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Home » निर्णायक अंत के सामने खड़े माओवादियों के जन्म की कथा !

सरोकार

निर्णायक अंत के सामने खड़े माओवादियों के जन्म की कथा !

Editorial Board
Last updated: July 1, 2025 3:44 pm
Editorial Board
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Maoist Movement in India
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 पंकज श्रीवास्तव
स्वतंत्र टिप्पणीकार

माओवादी आंदोलन का मतलब अगर बंदूक के दम पर भारतीय राज्य से मुकाबला करना है, तो छत्तीसगढ़ के जंगलों में उसके अंत की कथा लिखी जा चुकी है। केंद्र सरकार ने 2026 तक देश में ‘वामपंथी उग्रवाद’ को समाप्त करने का ऐलान किया था और सुरक्षाबलों के हालिया ऑपरेशन में सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नंबाल्ला केशव राव उर्फ बसवराजू का मारा जाना एक ऐसी सफलता है, जिसके बाद माओवादी शायद ही सर उठा सकें। सुरक्षा बलों ने छत्तीसगढ़ में भारी बढ़त लेते हुए माओवादियों की सैन्यशक्ति को लगभग खत्म कर दिया है।

आधुनिक चीन के निर्माता माओत्सेतुंग का कहना था कि ‘सत्ता बंदूक़ की नली से निकलती है।’  चीन की परिस्थितियों में उनका मूल्यांकन सही था और उनके नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1948 में सशस्त्र किसान गोलबंदी के दम पर सत्ता दखल कर भी लिया था। लेकिन उनके प्रयोग को भारत भूमि पर दोहराने का सपना देखने वाले माओवादियों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और उससे उपजे संविधान की ताकत को समझने में भूल की।

माओ के साथ तो देश की बड़ी आबादी खड़ी थी, जबकि भारत के माओवादी जंगल में छिपकर जब-तब बारूदी धमाके करके सुर्खियाँ बटोरते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाए। संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों में उन तमाम ‘आदर्शों’ को शामिल कर लिया गया था जिन्हें पाने के नाम पर माओवादी सशस्त्र संघर्ष का आह्वान करते रहे। जबकि जनता अहिंसक प्रयासों से इन आदर्शों को धीमी गति से ही सही, ज़मीन पर उतरता देख रही थी। ‘भोजन के अधिकार’ से बड़ा क्रांतिकारी कार्यक्रम क्या हो सकता है?

माओवादी कथा का संभावित उपसंहार भारत के वामपंथी आंदोलन के पुनरावलोकन का एक मौका भी है। ‘वामपंथ’ शब्द 1789 का फ़्रांस की क्रांति के दौरान राजा लुई सोलहवें द्वारा बुलाई गई ‘एस्टेट्स जनरल’ की बैठक से निकला हैं। मज़दूरों,किसानों और मध्यवर्ग के पक्ष में नीति बनाने की माँग करने वाले इस सभा में बायीं (वाम) ओर बैठे और सामंतों के विशेषाधिकार को बरक़रार रखने की इच्छा रखने वाले दाईं ओर। यहीं से वामपंथ और दक्षिणपंथ शब्द प्रचलन में आये।

समाजवाद और साम्यवाद इसी वामपंथ की ही छटाए हैं। ‘समाजवाद’ में उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण होता है जबकि ‘साम्यवाद’ एक ऐसी अवस्था है जिसमें राज्य का लोप हो जाएगा, जैसा की कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखने वाले दार्शनिक कार्ल मार्क्स का ख़्याल है। इसी ख़्याल ने दुनिया भर में मजदूरों-किसानों का राज क़ायम करने का सपना देखने वाले को ताकत दी।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों का दल एचएसआरए (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) भी इसी ख्याल का संगठन था। भगत सिंह भारत में वैसी ही बोल्शेविक क्रांति करना चाहते थे, जैसा कि लेनिन ने रूस में करके दिखाया था।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में हुआ था और अंग्रेजी राज में वह लंबे समय तक भूमिगत और प्रतिबंधित रही। 15 अगस्त 1947 की आजादी को उसने सरमायेदारों की आजादी बताते हुए ‘ये आजादी झूठी है’ का नारा दिया और मजदूरों-किसानों के राज के लिए सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया।

खासतौर पर तेलंगाना में सशस्त्र किसान आंदोलन की लहर उठाई गई, लेकिन जल्दी ही पार्टी को समझ आ गया कि यह रास्ता भारत के हिसाब से ठीक नहीं है। 1952 के चुनाव में शामिल होकर उसने कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी ताकत बनने में कामयाबी हासिल की और 1957 में तो कमाल ही कर दिया, जब ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में दुनिया की पहली चुनी हुई सरकार केरल में बनी।

आगे चलकर क्रांति की ‘लाइन’ को लेकर वाद-विवाद इतना बढ़ा कि 1964 में सीपीआई टूट गई। एक नए दल सी.पी.आई (एम) का जन्म हुआ। यहाँ ‘एम’ का मतलब ‘मार्क्सवादी’ था। जाहिर है, इस नई पार्टी में जो लोग सीपीआई छोड़कर आये वे मजदूरों-किसानों के बल पर ‘पूंजीवादी राजसत्ता’ को उखाड़ फेंकने का सपना देख रहे थे। इस नई पार्टी के नेताओं में उत्साह भी काफी था और जल्दी ही उन्हें एक प्रयोग का मौका मिल गया। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में सिलीगुड़ी के पास एक गांव है नक्सलबाड़ी। यहीं पर सीपीएम के कुछ उत्साही नेताओं के नेतृत्व में किसानों ने सशस्त्र संघर्ष किया। इसका नेतृत्व एक दुबले-पतले शख्स ने किया। नाम था चारू मजूमदार।

यह 1967 के बसंत की बात है। सीपीएम नेता चारू मजूमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी में किसान विद्रोह फूट पड़ा। यह एक स्थानीय जमींदार के शोषण के खिलाफ सशस्त्र कार्रवाई थी। ‘जमीन जोतने वाली की’- यह नारा पहले से लोकप्रिय था। पुलिस ने गोलीबारी की, जिसमें 11 लोग मारे गए। इनमें  दो बच्चे भी थे। जमींदार और एक दारोगा भी मारा गया। इस तरह  नक्सलबाड़ी गांव से उपजे आंदोलन का नाम पड़ा- ‘नक्सलवाद।’ और जिन लोगों ने किसानों की इस सशस्त्र गोलबंदी को सही माना, वे नक्सलवादी कहलाये।

सीपीएम के तत्कालीन नेतृत्व को चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में हुई यह कार्रवाई बचकानी लगी। आख़िरकार इन लोगों ने पार्टी से निकल कर एक ‘अखिल भारतीय क्रांतिकारी समन्वय समिति’ बनाई और 22 अप्रैल 1969 को यानी लेनिन के जन्मदिन पर एक नई पार्टी सीपीआई (एम.एल) का जन्म हुआ। इस बार कोष्ठक में ‘एम’ के साथ ‘एल’ भी जुड़ गया यानी यह पार्टी हुई – सीपीआई( मार्क्सवादी-लेनिनवादी)।

चारु मजूमदार भारत में चीन जैसी क्रांति की कल्पना करते थे जहां 20 साल पहले माओ ने गाँव-गाँव किसानों को गोलबंद करके शहरों को घेरने की योजना बनाई थी और अंतत: राजसत्ता पर कब्जा कर लिया था। चारू मजूमदार का सपना भी कुछ ऐसा ही था। क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी ने ‘वर्गशत्रुओं के सफाये’ का आह्वान किया, जिसकी परिणति व्यक्तिगत हत्याओं में हुई। यहाँ तक कि तमाम ‘बुर्जुआ नेताओं’ और विचारकों की चौराहे पर खड़ी मूर्तियां भी तोड़ डाली गईं।

अगले दो तीन साल तक यह सब चलता रहा। यूँ तो इसका असर पूरे देश के नौजवानों पर हुआ पर पश्चिम बंगाल ख़ासतौर पर इसकी चपेट में आया। तमाम प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों तथा मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों को इस आंदोलन ने आकर्षित किया। उधर,  सरकार ने भी भरपूर दमनचक्र चलाया। नक्सली होने के शक मात्र पर तमाम नौजवानों को गोली से उड़ा दिया गया।

1972 में चारू मजूमदार समेत तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। चारु की पुलिस हिरासत में ही मौत हो गई। चारू मजूमदार की मौत के बाद सीपीआई (एमएल) जल्दी ही कई ग्रुपों में बंट गई। इनमें दो गुट मजबूत होकर सामने आये। एक बिहार में ‘लिबरेशन’ ग्रुप और दूसरा आंध्र प्रदेश में ‘पीपुल्स वार’ ग्रुप। लिबरेशन और पीपुल्स वार इन ग्रुपों के मुखपत्रों का नाम था, जिनसे वे पहचाने गये।

बिहार के ग्रामीण इलाक़ों में लिबरेशन ग्रुप का असर था। यह ग्रुप दलितों के सम्मान और अधिकार के लिए लंबे समय तक यह सशस्त्र संघर्ष करता रहा। विनोद मिश्र इसके चर्चित नेता हुए। बहरहाल, पिछली सदी में अस्सी का दशक आते-आते लिबरेशन ग्रुप को भारतीय परिस्थिति में सशस्त्र क्रांति के विचार की सीमाएं समझ में आ गई थीं। उसने 1982 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट नाम का एक जनसंगठन बनाया जिसमें गैर कम्युनिस्ट ताकतों को अपने साथ जोड़ा।

आईपीएफ ने चुनाव लड़ना शुरू किया और 1989 में बिहार के आरा से पार्टी का सांसद भी चुना गया। यह किसी नक्सलवादी का पहला संसद प्रवेश था। बाद में 1992 में सीपीआई (एमएल) भूमिगत स्थिति से बाहर आ गई। उसने संसदीय व्यवस्था को स्वीकार करते हुए सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया। अब वह एक पंजीकृत राजनीतिक दल है। 2024 के चुनाव में बिहार से उसके दो सांसद चुने गये और बिहार विधानसभा में उसके करीब एक दर्जन विधायक हैं।

पीपुल्स वार ग्रुप का सबसे ज्यादा असर आंध्र प्रदेश में था। कोंडापल्ली सीतारमैया इसके सबसे बड़े नेता थे जिनका निधन 2002 में हुआ। सितंबर 2004 में इसका और बिहार में सक्रिय माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एम.सी.सी) नाम के एक अन्य नक्सली संगठन के साथ विलय हो गया। एक नई पार्टी बनी जिसका नाम हुआ सीपीआई (माओवादी)। इस पार्टी को विश्वास है कि बंदूकों के बल पर वह राजसत्ता को उखाड़ फेंकेगी।

आंध्रप्रदेश में दमन तेज होने पर इसके तमाम नेताओं ने छत्तीसगढ़ के जंगलों में शरण ली और धीरे-धीरे यहां उनका असर बढ़ गया। इसमें आदिवासियों के प्रति सरकारों का शोषणकारी रवैया भी ज़िम्मेदार था। सीपीआई (माओवादी) की ’पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी’ का सुरक्षाबलों के साथ संघर्ष चलता रहता है। 2009 में भारत सरकार ने सीपीआई (माओवादी) को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया था।

माओवादियों पर मिली निर्णायक बढ़त का जश्न मनाती सरकार को लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के दमन के कारण ही वहाँ माओवादी पार्टी के पैर जमे थे। पुलिसिया दमन के तहत अहिंसक तरीकों से अन्याय का प्रतिवाद करने वालों को भी माओवादी बताकर जेल में डालने का सिलसिला चला है।

सरकार को अपना यह रवैया बदलना होगा। जल-जंगल-जमीन का सवाल आदिवासियों का वास्तविक सवाल है और संविधान द्वारा संरक्षित भी है। अगर माओवादियों के दमन के पीछे असल इरादा यहाँ की जमीन के नीचे दबे खनिज को कॉरपोरेट कंपनियों पर लुटाना है, तो फिर छत्तीसगढ़ में शांति दूर की कौड़ी ही बनी रहेगी।

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

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