स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में 1972 में आयोजित पहला संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन (5-14 जून) एक ऐतिहासिक घटना थी। आज 2025 तक इस सम्मेलन को 53 वर्ष बीत चुके हैं। यह सम्मेलन पर्यावरण संरक्षण के लिए वैश्विक जागरूकता का प्रारंभ बिंदु था। उस सम्मेलन में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का भाषण ऐतिहासिक था।
उन्होंने अपने भाषण में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने गरीबी और पर्यावरणीय क्षरण के बीच संबंध को रेखांकित किया, यह कहते हुए कि “गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक है।” उन्होंने विकासशील देशों में संसाधनों की कमी, औद्योगीकरण के दुष्प्रभाव और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग की चिंता उठाई। उन्होंने तक जो कहा था वह आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच तालमेल अभी भी एक चुनौती है।
स्टॉकहोम सम्मेलन ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की स्थापना की, जिसने वैश्विक पर्यावरण नीतियों को आकार दिया। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण पर कई अंतरराष्ट्रीय समझौते हुए, जैसे पेरिस समझौता (2015)। नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग बढ़ा और कई देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कदम उठाए। भारत में वन संरक्षण अधिनियम (1980), स्वच्छ भारत अभियान और नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर जैसे कदम उठाए गए।
World Environment Day पर द लेंस आपके लिए लेकर आया है उस सम्मेलन के भाषण का अंश, जो इंदिरा गांधी ने दिया था।
सम्राट अशोक को किया याद
पहले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने कहा, इस सम्मेलन का उद्देश्य केवल कुछ समझौतों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका मकसद दुनिया की सभी नस्लों और प्रकृति के बीच शांति और सामंजस्य स्थापित करना है। पूरे भारत में, चट्टानों और लोहे के खंभों पर खुदे हुए शिलालेख इसकी याद दिलाते हैं कि 22 सदी पहले सम्राट अशोक ने एक राजा के कर्तव्य को केवल नागरिकों की रक्षा करने और गलत काम करने वालों को दंडित करने के लिए ही नहीं, बल्कि पशुओं के जीवन और वन-वृक्षों को संरक्षित करने के रूप में भी परिभाषित किया था।
कुछ समय पहले तक अशोक पहले और शायद एकमात्र सम्राट थे, जिन्होंने खेल या भोजन के लिए बड़ी संख्या में जानवरों की प्रजातियों को मारने से मना किया था। उनका यह विचार, इस सम्मेलन की कुछ चिंताओं को दर्शाता है। अशोक यहीं नहीं रुके, वह इससे भी आगे बढ़े और उन्होंने अपनी सैन्य-विजय के नरसंहार पर पछतावा करते हुए और अपने उत्तराधिकारियों को ‘नेकी के माध्यम से आने वाली शांति में उनका एकमात्र आनंद’ ढूंढने का आदेश दिया।
विकसित देशों ने किया प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
पूर्व पीएम इंदिरा गांधी ने कहा कि, हम यहां संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले इकट्ठा हुए हैं। हमेशा अपेक्षा है कि हम सब एक ही परिवार के हैं, जिनके गुणों में समानता है और जिनकी बुनियादी आकांक्षाएं एक सी हैं, फिर भी हम एक बंटी हुई दुनिया में रहते हैं। इसे अन्यथा कैसे लिया जा सकता है? आज भी इंसानों की बराबरी की कोई मान्यता नहीं है या फिर निजी तौर पर किसी के सम्मान का कोई मूल्य नहीं है।
आज के तमाम विकसित देशों में से कई दूसरे देशों और नस्लों पर अपना प्रभुत्व जमाकर संपन्न हुए हैं, उन्होंने अपने प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया है। उन्होंने शुरुआत से ही एक तरह की क्रूरता का दामन थामा और, दया, स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों को ताक पर रखकर आगे बढ़ने का फैसला लिया। नागरिकों के राजनीतिक अधिकार हों या सबसे नीचे के आदमी के आर्थिक अधिकार, ये तब बहाल किए गए, जब ये देश काफी आधुनिक हो चुके थे। अमीरों और उपनिवेशी देशों के मजदूरों ने पश्चिम के औद्योगीकरण और उसकी संपन्नता में कोई छोटी भूमिका नहीं निभाई।
गरीबी और पर्यावरण के बीच बताया संबंध
एक तरफ तो अमीर लगातार हमारी गरीबी पर बात करते हैं, दूसरी ओर वे हमें अपने तरीकों से चेताते रहते हैं। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की हमारी कोई इच्छा नहीं है लेकिन फिर भी हम एक पल के लिए यह नहीं भूल सकते कि बड़ी तादाद में हमारे लोग गरीब हैं। क्या गरीबी और सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले लोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? उदाहरण के लिए, जब तक हम जंगलों में रहने वाले हमारे आदिवासी लोगों को रोजगार देने और कुछ खरीद पाने की स्थिति में नहीं ला पाते, तब तक हम उनसे, उनके खाने और आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर न रहने के लिए नहीं कह सकते। जब तक वे खुद भूखे हैं, तब तक हम उनसे जानवरों को बचाने का आग्रह कैसे कर सकते हैं? जो लोग गांवों और झुग्गियों में रहते हैं, उनसे हम समुद्रों, नदियों और हवा को बचाने के लिए कैसे कह सकते हैं जबकि इन प्राकृतिक स्रोतों के करीब रहने वालों की अपनी जिंदगी बदतर है। गरीबी की स्थितियों में सुधार के बिना पर्यावरण बेहतर नहीं हो सकता और विज्ञान और तकनीकी के बगैर गरीबी भी दूर नहीं की जा सकती है।
औद्योगीकरण के साथ पर्यावरण भी जरूरी
पूर्व पीएम ने भारत के एक आदिवासी इलाके की एक घटना को याद करते हुए कहा, “बड़े आदिवासी प्रमुखों की इस मुखर मांग को कि उनके रीति-रिवाजों को छोड़ दिया जाना चाहिए, एक प्रसिद्ध मानवविज्ञानी से समर्थन मिला था। इस चिंता में कि बहुसंख्यक आबादी, कहीं हमारे देश में कई जातीय, नस्लीय और सांस्कृतिक समूहों पर अपने को पूरी तरह लाद न दे, भारत सरकार ने मोटे तौर पर इस सलाह को स्वीकार कर लिया। मैं उन लोगों में से थी, जिन्होंने इसे पूरी तरह से मंजूरी दे दी थी। हालांकि, हमारे उत्तर-पूर्वी सीमांत के सुदूर हिस्से की यात्रा से मैं एक अलग दृष्टिकोण के संपर्क में आई- युवा तत्वों का विरोध जबकि बाकी देश आधुनिकीकरण के रास्ते पर था। तो उन्हें संग्रहालय के टुकड़ों के रूप में संरक्षित किया जा रहा था। क्या हम संपन्न राष्ट्रों से ऐसा नहीं कह सकते थे?”
समझाया पर्यावरण सुधार का मतलब
पूर्व पीएम इंदिरा गांधी ने कहा कि प्रदूषण कोई तकनीकी समस्या नहीं है। दोष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में नहीं है, बल्कि समकालीन दुनिया के मूल्यों के अर्थ में है जो दूसरों के अधिकारों की उपेक्षा करता है और व्यापक परिप्रेक्ष्य से बेखबर है।
इसे लेकर भी गंभीर आशंकाएं हैं कि पारिस्थितिकी पर चर्चा युद्ध और गरीबी की समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए तैयार की जा सकती है। हमें संपत्ति से वंचित दुनिया की बड़ी आबादी के सामने यह साबित करना होगा कि पारिस्थितिकी और संरक्षण उनके खिलाफ काम नहीं करेगा, बल्कि उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाएगा। उन्हें प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से रोकना, उन्हें ऊर्जा और ज्ञान के विशाल संसाधनों से वंचित करेगा। यह अब संभव नहीं है और यह स्वीकार्य नहीं होगा।
पर्यावरण में सुधार का पहला मतलब है-लोगों को खाना, पानी, रहने की जगह और शौचालय उपलब्ध कराना, रेगिस्तानों को हरा-भरा और पहाड़ों को रहने योग्य बनाना। सबसे जरूरी और बुनियादी सवाल शांति का है। आधुनिक युद्ध जितना व्यर्थ कुछ भी नहीं है। कुछ भी इतनी जल्दी और पूरी तरह नष्ट नहीं होता है, जितना शैतानी हथियार। ये न केवल जीवित लोगों को मारते हैं, उनको अपंग और विकृत करते हैं बल्कि उन्हें भी जो अभी पैदा होने वाले हैं। ये हथियार कुरूपता, बंजरता और निराशाजनक उजाड़ के लंबे निशान छोड़ते हुए जमीन को जहरीला बना देते हैं। कौन सी पारिस्थितिक परियोजनाएं हमें युद्ध से बचा सकती हैं?
जीवन एक है और दुनिया भी एक है और यह अब आपस में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। जनसंख्या विस्फोट, गरीबी, अज्ञानता और बीमारी, हमारे आसपास का प्रदूषण, परमाणु हथियारों का भंडार और विनाश के जैविक और रासायनिक एजेंट सभी एक दुष्चक्र के हिस्से हैं। ये सभी समस्याएं महत्वपूर्ण और तत्कालिक हैं लेकिन इनसे एक-एक करके निपटना बेकार की कोशिश होगी।
धरती से उतना ही लें, जितना लौटा सकें
पूर्व पीएम इंदिरा गांधी ने कहा था कि आधुनिक इंसान को प्रकृति और जीवन के साथ अटूट संबंध पुनर्स्थापित करना चाहिए। उसे फिर से बढ़ती चीजों की ऊर्जा का आह्वान करना और यह पहचानना सीखना चाहिए, जैसा कि सदियों पहले भारत में पूर्वजों ने किया था, कि कोई व्यक्ति पृथ्वी और वातावरण से उतना ही ले सकता है, जितना कि वह उसे वापस कर सकता है।
धरती के लिए अपनी स्तुति में, अथर्ववेद के ऋषियों ने जप किया था – जिसका मैं उद्धरण करती हूं – ‘तुझे खोद कर जो मैं निकालता हूं, उसे जल्दी से बढ़ने दो। मुझे तुम्हारे प्राणों, या तुम्हारे हृदय पर चोट न करने दो।’ तो क्या इंसान स्वयं प्राणवान और अच्छे हृदय वाला बनकर अपनी जिम्मेदारी के प्रति सचेत हो सकता है?