ बातें याद करनी ज़रूरी हैं। चुनाव में आपातकाल के लिए जिम्मेदार लोगों की जबरदस्त हार के लिए जिम्मेदार तो शहरों और गांवों की झोपड़ियों में रहने वाले लोग ही थे, जिन्होंने अच्छी तरह समझ लिया था कि जिनके पास जीवन और थोड़े से सम्मान के अलावा कुछ नहीं उनको संविधान और बुनियादी अधिकारों को कुछ हद तक सुरक्षित रखना सबसे अधिक ज़रूरी है वरना यह भी उनसे छिन जाएगा।

एक बुरे सपने की तरह उस आपातकाल की याद समय के साथ धुंधली हो गई। लगने लगा की अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा। यह बड़ा भ्रम था। सच तो यह है कि शासक-शोषक वर्ग प्रजातंत्र के प्रति कटिबद्ध नहीं होते। वह उसे राज करने का अपना हथियार ही मानते हैं। अगर उनके किसी प्रतिनिधि को प्रजातंत्र से ही खतरा महसूस होने लगता है, तो समूची प्रजातांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस करने में उन्हें देर नहीं लगती। 1975 में हमें यह सबक सीख लेना चाहिए था।

अब एक नए आपातकाल को झेलना पड़ रहा है। 11 साल झेलना पड़ रहा है। इसके अंत की घोषणा इसको लागू करने वाले भी नहीं करने वाले हैं। इसको समाप्त करने का काम समूची जनता को करना होगा। उन तमाम लोगों को करना होगा जो एक समानता और न्याय पर आधारित देश में जीने का सपना देखते हैं।

जिस आपातकाल का हम आज अनुभव कर रहे हैं, वह केवल एक शासक की कुर्सी को बचाने के लिए नहीं, बल्कि देश की संवैधानिक प्रणाली को ही पूरी तरह से ढहाकर उसके स्थान में एक रूढ़िवादी, मनुवादी और कठोर पूंजीवादी-सामंती समाज-व्यवस्था स्थापित करने के लिए लागू की गई है।
यह चोरी-छिपे नहीं डंके की चोट पर किया जा रहा है।

आज के शासकों के राजनैतिक पूर्वजों ने 1949 में ही घोषणा की थी की वह संसद में पारित संविधान को नहीं मानते और अपने इरादों को स्पष्ट करने लिए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और बाबासाहब आंबेडकर के पुतले, गालियों की बौछार के मध्य, रामलीला मैदान में जलाने का काम किया था। संविधान की जगह वे मनुस्मृति के आधार पर समाज की रचना करना चाहते हैं, धर्मनिरपेक्ष भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, समानता के मूल सिद्धांत को त्यागकर, वर्ण-व्यवस्था का पालन कडाई और कठोरता से करना चाहे हैं – अपने इन तमाम लक्ष्यों को उन्होंने उसी समय स्पष्ट कर दिया था।

1949 से 2014 तक राजनीति में बहुत से उतार-चढ़ाव आए। आरएसएसए और हिन्दू महासभा ने एक विशाल और लगातार बढ़ रहे संघ परिवार को जन्म दिया। उसका एक अंग, जनसंघ गिरगिट की तरह रंग और रूप बदलता रहा और 1980 के बाद भारतीय जनता पार्टी के रूप में प्रकट हुआ। लेकिन उद्देश्य और एजेंडा नही बदला। 2014 में इस उद्देश्य, इस एजेंडे को लागू करने का मौका मिला।
संसद के द्वार पर नए प्रधानमंत्री ने साष्टांग किया और उसी संसद को कुछ ही वर्षो में खाली कमरों की उपेक्षित इमारत में बदल दिया।

नई संसद का उद्घाटन साधु-महात्माओं के जमावड़े और सामंतकाल के प्रतीक,सेंगोल, के साथ किया गया। डॉ आंबेडकर को भगवान के अवतार के रूप में स्थापित करने के प्रयास के साथ-साथ, हर गांव में अपने समर्थकों से उनकी मूर्तियों को खंडित करवाया गया। संविधान की तुलना पवित्र-पुस्तकों के साथ करते हुए, उसे खोखला बनाने का पूरा प्रयास किया गया।

संविधान की आधारशिला धर्मनिरपेक्षता और समानता पर टिकी हुई है। इन दोनों पर 11 वर्षो से लगातार प्रहार किया जा रहा है। पांच अगस्त, 2020 को जब उन्हीं के परिवारजन द्वारा बाबासाहब के निर्वाण दिवस, छह दिसंबर, 1992 को तोड़ी गई मस्जिद पर संघ परिवार के नेताओं ने राम मंदिर का शिलान्यास किया, तो इसे ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना के पहले कदम के रूप में देखा गया। पुरोहित के स्थान पर प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री उपस्थित थे और विशेष आमंत्रित के रूप में सरसंघचालक, मोहन भगवत। भागवत ने अपने सक्षिप्त भाषण में मनुस्मृति के एक श्लोक का ही उच्चारण किया:

एतद् देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ २० ॥
(इस देश में पैदा द्विज (ब्राह्मण) से ही दुनिया भर के लोगों को अपने अपने कर्तव्यों के बारे में सीखना चाहिए।)

आज के इस आपातकाल के लक्ष्य को समझकर ही इसका विरोध और फिर इसका अंत संभव है। इसका लक्ष्य एक ऐसे समाज की स्थापना है, जिसमें नागरिकों का बड़ा बहुमत असमानता का शिकार होगा और अपने अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा। कुछ लोगों को भ्रम है कि ऐसा केवल अल्पसंख्यकों के साथ होगा। उनको यह समझना चाहिए की अल्पसंख्यको के साथ वे तमाम समुदाय जिन्हें मनुस्मृति श्रेणीगत रूप से अधिकार-विहीन करती हैं, सब घोर असमानता के शिकार बनाए जाएंगे। महिलाओं के किसी प्रकार के अधिकार होंगे ही नहीं। उनको पूरी तरह से नियंत्रित रखना, वर्णाश्रमधर्म को मजबूती के साथ बनाए रखने के लिए आवश्यक है, क्योंकि उन्हें अपने मन से शादी करने से रोक कर ही ऐसा किया जा सकता है।

दलितों और आदिवासियों को भी इसी तरह से अधिकार-विहीन बना दिया जाएगा। जिस तरह से महिलाओं के खिलाफ हिंसा और उन पर अत्याचार करने वालों का बचाव इस सरकार के चलते हो रहा है; जिस तरह से भाजपा-शासित राज्यों में दलित-उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं, इस बात को प्रमाणित करती हैं। श्रम करने वालों के अधिकार जिस तरह से समाप्त किए जा रहे हैं, चाहे वे मजदूर हों या किसान, यह भी मनुवादी समाज व्यवस्था के लक्षण हैं। ऊंची जातियों के वर्चस्व के साथ, संघ परिवार के मनुवादी राष्ट्र में साधनों के मालिकों के विशेष अधिकार होंगे।

इस पूरी व्यवस्था को संभव बनाने के लिए, बहुसंख्यक समाज का अपने ही हितों के विपरीत, भाजपा के पीछे एक होना आवश्यक है। इसी को संभव करने के लिए साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल किया जाता है। हर मौके और हर घटना का साम्प्रदायिकीकरण करके ही भाजपा उस ‘हिन्दू एकता’ का निर्माण करने का प्रयास कर रही है, जिसका परिणाम हिन्दुओं के बड़े बहुमत के लिए नाशकारी होगा।
पूंजीपतियों, सामंतों, धनाड्य लोगों को भाजपा के इस आपातकाल में जबरदस्त फायदा हुआ है। खरबपतियों की संख्या बहुत बढ़ी है, इसलिए वे इस मनुवादी योजना के लक्ष्य के प्रति बहुत ही समर्पित हैं। उनके धन, उनके साधन, उनकी मिलकियत का पूरा मीडिया सब इस लक्ष्य की पूर्ति में लगा हुआ है।

यही कारण है कि आज के इस आपातकाल का अंत इसको लागू करने वाले किसी पक्ष की ओर से नहीं होगा। जिनके लिए संविधान तैयार किया गया था, जिनके लिए समानता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत विकास के पर्यायवाचक हैं, उनको सबको इसके खिलाफ तब तक लड़ना होगा, जब तक इसका अंत नहीं हो जाता है।

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