नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक श्रीलंकाई नागरिक की याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि भारत कोई ‘धर्मशाला’ नहीं है, जो दुनिया भर के शरणार्थियों को आश्रय दे सके। जस्टिस दीपंकर दत्ता और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब याचिकाकर्ता ने भारत में शरण की मांग करते हुए अपने देश में जान का खतरा होने का दावा किया।
याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि वह श्रीलंका में 2009 के युद्ध में लिट्टे (LTTE) का हिस्सा रहा था और वहां लौटने पर उसे गिरफ्तारी और यातना का सामना करना पड़ सकता है। उसने यह भी कहा कि वह वीजा पर भारत आया था और उसका परिवार यहीं बसा हुआ है। हालांकि, जस्टिस दत्ता ने सवाल उठाया, “भारत को क्या पूरी दुनिया के शरणार्थियों को रखना चाहिए? हम पहले ही 140 करोड़ की आबादी को संभालने में जूझ रहे हैं।”
कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा कि उसे भारत में रहने का क्या अधिकार है। जब वकील ने श्रीलंका में जान के खतरे का हवाला दिया, तो जस्टिस दत्ता ने कहा, “किसी और देश में जाइए।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता की हिरासत संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत वैध है, क्योंकि यह कानूनी प्रक्रिया के अनुरूप है। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकार, जैसे अभिव्यक्ति और आवाजाही की स्वतंत्रता, केवल भारतीय नागरिकों के लिए हैं।
यह याचिका मद्रास हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती देती थी, जिसमें याचिकाकर्ता को सात साल की सजा (UAPA मामले में) पूरी होने के बाद तुरंत भारत छोड़ने का निर्देश दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता की हिरासत में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और कहा कि वह लगभग तीन वर्षों से बिना किसी प्रत्यर्पण प्रक्रिया के हिरासत में है।
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रत्यर्पण को लेकर भी हस्तक्षेप करने से मना किया था। इस फैसले ने एक बार फिर भारत की शरणार्थी नीति पर चर्चा को तेज कर दिया है।