
एक सदी पहले, जब अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पेनीसिलिन की खोज की थी, तो दुनिया को पहली बार संक्रमणों पर विजय प्राप्त करने की उम्मीद मिली थी। आज, लगभग सौ साल बाद, हम उसी मोड़ पर खड़े हैं, जहां संक्रमण फिर से मानवता के लिए एक बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। इस बार कारण है: एंटीबायोटिक प्रतिरोध (Antibiotic Resistance)। अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1928 में दुनिया के पहले एंटीबायोटिक पेनीसीलिन की खोज की थी। साल 1927 में भारतीयों की जीवन प्रत्याशा 28 वर्ष की थी, यानि भारतीय औसतन इतने साल जीते थे। अब साल 2024 में यह तकरीबन 70 साल की है। इसमें एंटीबायोटिक की महत्वपूर्ण तथा हस्तक्षेपकारी भूमिका है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की रिपोर्ट्स और चिकित्सा जगत के अनुभवों से यह स्पष्ट है कि अब हमारे पास उपलब्ध सामान्य एंटीबायोटिक्स कई संक्रमणों के खिलाफ अप्रभावी होते जा रहे हैं। यह न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरा है, बल्कि यह हमारे स्वास्थ्य प्रणाली की नींव को भी हिला सकता है।
संकट की गंभीरता
एंटीबायोटिक प्रतिरोध (AMR – Antimicrobial Resistance) तब होता है, जब बैक्टीरिया समय के साथ दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं, जिससे वे संक्रमण का इलाज कठिन या असंभव बना देते हैं। भारत में यह संकट कई कारणों से तेजी से बढ़ रहा है: भारत के कई हिस्सों में एंटीबायोटिक दवायें मेडिकल स्टोर से बिना डॉक्टर की पर्ची के आसानी से मिल जाती हैं। देश में नीम हकीमों की भरमार है।
अर्ध-प्रशिक्षित या अप्रशिक्षित लोग जमकर इलाज करते हैं और अनुचित एंटीबायोटिक का प्रयोग करते हैं। मांस और दूध उत्पादन में वृद्धि के लिए जानवरों को एंटीबायोटिक दिया जाता है, जिससे प्रतिरोधी बैक्टीरिया पनपते हैं। गंदे पानी और वातावरण के कारण संक्रमण फैलते हैं, जिससे एंटीबायोटिक का अति प्रयोग होता है। दिल्ली AIIMS, मुंबई KEM, और कोलकाता मेडिकल कॉलेज जैसे बड़े संस्थानों ने बार-बार बताया है कि sepsis से मरने वाले ICU मरीजों में 50% से ज़्यादा को Resistant infections होते हैं।
बता दें कि AMR एक “साइलेंट किलर ” है, जो मृत्यु के पीछे का एक कारण होता है, लेकिन आधिकारिक मृत्यु प्रमाणपत्रों में सीधे दर्ज नहीं किया जाता। यह भी उतना ही सच है कि हर साल लाखों लोग ऐसे संक्रमणों से मर रहे हैं, जिन पर दवाएं असर नहीं करतीं। और अगर हम सचेत नहीं हुए, तो कल यही खतरा किसी भी आम या खास व्यक्ति के जीवन पर मंडरा सकता है।
ICMR की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार निम्न दवाओं की प्रभावशीलता घट गई हैः
- E. coli ( ई.कोली) जो मूत्र मार्ग में संक्रमण और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल संक्रमण का मुख्य कारण है, उसमें Cefotaxime (सेफोटाक्सिम) और Ciprofloxacin (साइप्रोप्लोक्सासिन) जैसी दवाओं की प्रभावशीलता 20% से भी कम रह गई है।
- Klebsiella pneumonia (क्लेब्सेला) में Piperacillin-tazobactam (पाइपरेसिलीन-टेजोबैक्टम) की प्रभावशीलता 2017 के 42.6% से घटकर 2023 में केवल 26.5% रह गई।
- Pseudomonas aeruginosa (श्यूडोमोनस एरुजिनोसा) , जो सर्जरी के बाद संक्रमण का कारण बनता है, उसमें Imipenem (इमिपेनम) के प्रति प्रतिरोध दर 38.5% हो गई है।
- Salmonella Typhi (साक्लोनेला टाइफी), जो टाइफाइड फैलाता है, अब fluoroquinolones (फ्लोरोक्वनोलोन्स) के प्रति 95% तक प्रतिरोधी हो चुका है।
ये आँकड़े डराने वाले हैं और इस बात की पुष्टि करते हैं कि अगर हमने अभी कदम नहीं उठाया, तो सामान्य संक्रमण भी जानलेवा साबित हो सकते हैं।
भारत में किए जा रहे अनुसंधान और नवाचार
भारत के वैज्ञानिक संस्थान इस चुनौती से निपटने के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं:
- राजीव गांधी सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी (RGCB), केरल के वैज्ञानिकों ने Klebsiella pneumonia (क्लेब्सेला न्यूमोनिया) में CymAKp नामक पोरीन प्रोटीन की खोज की है, जो एंटीबायोटिक को बैक्टीरिया के भीतर प्रवेश करने में मदद करता है. यह खोज नई दवाओं के विकास के लिए उपयोगी हो सकती है।
- नवीन एंटीबायोटिक नाफिथ्रोमाइसिन (Nafithromycin) का विकास. यह वॉकहार्ट द्वारा विकसित macrolide antibiotic है जो ड्रग-रेसिस्टेंट निमोनिया के इलाज में अत्यधिक प्रभावी है और केवल तीन खुराक में उपचार करता है।
- एनमेटाज़ोबैक्टम (Enmetazobactam): ऑर्किड फार्मा द्वारा विकसित यह दवा गंभीर मूत्र संक्रमणों के इलाज के लिए उपयोगी है।
- ज़ायनिच (Zaynich): Zidebactam और Cefepime का संयोजन, जो अत्यंत प्रभावी साबित हो रहा है।
- अलालेवोनाडिफ्लॉक्सासिन (Alalevonadifloxacin): MRSA संक्रमण के इलाज के लिए भारत में पहले से ही उपलब्ध एक प्रभावशाली fluoroquinolone एंटीबायोटिक है।
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से भारत की स्थिति
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने एंटीबायोटिक प्रतिरोध को वैश्विक स्वास्थ्य के लिए दस सबसे बड़े खतरों में शामिल किया है। एक अनुमान के अनुसार, यदि स्थिति यूं ही बनी रही, तो साल 2050 तक हर साल करीब एक करोड़ लोगों की मृत्यु सिर्फ ड्रग-रेसिस्टेंट संक्रमणों से हो सकती है। यह संख्या कैंसर से होने वाली मौतों से भी अधिक होगी। इस कारण, भारत, जो दुनिया में एंटीबायोटिक का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, इस खतरे का केंद्र बिंदु बन सकता है।
समाधान की दिशा में कदम
- नीतिगत हस्तक्षेपः एंटीबायोटिक की बिक्री को केवल पर्ची के आधार पर सीमित की जानी चाहिए। सरकार को निगरानी और नियंत्रण तंत्र मजबूत करना होगा।
- जन-जागरूकताः “एंटीबायोटिक नहीं, जब तक जरूरी नहीं” जैसे अभियान चलाने होंगे। आम जनता को बताया जाए कि अधूरा डोज लेने से प्रतिरोध बढ़ता है।
- स्वच्छता और जल आपूर्ति में सुधारः स्वच्छ भारत मिशन और जल जीवन मिशन जैसे कार्यक्रमों को स्वास्थ्य नीति से जोड़ना चाहिए। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में संक्रमण की रोकथाम के लिए स्वच्छता जरूरी है।
- पशुपालन में नियंत्रणः जानवरों को सिर्फ चिकित्सकीय जरूरत पर ही एंटीबायोटिक दी जाए। इसके लिए पशुचिकित्सकों की भूमिका अहम होनी चाहिए।
- नवाचार और अनुसंधान में निवेशः केंद्र और राज्य सरकारों को चिकित्सा अनुसंधान के लिए अधिक फंडिंग करनी चाहिए। फार्मा कंपनियों को रिसर्च टैक्स छूट जैसे प्रोत्साहन दिये जाने चाहिए।
व्यक्तिगत स्तर पर हम क्या कर सकते हैं?
- डॉक्टर द्वारा लिखे गए डोज को पूरा करें बावजूद इसके कि आप ठीक महसूस कर रहे हों।
- कभी भी बची हुई दवाएं पुनः प्रयोग में न लाएं।
- किसी और को अपनी एंटीबायोटिक न दें।
- केवल प्रशिक्षित डॉक्टर से ही इलाज कराएं।
समय रहते संभलें, वरना देर हो जाएगी
एंटीबायोटिक प्रतिरोध एक मूक महामारी बन चुका है, जिसकी आहट अभी धीमी है, पर परिणाम घातक हो सकते हैं. जिस तरह कोविड-19 ने दुनिया को झकझोर दिया, उसी तरह AMR भविष्य में और भी विनाशकारी साबित हो सकता है। हमें सामूहिक जिम्मेदारी लेनी होगी. नीतिगत बदलाव से लेकर व्यक्तिगत व्यवहार परिवर्तन तक. विज्ञान ने हमें दवाएं दीं, अब हमें विज्ञान के साथ विवेक और संवेदना भी दिखानी होगी। यदि अभी कदम नहीं उठाए गए, तो वह दिन दूर नहीं जब मामूली संक्रमण भी असाध्य हो जाएगा. और हम आधुनिक चिकित्सा के उस युग को खो देंगे जिसकी एक सदी पहले शुरुआत हुई थी।