दानिश अनवर की रिपोर्ट
आईये आज आप को ऊर्जा और जोश से भरी एक कहानी सुनाते हैं। इस कहानी को देखने सुनने के लिए आपको आना होगा छत्तीसगढ़ के एक गांव। ये गांव है इस राज्य की राजधानी से करीब 60 किलोमीटर दूर। यह गांव नेशनल हाईवे 30 पर है। रायपुर और बेमेतरा के बीच गांव है पथर्रा। नेशनल हाईवे से जब गांव की ओर मुड़ते हैं तो एक कच्ची सड़क आपको जहां लेकर जाती है, वहां संघर्ष की एक जोशीली कहानी लिखी जा रही है। इस कहानी की नायिका हैं कुछ बूढ़ी औरतें… उनके चेहरों की झुर्रियां, आंखों के चश्में और झुकी हुई कमर देखकर इनके हौसलों को कम मत आंकियेगा। ये हैं पथर्रा की दादियां…

ये लड़ रहीं हैं दो चार दस दिनों से नहीं और न ही दो चार हफ्तों से ही… इनकी लड़ाई अब करीब ढाई सौ दिनों की होने जा रही है। ये लड़ रहीं हैं एक फैक्ट्री के खिलाफ, एक ऐसी फैक्ट्री के खिलाफ जिसने इस गांव का जीना हराम कर रखा है। फैक्ट्री का प्रदूषित पानी इनके खेतों को बर्बाद कर रहा है और उसकी दुर्गंध ने सांस लेना भी मुश्किल कर डाला है। पथर्रा की दादियां अपना पर्यावरण बचाने के लिए लड़ रहीं हैं… पथर्रा की दादियां साफ हवा के लिए लड़ रही हैं… पथर्रा की दादियां अपनी आने वाली नस्लों की बेहतर जिंदगी के लिए लड़ रही हैं…
पथर्रा की दादियां सवाल कर रही हैं कि जब सारा गांव यहां इस फैक्ट्री के लगने के खिलाफ है तो फिर ये फैक्ट्री कैसे लग गई? यह कंपनी कैसे प्रदूषण फैला रही है? और गांव वालों की आवाज क्यों नहीं सुनी जा रही है?
इन दादियों की आवाज सुनने द लेंस की टीम इस गांव पहुंची। गांव में घुसते ही सबसे पहले जो लोग टकराए वो फैक्ट्री के कर्मचारी ही निकले। उन्होंने कहा कि गांव में तो कोई आंदोलन नहीं चल रहा है।
वाकई इस गांव में आंदोलन सा तो कोई नजारा था भी नहीं। न झंडे थे, न पोस्टर थे, न टेंट था, न माइक था, न कोई मंच था, न कुर्सियां या दरी ही बिछी हुई थी। हम आंदोलनकारियों की तलाश कर रहे थे। तब पता चला कि तालाब के किनारे 60, 70, 80 साल की जो बूढ़ी औरतें बैठी हैं, वे ही आंदोलनकारी हैं।
झुर्रियों से लदी काया, हौसले के साथ एक फैक्ट्री को चुनौती दे रही थीं, करीब ढाई सौ दिनों से।

इनकी लड़ाई इन्हीं के शब्दों में जानते हैं। एक दादी ने कहा, ‘8 महीना धरना देते हो गया है बेटा। कोई हम लोगों को सुनने को तैयार नहीं है। हमारे गांव में ये लोग कंपनी लगा रहे हैं। गंध से हम लोग परेशान हैं। खेती में परेशानी आने लगी है।‘
बात करने के दौरान हमारे मन में यह सवाल उठा कि क्या पथर्रा की इन दादियों की लड़ाई बिना किसी बाधा के चलती रही है? जो जवाब मिला, उससे पता चला कि वो सारी बाधाएं थीं, जो किसी जन आंदोलन की राह में आती हैं। सबसे बड़ी बाधा तो पुलिस की कार्रवाई ही थी। लेकिन, हैरानी तब हुई जब ये पता लगा कि पुलिस ने 70-70 साल की इन दादियों के खिलाफ एफआईआर ठोक दी।

कुमारी साहू नाम की एक बुजुर्ग महिला ने बताया, ‘हमको कंपनी नहीं चाहिए। 50 हजार का सामान ले गए। चोरी के मामले में हमारा सामान ले गए। पूरा गद्दा ले गया। कंपनी वाले पुलिस को बुलाकर सबको ले गए। पुलिस वाले बोल रहे थे कि कंपनी वाला जीत गया है। तुम लोग हटो यहां से।’ दादी ने आगे कहा, ‘बदबू से परेशान हैं। खेती नहीं हो पा रही है। गंध की वजह से खेती नहीं कर पा रहे। कंपनी को कैसे भी करके हटाना है। 8 महीने से धरना में बैठे हैं। कोई हम लोगों को सुनने को तैयार नहीं है। मेरे आदमी को जेल नहीं भेजे। अब वारंट निकालकर पेशी के लिए दौड़ा रहे हैं। जेल भेजना चाहिए था, तब बुड्ढा है बोलकर छोड़ दिए और अब परेशान कर रहे हैं।’
इन बुजुर्ग महिलाओं पर एफआईआर तो हुई है लेकिन अभी इनमें से किसी को जेल नहीं भेजा गया। लेकिन, इनका साथ देने वाले युवाओं को इसी जनवरी महीने में जेल भेज दिया गया।
गांव की तिजकली निषाद नाम की एक और बुजुर्ग महिला ने बताया, ‘हम कलेक्टर से लेकर विधायक सबके पास गए, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई। फैक्ट्री वाला पुलिस वालों से मिलकर हमको डरा धमका रहा था, लेकिन हम इनसे नहीं डरते।’

संसदीय लोकतंत्र की यह विडंबना देखिए कि इनकी लड़ाई में न इनके विधायक साथ हैं और न उनकी वो सरपंच, जिन्हें इन लोगों ने ही अपना वोट देकर चुना था। विधानसभा चुनाव में तो ये फैक्ट्री मुद्दा भी थी। जीत कर आने वाले ने वादा किया था कि वो जीते तो फैक्ट्री नहीं खुलने देंगे। वो जीते भी। उनका नाम है दीपेश साहू। भाजपा के विधायक दीपेश साहू से द लेंस ने संपर्क करने की कोशिश की, तो पहले बाद में बात न करने की बात कही। लेकिन, फिर उनसे संपर्क नहीं हो सका।
पथर्रा ग्राम पंचायत में यह प्रस्ताव पास हुआ था कि मुख्यमार्ग से अंदर आने वाली मार्ग पर भारी वाहन नहीं चलेंगे, लेकिन इसके बाद भी यहां भारी वाहन चल रहे हैं। गांव के पुराने सरपंच से संपर्क करने की कोशिश की तो वे बात करने को तैयार नहीं हुईं। गांव वाले पुलिस से लेकर विधायक तक इस संबंध में बात की। बताया जाता है कि वर्तमान विधायक दीपेश साहू को विधानसभा चुनाव में गांव वालों ने पूरा साथ दिया। चुनाव के दौरान दीपेश साहू ने यह वादा किया था कि अगर वे जीतते हैं तो इस फैक्ट्री को यहां खुलने नहीं देंगे। लेकिन, अब जब फैक्ट्री शुरू हो गई तो वे गांव के संबंध में बात करने को तैयार नहीं होते। जब गांव वाले बेमेतरा विधायक से मिलने जाते हैं तो विधायक बाहर होने का बहाना कर देते हैं।
हमने फैक्ट्री प्रबंधन से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन फैक्ट्री के लोग कैमरा देखते ही फैक्ट्री के अंदर चले गए। सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय इनकी लड़ाई और इनके विरुद्ध हुई पुलिस कार्रवाई के गवाह हैं।

गौतम बंदोपाध्याय ने बताया, ‘छत्तीसगढ़ में जिस तरह से एथेनॉल प्लांट लगाने की धुन चढ़ी है, वह गलत है। पिछली सरकार ने छत्तीसगढ़ में 21 एथेनॉल प्लांट लगाने का एमओयू साइन किया है। अकेले बेमेतरा जिले में ही 8 एथेनॉल प्लांट लगाया जाना है, जबकि बेमेतरा कृषि आधारित जिला है। एथेनॉल प्लांट से ग्राउंड वॉटर को नुकसान होता है। एथेनॉल प्लांट से प्रदूषण होता है। प्लांट के लिए कृषि की जमीन को इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे खेती का रकबा भी कम हुआ है।’ उन्होंने पथर्रा में हुए पुलिसिया एक्शन पर कहा, ‘पथर्रा में जिस तरह गांव वालों के साथ पुलिस ने ज्यादती की, वह पूरी तरह गलत है। कोर्ट ने भी इसे गलत ठहराया है। बुजुर्ग महिलाओं के खिलाफ एफआईआर की गई है और उन्हें कोर्ट के चक्कर कटवाए जा रहे हैं।’
इस संबंध में बेमेतरा के पुलिस अधीक्षक रामकृष्ण साहू ने कहा, ‘ये मामला अब कोर्ट में है। गांव वाले भी हट गए हैं। अब क्या गांव वालों को परेशान करना। इस मामले में मेरा अब कुछ ज्यादा कहना ठीक नहीं है।’
एथेनॉल की यह फैक्ट्री एक ऐसे विकास का उदाहरण है जो इस गांव की हरियाली, इस गांव की साफ हवा और इस गांव की सांसों के खिलाफ है। ये झुर्रियां, ये झुकी हुई कमर पिछले ढाई सौ दिनों से तो तनकर खड़ी हैं लेकिन ये कितने दिन इसी तरह लड़ती रहेंगी पता नहीं। लेकिन, पथर्रा की इन दादियों ने एक ऐसी इबारत तो लिख डाली है जहां लिखा है – उम्मीद!
अगली बार जब कभी आप रायपुर से बेमेतरा की ओर जाएं तो 60 किमी दूर बाईं ओर नजर घुमाईएगा, आपको एक मील का पत्थर मिलेगा, जिस पर लिखा होगा पथर्रा।
संघर्ष शील दादियों का गांव पथर्रा…
इस रिपोर्ट पर हमारी वीडियो स्टोरी यहां देखें: