पटना। नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक सबसे गरीब राज्य बिहार के युवा रोजगार के लिए देश के सभी क्षेत्रों में जाने को मजबूर हैं। अधिकांश बिहारी मजदूरी के लिए बिहार से बाहर जाते हैं। लेकिन आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि इस चुनावी मौसम में देश के कोने-कोने से युवा काम करने के लिए बिहार आ रहे हैं। देश की तमाम पीआर एजेंसियां बिहार के नेताओं को काम के लिए लुभा रही हैं। ये युवा इन्हीं पीआर एजेेंसियों से जुड़े हुए हैं। ये एजेंसियां सोशल मीडिया और वेब पोर्टल के माध्यम से नेताओं को विधायक और मंत्री बनने का सपना दिखा रही हैं।
बिहार में सोशल मीडिया और वेब मीडिया पोर्टल के जरिये चुनावी अभियान में जुटना यहां के नेताओं की मजबूरी भी है। और यह बिहार के लिए शर्मनाक स्थिति भी है, इसलिए क्योंकि बिहार जैसे गरीब राज्य में 45 फीसदी लोगों के पास मोबाइल नहीं हैं। लेकिन नेताओं की मजबूरी यह है कि बिहार देश की सबसे युवा आबादी वाला राज्य है, जो सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती है। शायद यही वजह रही कि आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार में नेता से ज्यादा यूट्यूबर, वेब पोर्टल पत्रकार और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर प्रचार का बड़ा माध्यम बन गए।

कॉरपोरेट कल्चर चुनावी अभियान का उदाहरण जनसुराज
राज्य के छोटे से छोटे गांव में पचास हजार से लाख रुपया सैलरी ले रहा युवा बिहार के लोगों को जनसुराज पार्टी से जोड़ने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। पार्टी के विचारों से जोड़ना उस युवक का ख्वाब नहीं, बल्कि काम है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी बिहार में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ेगी।
बिहार जैसे पिछड़े और गरीब राज्य में प्रशांत किशोर का राजनीतिक मॉडल कितना सफल है? इस सवाल के जवाब में प्रोफेसर शशि झा बताते हैं कि, “जनसुराज की विचारधारा से किसी को समस्या नहीं हो सकती है। वह बिहार जैसे पिछड़े राज्य को विकसित राज्य बनाने की राजनीति करने की कोशिश कर रही है। इससे पहले जिस भी पार्टी का उदय हुआ है, वह क्रांति और कार्यकर्ता से शुरू हुई है। जनसुराज में कार्यकर्ता से ज्यादा पेड स्टाफ काम कर रहे हैं। जनसुराज का यह राजनीतिक मॉडल सक्सेसफुल रहा तो कॉर्पोरेट के लिए यह एक मॉडल के रूप में स्थापित हो जाएगा।”
एक नेशनल पार्टी के लिए काम कर रहे अनुपम कुमार (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि, “बिहार में सिर्फ जनसुराज नहीं, बल्कि भाजपा, राजद, जदयू और कांग्रेस पार्टी भी चुनावी अभियान में पीआर और सोशल मीडिया के जरिये राजनीति कर रही है। फेक न्यूज़ चरम पर है। अपनी छवि बेहतर और विपक्षी पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए पार्टियां रुपया फेंक रही हैं।”
गांव में भी फेक न्यूज़ का चुनावी असर
सोशल मीडिया पर वायरल खबर और वीडियो अतीत में बिहार के चुनाव पर असर डाल चुके हैं। जैसे 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव के राजपूत जाति के विरोध में दिए गया कथित बयान हो या 2015 के विधानसभा चुनाव में संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण संबंधी कथित बयान, राजद और भाजपा को नुकसान पहुंच चुकी है।
वेब पोर्टल पत्रकार धीरज बताते हैं कि, “बिहार में चुनावी अभियान के दौरान कार्यकर्ता के द्वारा विपक्षी पार्टी का वायरल वीडियो गांव के लोगों को दिखाया जाता है। जिनके पास मोबाइल नहीं है। वो भी चुनावी माहौल में फेक न्यूज़ से प्रभावित हो जाते हैं।”
जानिए सोशल मीडिया के पूरे व्यापार की कहानी
पूरे देश में ही सोशल मीडिया और वेब मीडिया चुनाव का एक मुख्य साधन बन चुका है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी तमाम राजनीतिक दलों ने मतदाताओं को रिझाने के लिए बड़ी संख्या में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर और यूट्यूबर्स का सहारा लिया था और बिहार इसमें काफी आगे नजर आया है।
राज्य में चुनाव प्रचार और रैलियों का दौर भले ही अभी शुरू नहीं हुआ, लेकिन फिलहाल सोशल मीडिया बिहार चुनाव का कुरुक्षेत्र बना हुआ है। एक से एक कार्टून बनाए जा रहे हैं, नई-नई शब्दावली गढ़ी जा रही है और फेक न्यूज़ के माध्यम से चुनावी वार किया जा रहा है। अपने विरोधियों के लिए नए-नए विशेषण ढूंढे जा रहे हैं।
बकायदा इसके लिए पूरी टीम हायर की गई हैं। शब्दावली गढ़ने के लिए ज्ञानीजन और सोशल मीडिया एक्सपर्ट लगाए गए हैं। नई तकनीक पर आधारित वर्चुअल दुनिया के सियासी कुरुक्षेत्र में लड़ाई अभी से छिड़ चुकी है।
एक नेशनल पार्टी के लिए काम कर रहे अनुपम कुमार (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि, “बिहार के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रों में छोटे से छोटे नेता चुनाव के मद्देनजर सोशल मीडिया के लिए अपनी टीम बनाए हुए है। अधिकांश राजनीतिक दल के बड़े और समृद्ध नेता की अपनी सोशल मीडिया टीम है। जिसमें एक कंटेंट राइटर, ग्राफिक डिजाइनर, वीडियो एडिटर और कैमरामैन के अलावा कुछ और लोग रहते हैं। आप मान कर चलिए कम से कम चुनाव तक लगभग 5-6 महीने 2-3 लाख रुपये से 7-8 लख रुपए तक यह लोग खर्च करते हैं।”
जनसुराज और नेशन विद नमो जैसी पीआर एजेंसी में काम कर चुके सक्षम बताते हैं कि, “सोशल मीडिया राजनेताओं को लोकप्रिय बनाने और अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने का साधन बन गया है। सोशल मीडिया पर विज्ञापन के लिए बहुत अधिक खर्च की आवश्यकता होती है। केवल संपन्न दल ही इतना खर्च कर सकते हैं और वे अधिकांश मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं। सिर्फ सोशल मीडिया के अलावा पीआर एजेंसी नेताओं को किस मुद्दे पर क्या बयान देना है, वह भी बताती है। सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से सांप्रदायिकता और जातिवाद जैसे संवेदनशील मुद्दों पर जानबूझकर पोस्ट करने के लिए कहा जाता है।”
बिहार के रहने वाले केशव सिंह के इंस्टाग्राम चैनल के 10 लाख और अभिषेक सिंह के दो लाख फॉलोअर्स हैं। अभिषेक और केशव के पास भी कई राजनीतिक दल प्रचार की मंशा से पहुंचे थे। केशव इस पर कहते हैं कि, “कई राजनीतिक पार्टियां लोकसभा चुनाव में चुनावी प्रचार प्रसार के लिए अच्छी-खासी रकम का ऑफर दे चुकी हैं। ऐसे ऑफर यूट्युबर्स और इनफ्लुएंसर को भी मिलते हैं।
पत्रकारिता के नाम पर चुनावी प्रचार
उर्वाचंल दस्तक नाम से यूट्यूब चैनल चलाने वाले सहरसा के धीरज बताते हैं कि,” लोकसभा चुनाव के वक्त लगभग दो महीने पहले राजनीतिक प्रचार के लिए एक अनजाने नंबर से मुझे फोन आया था। उन्होंने मुझे यूपीए के समर्थन में पब्लिक बाइट बनाने के लिए कहा। सीमांचल और कोसी क्षेत्र में एक महीने में 70 वीडियो बनाने के लिए लगभग 90,000 रुपए की पेशकश की थी। लेकिन मैंने इससे ज्यादा की डिमांड की, तो बात नहीं बन पाई।” अभी बिहार में धीरज जैसे कई पत्रकार सोशल मीडिया के जरिये न्यूज वेबसाइट के नाम पर विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए प्रचार प्रसार का काम कर रहे हैं।
पटना के वरिष्ठ पत्रकार मनोज पाठक बताते हैं कि, “ बिहार के बड़े से बड़े वेब पोर्टल की भाषा से आपको पता चल जाएगा कि यह चुनाव प्रचार कर रहे हैं ना की पत्रकारिता। कई पत्रकारों को तो लग रहा है सिर्फ सोशल मीडिया के माध्यम से चुनाव जीत जाएंगे।”
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक विधानसभा चुनाव को केंद्र में रख सत्ताधारी पार्टी जदयू ने प्रखंडों तक इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म को विस्तारित करने की योजना बनाई है। हर प्रखंड के लिए फेसबुक पेज और व्हाट्सएप ग्रुप बनाए जा रहे हैं, जहां नीतीश सरकार की योजनाओं और पार्टी गतिविधियों की जानकारी दी जाएगी। महिलाओं और युवाओं के लिए किए गए कार्यों पर विशेष ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
‘पॉलिटिकल मित्र’ नाम की पॉलिटिकल कंसल्टेंसी के संस्थापक मुकुंद ठाकुर कहते हैं कि, “2014 से पहले देश की अधिकांश पार्टियां अपनी कार्यकर्ता के भरोसे चुनाव लड़ती थी। हालांकि अभी स्थिति बदल चुकी है। अभी पॉलीटिकल कंसल्टेंसी के जरिये सारे काम कराए जाते है, चाहे, इलाकों में सर्वे कराना हो, जनता से जुड़ने के लिए कार्यक्रम बनाना हो या नारे गढ़ना हो या फिर सोशल मीडिया से जुड़ना हो। कई बड़े नेता क्षेत्रीय स्तर पर अपनी न्यूज वेबसाइट चलाते हैं, जो इनडायरेक्टली उनका प्रचार करती हैं। बिहार में यह सबसे ज्यादा होता है।”
:: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ::