
स्वतंत्र टिप्पणीकार
सितंबर 1962 में गर्मी का ताप उतार पर था जब नेफ़ा यानी नार्थ ईस्ट फ़्रंटियर एजेंसी (अरुणाचल प्रदेश) में चीनी घुसपैठ की ख़बरें आने लगी थीं। अक्टूबर आते-आते ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे से बने विश्वास की पीठ पर छुरा घोंपते हुए चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। भारत को आज़ाद हुए महज़ पंद्रह साल हुए थे और आज़ादी के आंदोलन में महानायक बन कर उभरे पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में आत्मनिर्भरता के लिए अथक प्रयास कर रहा भारत युद्ध के लिए तैयार नहीं था।
चीन से लड़ाई 20 अक्टूबर को शुरू हुई थी। 26 अक्टूबर को राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा हो गयी।पंचशील शांतिवादी नीतियों के लिए नेहरू को आलोचना का सामना करना पड़ रहा था। जनसंघ ने नेहरू सरकार पर युद्ध के लिए अपर्याप्त सैन्य तैयारियों और कथित रूप से कमजोर विदेश नीति के लिए आलोचना की औरविरोध प्रदर्शन भी आयोजित किए। ऐसे ही एक प्रदर्शन का नेतृत्व जनसंघ के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया जो संसद मार्ग पर हुआ था।
वाजपेयी तब 36 साल के थे और पहली बार राज्यसभा में पहुँचे थे। 26 अक्टूबर को वाजपेयी ने जनसंघ संसदीय दल के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ अपनी उम्र से ठीक दूनी उम्र के प्रधानमंत्री पं.नेहरू से मुलाकात की और संसद का विशेष सत्र बुलाने की माँग रखी। जनसंघ उस समय संसद में बेहद छोटी पार्टी थी जबकि कांग्रेस के पास दो तिहाई बहुमत था।लेकिन नेहरू हृदय की गहराइयों से लोकतांत्रिक थे। उन्होंने सत्र बुलाने की माँग मान ली।
युद्ध चल रहा था। संसद में विपक्ष की ओर से आलोचना के तीर चलने की पूरी आशंका थी, ऐसे में नेहरू के इस रुख़ का उनकी पार्टी में ही कुछ लोगों ने विरोध किया। एक कांग्रेसी सांसद का प्रस्ताव था कि ‘गुप्त’ सत्र बुलाया जाए जिसकी अख़बारों में ख़बर न छपे और न रिकॉर्ड रखा जाये। नेहरू ने इस प्रस्ताव का ख़ारिज करते हुए कहा- “यह मुद्दा देश के लिए महत्वपूर्ण है, इसे जनता से नहीं छिपाया जा सकता।”
8 नवंबर 1962 को युद्ध के बीच नेहरू सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाया। यह सत्र राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा और युद्ध की स्थिति पर चर्चा के लिए बुलाया गया था। इस सत्र में सात दिन तक चर्चा हुई, जिसमें 165 सांसदों ने भाग लिया। पहले दिन नेहरू ने लोकसभा में दो प्रस्ताव पेश किए: पहला, राष्ट्रीय आपातकाल की स्वीकृति के लिए, और दूसरा, चीन की आक्रामकता की निंदा के लिए। दोनों प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुए।
नेहरू ने स्वीकार किया कि भारत “शायद पूरी तरह तैयार नहीं था,” लेकिन उन्होंने इसे अपनी शांति की भावना का परिणाम बताया। उन्होंने कहा, “मुझे इसकी कोई खेद नहीं है। मुझे लगता है कि यह एक सही भावना थी।” भारतीय सैनिकों के निहत्थे और नंगे पांव लड़ने की अफवाहों का खंडन करते हुए, नेहरू ने कहा, “यह असाधारण है। उनके पास ऊनी वर्दी, अच्छे जूते, तीन कंबल—बाद में चार—और पूर्ण शीतकालीन वस्त्र थे।”
उधर राज्यसभा में भी बहस जारी थी। दूसरे दिन यानी 9 नवंबर को अटल बिहारी वाजपेयी को मौक़ा मिला। अपने भाषण में वाजपेयी ने सैनिकों के पास हथियारों की कमी को ‘शर्मनाक’ और नेहरू की चीन नीति को ‘महापाप’ बताया। वाजपेयी ने पूरी तैयारी से नेहरू सरकार पर तीखे हमले बोले। उन्होंने कहा-
“हमें यह भी स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा की उपेक्षा करके हमने राष्ट्र के प्र एक महान अपराध किया है। अपनी सीमाओं को असुरक्षित छोड़कर हम एक महान पाप के भागी बने हैं और हमें उस पाप का प्रायश्चित करने के लिए तैयार होना चाहिए।”
“क्या यह लज्जा की बात नहीं है कि स्वाधीनता के पंद्रह वर्षों के बाद भी हम छोटे-मोटे हथियारों के लिए विदेशों का मुँह ताकें। क्या हम देश में ऑटोमेटिक राइफल्स नहीं बना सकते थे? क्या हम अपने जवानों को पहनने के लिए पूरे कपड़े नहीं दे सकते थे?”
“उन जवानों की वीरता की गाथा गाना ही पर्याप्त नहीं है। उनके आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ ही काफ़ी नहीं हैं। हमारे जवान हरदम मौत से खेलते रहे हैं, जान हथेली पर रखकर लड़ते रहे हैं। केवल जवानों की वीरता हल्दीघाटी के मैदान में हमारी पराजय नहीं रोक सकी, केवल जवानों का बलिदान पानीपत के मैदानों के इतिहास की कालिमा नहीं बदल सका। उन जवानों के लिए जो सीमा पर अपना रक्त देकर हमारी रक्षा कर रहे हैं, हम श्रद्धा से नत हो जाते हैं। मगर हम इन जवानों को पूरी तरह से तैयार नहीं कर सके, इसके लिए भी हमार मस्तक भी लज्जा से झुक जाना चाहिए।”
“हम नेफ़ा में पूरी तरह तैयार नहीं थे, क्या यह हमारे प्रधानमंत्री जी को पता था? अगर यह पता था तो विदेशयात्रा से वापस आने के बाद उन्होंने हवाई छज्जे पर यह क्यों नहीं कहा कि हमारी सेना को चीनियों को देश की भूमि से बाहर खदेड़ने का आदेश दे दिया है? अगर यह कहा जाये कि उन्हें पता नहीं थातो फिर इस प्रश्न का उत्तर देना होगा उनको इस बारे में किसने अँधेरे में रखा। हम यह भी जानना चाहेंगे कि हमारे नेता इस संकटकाल में फिर से अंधेरे में न रखे जायें, इसके लिए कौन-कौन से व्यक्ति बदल दिये गये हैं। क्या-क्या व्यवस्था बदली गयी है?”
ज़ाहिर है, वाजपेयी की भाषा बहुत तीखी थी। अन्य कई विपक्षी सांसदों ने भी शब्दबाणों से नेहरू को घायल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नेहरू ने सबको धैर्य से सुना और विस्तार से जवाब दिया। युद्ध के बीच सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए विपक्षी की देशभक्ति पर संदेह नहीं जताया। नेहरू संसद के अंदर और बाहर दोनों मोर्चा सँभाले हुए थे। 19 नवंबर को उन्होंने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में सेना की हानि की जानकारी दी, जिसमें रेजांग ला, चुशूल घाटी का उल्लेख था। उन्होंने कहा, “लड़ाई अभी भी जारी है। यह बुरी खबर है। मैं इस स्तर पर और विवरण नहीं दे सकता। हम किसी भी तरह से हार नहीं मानेंगे और दुश्मन से तब तक लड़ेंगे जब तक उसे खदेड़ नहीं दिया जाता।”
21 नवंबर को, जब चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की, नेहरू ने संसद को सूचित किया और कहा, “8 सितंबर 1962 से पहले की स्थिति बहाल होनी चाहिए।”
विपक्ष ने कमज़ोर नज़र आ रहे नेहरू पर एक और हमला किया। युद्ध विराम के कुछ समय बाद अगस्त 1963 में लोकसभा में भारत का पहला अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। आचार्य जे.बी. कृपलानी की ओर से नेहरू सरकार के ख़िलाफ़ पेश किये गया यह प्रस्ताव 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की हार के बाद सरकार की कथित विफलताओं के संदर्भ में लाया गया था।चार दिन और 20 घंटे से अधिक की बहस के बाद, प्रस्ताव गिर गया। केवल 62 सांसदों ने इसके पक्ष में मतदान किया, जबकि 347 ने विरोध में मत दिया था।