
“आपकी टिप्पणी से पूरा देश शर्मिंदा है, सार्वजनिक पद पर होने के नाते आपको अपने बयानों पर बेहद सावधानी बरतनी थी। अब यह आप पर है कि खुद को कैसे सुधारते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह की ओर से पेश माफी को खारिज करते हुए की। अदालत ने यह भी कहा कि कभी-कभी लोग बहुत विनम्र भाषा में परिणाम से बचने के लिए बनावटी माफी मांगते हैं…आपके बयान से सार्वजनिक रूप से आपका सच सामने आ चुका है…’अगर’ मैंने ऐसा किया… ऐसे शब्द घड़ियाली आंसू जैसे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी के बाद कोई भी व्यक्ति, जिसमें थोड़ी सी भी गैरत होती, तो तत्काल सार्वजनिक रूप से अपनी गलती स्वीकार कर लेता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चाल, चरित्र और चेहरे को लेकर नैतिकता का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टी को ही तत्काल ऐसे बदजुबान व्यक्ति को कैबिनेट से बाहर कर देना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ।
शुचिता और धर्म के रास्ते पर चलने का उद्घोष करने वाले संगठनों ने अमर्यादित बयान देने वाले इस मंत्री के खिलाफ क्यों मोर्चा नहीं खोला? नैतिकता की पैरवी करने वाले कथित गैर राजनीतिक लोगों को इस मसले पर काला झंडा लेकर विरोध यात्रा निकालनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ… भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश से लेकर केंद्र तक नेतृत्व इस मुद्दे पर क्यों चुप है। भाजपा हाईकमान छोटे से बड़े मुद्दे पर अपने मन की बात को बेहद मुखर होकर पेश करता है, तो इस पर आर्य मौन क्यों साध रखा है। क्या यह उसकी शुतुरमुर्गी रणनीति का हिस्सा तो नहीं कि रेत में सिर छुपा लो तो समस्या दिखना बंद हो जाए। क्या वाकई ऐसे रुख से वह मसला खत्म हो जाएगा, जिसमें एक मंत्री सरेआम दहाड़ कर एक जांबाज महिला सैन्य अधिकारी को आतंकवादी की बहन बोल रहा है।
माननीय हाईकोर्ट की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने यह मामला संज्ञान में लेकर कार्रवाई के आदेश दिए। वरना तो मामला रफा-दफा ही हो गया था। क्या पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के कानों तक हाईकोर्ट की यह टिप्पणी नहीं पहुंची कि मंत्री की भाषा गटर छाप है। यह अफसर नहीं सेना का अपमान है। इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते।
यदि नेतृत्व के कानों तक यह टिप्पणी पहुंची है, तो क्या उसमें तनिक भी तिलमिलाहट और कसमसाहट नहीं हुई कि ऐसे मंत्री को निकाल बाहर कर दे। अपनी नीतियों को लेकर यदि कोई असहमति भी जाहिर करता है, तो उसे देशद्रोही करार देने वालों को अपने मंत्री का बड़बोलापन देशद्रोह आखिर क्यों नहीं लगा।
मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि मामला कोर्ट में है। माननीय कोर्ट के आदेश की पालना की जाएगी। सवाल उठता है कि जब कोर्ट मंत्री पद या पार्टी से हटाने को कहेगी, तब ही हटाया जाएगा। आखिर देश और समाज हित में खुद कोई जिम्मेदारी उठाने और कार्रवाई करने में क्या हिचक है? इस मामले में मचे बवाल के बीच इंदौर में कैबिनेट की बैठक में विजय शाह के शामिल नहीं होने के प्रश्न पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा का यह बयान भी कितना अजब है कि कई बार मंत्री व्यक्तिगत कारणों से बैठक में शामिल नहीं हो पाते। अब इस बयान को क्या कहेंगे?
विजय शाह को लेकर चुप्पी के पीछे दो वजह बेहद स्पष्ट नजर आती हैं। पहला, अहंकार और दूसरा वोट बैंक की राजनीति।
वक्त भाजपा के साथ है और अटूट जनसमर्थन में उसे मौका दिया है कि वह देश और समाज हित में काम करे। भारी जन समर्थन से आत्म बल और आत्मविश्वास बढ़े तो अच्छा है, लेकिन इससे अहंकार पैदा होना खतरनाक है। अहंकार अतिआत्मविश्वास का बाय प्रोडक्ट होता है। जन समर्थन का यह आशय नहीं कि आप या आपका कोई साथी/ सहयोगी गलत करें तो भी आप उसे गलत ना मानें।
यह स्पष्ट दबंगई है। क्या भाजपा हाई कमान यह मानता है कि विजय शाह ने कुछ गलत नहीं किया तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें और अगर गलत मानती है तो तत्काल विजय शाह को बाहर करके यह संकल्प ले कि ऐसे शख्स को दोबारा मंत्री पद तो दूर की बात, पार्टी में आने तक ना देंगे।
अब बात करें वोट बैंक की राजनीति की। यह भी चुप्पी की एक बड़ी वजह हो सकती है। पार्टियां वोटों की खातिर नैतिकता को बंधक बनाकर रख लेतीं हैं। यह राजनीति का आम शगल हो गया है। कुछ भी करें चुनाव जीतना चाहिए। जिताऊ नेता चाहिए भले वह कोई भी हो और कैसा भी हो।
आदिवासी वोटों का गणित
विजय शाह गोंडों की उच्च जाति राजगोंड से हैं। मकड़ाई राजघराने के वंशज विजय शाह खंडवा जिले की अनुसूचित जनजाति समुदाय के लिए आरक्षित विधानसभा क्षेत्र हरसूद से आठ बार विधायक रह चुके हैं। वह 1990 से लगातार हरसूद सीट से विधायक हैं। वोटों का गणित यूं समझिए…
मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। इनमें से 22 अनुसूचित जनजाति, नौ अनुसूचित जाति की मालवा-निमाड़ में आती हैं। प्रदेश की कुल सीटों में इनकी हिस्सेदारी 20.5% है। देश की जनजाति की आबादी का 21% हिस्सा मध्यप्रदेश में निवास करता है। इस हिसाब से मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में से 46.8 प्रतिशत मालवा-निमाड़ क्षेत्र में पड़ती हैं। चुनाव में मालवा-निमाड़ की इन सीटों की निर्णायक भूमिका होती है। इन आंकड़ों से समझ सकते हैं कि अनुसूचित जनजाति के वोटों की क्या अहमियत है।
हालांकि भाजपा नेतृत्व इस वजह से शायद चुप्पी नहीं ही साधे होगा, क्योंकि उसे तो चुनाव जीतने के लिए सिर्फ एक नाम ही काफी है। वही जीत की गारंटी है। तो फिर प्रश्न वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि आखिर पार्टी या सरकार के स्तर से कार्रवाई नहीं करने में क्या बाधा है।
बता दें विजय शाह की बदजुबानी का यह पहला मामला नहीं है। 11 साल पहले सीएम की पत्नी को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। तब इस्तीफा लिया गया था। हालांकि फिर बहाली हो गई थी।
बहरहाल, अब देखना यह है की लाडली लक्ष्मी लाडली बहन जैसी महिलाओं के लिए फ्लैगशिप योजनाओं को चलाने वाली मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार और पार्टी देश की बेटी कर्नल सोफिया कुरैशी और सेना का अपमान करने वाले मंत्री पर क्या और कब कार्रवाई करती है।
बहरहाल, मध्य प्रदेश सरकार महिलाओं को लेकर बेहद संजीदा है। पिछले दिनों इंदौर में राजबाड़ा में मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव की अध्यक्षता में कैबिनेट की बैठक में देवी अहिल्याबाई की 300वीं जयंती पूरे प्रदेश में मनाने का निर्णय लिया गया। 31 मई को भोपाल में महिला सशक्तिकरण का महा सम्मेलन होगा। इसमें करीब दो लाख महिलाओं की भागीदारी का अनुमान है।
और अंत में… हैरत की बात तो यह है कि आमजनता आखिर क्यों चुप है। वह तो लोकतंत्र का असल भाग्य विधाता है।
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।