विशेष संपादकीय
– रुचिर गर्ग
छत्तीसगढ़ में बस्तर के अबूझमाड़ से फोर्स की खुशियों के वीडियो वायरल हैं।फोर्स ने सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बासवराजू को मार गिराया है।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इस ऐलान के बाद कि मार्च 2026 तक माओवाद का सफाया कर दिया जाएगा,आए दिन बस्तर में मुठभेड़ें हो रही हैं और माओवादी नेता, कैडर मारे जा रहे हैं।
सत्तर के दशक में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में बंगाल में चले नक्सल विरोधी ऑपरेशन सीपलचेज़ को कोई कैसे भूल सकता है जिसमें नक्सल नेताओं और कार्यकर्ताओं को सुरक्षाबलों ने बुरी तरह कुचला था।
नक्सलवाद उसके बाद के दशकों में फिर उठा और देश के बड़े हिस्सों में फैला।इस आंदोलन ने बहुत से उतार चढ़ाव देखे।2004 में देश में दो ताकतवर नक्सली संगठनों क्रमशः पीपल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद बनी सीपीआई (माओवादी) एक बड़ी ताकत बन कर उभरी।अब तक देश के प्राकृतिक संसाधनों वाले अधिकांश इलाकों में मजबूती से लेकर दुनिया के अनेक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों तक अपने संपर्कों से सीपीआई (माओवादी) एक बड़ी ताकत बन चुकी थी।इतनी बड़ी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। डॉ.मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से लेकर आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार तक नक्सलवाद या माओवाद तक मुकाबले की रणनीति एक ही थी – सैन्य रणनीति। लेकिन इन दिनों केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस रणनीति को जो धार दी है उसके नतीजे माओवादियों के लिए बेहद घातक साबित हो रहे हैं।नम्बाला केशव राव उर्फ बासवराजू जैसे शीर्ष नेता को मार देना जो, सीपीआई (माओवादी) की सिर्फ सैन्य रणनीति की ताकत नहीं थे बल्कि वैचारिक ताकत भी थे,यह बताता है कि बस्तर के जंगलों में अब वर्चस्व फोर्स का है।
माओवादियों को यह समझना होगा कि उनकी सैन्य लड़ाई एक ऐसे देश के सुरक्षाबलों से है जिनके सामने उनकी गुरिल्ला लड़ाई के कामयाब होने की कल्पना एक रूमानी सपने की तरह ही होगा। उन्हें यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र में हिंसा की राजनीति बेहतर विकल्प कभी भी नहीं होगी।
संसदीय लोकतंत्र की खामियां गिना कर हिंसा के औचित्य को स्थापित नहीं किया जा सकता।
और अगर लोकतंत्र की पहली शर्त अहिंसा है तो यह भी सच है कि लोकतंत्र में सरकारों की जवाबदेही भी बड़ी है और उसका धैर्य भी अंतहीन होना चाहिए। लेकिन, लोकतंत्र के धैर्य को क्या उसकी कमजोरी मान लेना चाहिए? क्या इस बात को नजरअंदाज कर देना चाहिए कि संविधान ही सरकार को इस बात की इजाजत देता है कि वो बंदूक का जवाब बंदूक से दे?
ऐसा नहीं है कि देश में नक्सलियों या माओवादियों के साथ कभी शांति की पहल हुईं नहीं। हुईं और वे विफल हुईं। सरकारों पर आरोप भी लगे, लेकिन ऐसी हर पहल का नतीजा शांति का टूटना ही होगा यह सभी को मालूम है, मालूम था क्योंकि माओवाद की राजनीतिक समझ का निर्माण माओ त्से तुंग की चर्चित शिक्षा, ‘राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से ही निकलती है’ से ही होता है।इसका साफ अर्थ है कि शांति वार्ता की कोई भी पहल एक तात्कालिक रणनीति है और राज्य इसे बखूबी समझता है।
इस लड़ाई में इतना खून खराबा उसी दिन से तय था, जिस दिन से अमित शाह ने माओवाद के सफाए का ऐलान कर दिया था। लेकिन, सवाल बस यह है कि आज माओवादियों की लाशें बिछा देने से क्या माओवाद का अंतिम संस्कार हो जाएगा ?
ऐसी लड़ाइयों में कोलेटरल डैमेज यानि निर्दोष लोगों के मारे जाने की आशंकाओं से इतर सवाल यह भी है कि क्यों लोकतंत्र को बार–बार विफल होने के बाद भी बार–बार चर्चाओं और युद्धविराम जैसी कोशिशों के रास्ते छोड़ने नहीं चाहिए ?
ये सवाल सिर्फ इतना नहीं है।
लोकतंत्र की बड़ी जिम्मेदारी तो इसके बाद शुरू होती है।
ये बड़ी जिम्मेदारी माओवाद प्रभावित इलाकों की जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की है। ये बड़ी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करने की है कि इन इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों का उतना ही इस्तेमाल हो जितना देश के विकास के लिए जरूरी है, ना कि कॉरपोरेट मुनाफाखोरी के लिए। बड़ी जिम्मेदारी इन इलाकों में भ्रष्टाचार और उगाही के धंधे को बंद करने की है। बड़ी जिम्मेदारी इन इलाकों में उत्पीड़न को खत्म कर लोकतंत्र की हवा के लिए वातावरण बनाने की होगी। एक बड़ी जिम्मेदारी सशस्त्र राजनीतिक कार्रवाइयों में यकीन रखने वालों को यह समझाने की भी होगी कि वाम हो या दक्षिण रास्ता हिंसा नहीं है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सशस्त्र हिंसा के इस माओवादी रास्ते की वकालत करने वाले राज्य की सशस्त्र ताकत को पहचानेंगे और बंदूक की राजनीति के बजाए, चाहे जितनी सड़ी–गली ही सही, आज की संसदीय राजनीति को ही बेहतर बनाने के लिए अहिंसा के रास्ते के साथ खड़े होंगे।
उन्हें याद रखना होगा कि उनके खाते में आदिवासी संघर्ष के नाम पर आदिवासियों की ही विचारहीन हत्याएं जिस तादाद में दर्ज हैं, इतिहास उनसे यह सवाल करेगा।
अगर नेपाल के माओवादी हिंसा की राह छोड़ सकते हैं तो हिंदुस्तान के क्यों नहीं ? पता नहीं उन्हें यह अनुमान है या नहीं कि उनके सफाए के लक्ष्य के साथ निकली सरकार कहां जा कर रुकेगी ?