
स्वतंत्र टिप्पणीकार
भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्धविराम के बाद यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि चार-चार युद्ध भारत से हारने के बावजूद पाकिस्तान भारत से लड़ने पर क्यों आमादा रहता है? यह सही है कि विदेशी क़र्ज़ के भरोसे अपनी गाड़ी घसीट रहे पाकिस्तान को फिलहाल चीन के संसाधन और तकनीक का सहारा है, लेकिन मुकाबले के लिए अगर इतने से काम चल जाता, तो फिर अमेरिका को न वियतनाम से भागना पड़ता और न अफगानिस्तान से। लड़ाई जारी रखने के लिए सबसे जरूरी है लड़ने की इच्छा का बलवती रहना और यह तभी हो सकता है जब इस इच्छा के पीछे निरंतर प्रेरणा का कोई स्रोत हो।
पहलगाम हमले के कुछ दिन पहले 16 अप्रैल को प्रवासी पाकिस्तानियों के एक जलसे को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के पहले ‘हाफिज-ए-कुरआन’ जनरल आसिम मुनीर ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान हर लिहाज से अलग हैं। वे किसी सूरत में साथ नहीं रह सकते। उन्होंने अपील की थी कि नयी पीढ़ी को ‘टू नेशन थ्योरी’ यानी ‘द्विराष्ट्रवाद’ के सिद्धांत को पढ़ाया जाए ताकि वे जान सकें कि पाकिस्तान को बनाने के लिए किस तरह की क़ुर्बानियाँ दी गई हैं।
जनरल मुनीर दरअसल, मो.अली जिन्ना की टू नेशन थ्योरी को दोहरा रहे थे जिसके दम पर अंग्रेजों की इजलास में उन्होंने पाकिस्तान का मुकदमा जीत लिया था। हालाँकि उनके ख्वाबों के इस्लामी मुल्क में गैर मुस्लिमों को बतौर नागरिक पूरी आजादी मिलनी थी, लेकिन बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय! नफरत की की बुनियाद का नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान के गैर मुस्लिमों के साथ जमकर भेदभाव हुआ। नफरत की बेल इतने पर ही नहीं रुकी। भाषा और और संस्कृति से दुराव की वजह से पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर ऐसा ज़ुल्म ढाया गया कि 1971 में पाकिस्तान दो टुकड़ों में बँट गया और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। लेकिन हुक्मरानों ने सबक नहीं सीखा। शिया समुदाय के खिलाफ भी खूनी हमले शुरू हुए और अहमदिया समुदाय को गैर इस्लामी घोषित कर दिया गया।
साफ है कि इस्लाम के आधार पर राष्ट्र बनाने का जिन्ना का ख्वाब पूरी तरह दम तोड़ चुका है। बलूचिस्तान की आजादी का हालिया ऐलान क्या शक्ल लेगा, यह अभी कहना मुश्किल है, लेकिन कटे-बँटे पाकिस्तान की एकता भी संकट में है, यह बात स्पष्ट है। ऐसा लगता है कि ‘भारत विरोध’ के नाम पर पाकिस्तान में राष्ट्रवाद की नई लहर चलाने की कोशिश हो रही है, जिसकी आड़ में हर आवाज़ को कुचला जा सके। वैसे भी 78 सालों में 31 साल पाकिस्तान ने सैनिक तानाशाहों के साये में गुजारे हैं, इसलिए लोकतंत्र का सवाल ऐसी स्थिति में बेमानी ही होगा। कहते हैं कि जनरल मुनीर को सेनाध्यक्ष बनाया ही गया था प्रधानमंत्री इमरान खान को नियंत्रित करने के लिए। वे इसमें कामयाब हुए। हास्यास्पद आरोपों में इमरान खान को जेल पहुँचा दिया गया और एक फर्जी चुनाव के सहारे शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया जो सेना के प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
1971 में बांग्लादेश बन जाने से आहत पाकिस्तान को महसूस हो गया था कि वह सीधी लड़ाई में भारत से नहीं जीत सकता। ऐसे में प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलट कर उन्हें फाँसी चढ़ाने वाले जनरल जिया उल हक के समय भारत को ‘हजार घाव देते रहने’ की नीति शुरू की। जनरल जिया ने नागरिक प्रशासन ही नहीं, फौज का भी इस्लामीकरण कर दिया। एक मस्जिद के इमाम के बेटे आसिम मुनीर उसी दौर में सेना में भर्ती हुए थे जब भर्ती में तमाम छूट देकर कट्टरपंथियों के लिए फौज के दरवाजे खोल दिये गये थे। जनरल जिया की नीति का ही नतीजा है कि कश्मीर से लेकर जम्मू-कश्मीर तक अलगाववादियों को हथियार मुहैया कराया गया। आतंकियों को फौज ने ट्रेनिंग दी ताकि वे लगातार गुरिल्ला तरीके से हमला करके भारत को तकलीफ पहुँचाते रहें।
वैसे, जनरल मुनीर के पास आँखें होतीं तो वे देख पाते की पाकिस्तान की इच्छा के खिलाफ भारत में हिंदू और मुसलमान साथ रहते और तरक्की करते आये हैं। यह उनकी इस थीसिस से बिल्कुल अलग है कि हिंदू और मुस्लिम साथ नहीं रह सकते। अगर उन्होंने सैन्य कार्रवाई के दौरान कर्नल सोफिया कुरैशी की प्रेस कॉन्फ़्रेंस देखी होगी तो उन्हें समझ आया होगा कि भारत में हिंदू और मुसलमान साथ रहते ही नहीं, दुश्मनों से लड़ने के लिए एक साथ खून भी बहाते हैं। कर्नल सोफिया कुरैशी के जरिये भारतीय सेना ने भी यह संदेश भी दे दिया कि उसकी प्रतिबद्धता भारत के सेक्युलर संविधान के प्रति है।
पाकिस्तान भारत की इसी खूबसूरती से बेचैन है। इसीलिए पहलगाम में हमला करने वालों ने धर्म पूछकर हिंदुओं की जान ली। वे चाहते थे कि इसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हो और जगह-जगह मुस्लिम विरोधी दंगे शुरू हो जाएँ। लेकिन देश की जनता ने जबरदस्त परिपक्वता का परिचय दिया। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के मुसलमानों ने सड़क पर उतरकर पाकिस्तान की निंदा की। इस आक्रोश की तीव्रता ने पाकिस्तान की बेचैनी निश्चित ही बढ़ाई होगी।
बहरहाल, देशभक्ति का मोर्चा सिर्फ सरहद पर नहीं लगता। पाकिस्तान को वाकई सबक सिखाना है तो द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को हमेशा के लिए दफन करना पड़ेगा। ये बात साफ हो जानी चाहिए कि हिंदू-मुसलमान में नफरत फैलाने वाले आतंकियों के प्रोजेक्ट को ही आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसी हरकतों से सबसे ज्यादा खुशी जनरल आसिम मुनीर जैसों को मिलती है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि सेक्युलर हिंदुस्तान के रहते पाकिस्तान के विचार को दार्शनिक वैधता नहीं मिल पाएगी।
यानी पाकिस्तान को वास्तव में सबक सिखाने के लिए जरूरी है भारत के अंदर सांप्रदायिक सौहार्द और समन्वय को बढ़ाया जाए। हिंदू और मुसलमानों के बीच चट्टानी एकता बनायी जाये। अफसोस कि इस राह में सबसे बड़ी चुनौती केंद्र और तमाम राज्यों की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ही है जो सांप्रदायिक विभाजन के खाद पानी से ही ताकत पाती रही है। हाल में महू में मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने जिस तरह भारतीय सेना का प्रतीक चेहरा बनकर उभरीं कर्नल सोफिया कुरैशी को ‘आतंकियों की बहन’ कहा, वह बताता है कि नफरत का पाठ्यक्रम किस स्तर तक पढ़ा जा रहा है। और यह किसी एक व्यक्ति का मसला नहीं है। बीजेपी के बड़े से बड़े कार्यकर्ता से लेकर छोटे से छोटे नेता तक इसी नफरत से भरे हुए हैं। वे भूल जाते हैं कि उनके नफ़रती अभियान पाकिस्तानी विचारकों को सही साबित करते हैं। सत्ताधारी दल होने के नाते बीजेपी की ज़िम्मेदारी है कि वह सेक्युलर विचारों के साथ खुलकर खड़ी हो और इसकी राह में रोड़ा बनने वालों पर कार्रवाई कराये। लेकिन वह तो ‘सेक्युलर’ शब्द के खिलाफ ही अभियान चलाने के लिए मशहूर है।
पाकिस्तान से निपटने के लिए यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान को ‘एक’ मानना बंद कर दिया जाए। पाकिस्तान में सिविल सोसायटी भी है, जो सच्चे अर्थों में लोकतंत्र चाहती है। पूर्व क्रिकेट कप्तान की तहरीक-ए- इंसाफ पार्टी का राजनीति में आना और छा जाना इसका उदाहरण है। इमरान ने सेना को बैरक में रहने की नसीहत दी और खुद जेल पहुँच गये। इसलिए जनता, सेना और सरकार के साथ अलग-अलग ढंग की नीति बनानी होगी। साथ ही भारत को अपनी तस्वीर भी चमकानी होगी। मुस्लिमों का हाशियाकरण बंद करना पड़ेगा। सार्वजनिक जीवन में मुस्लिमों के लिए जगह लगातार कम हुई है और यह बीजेपी के मुस्लिम विरोधी रवैये के कारण है जिसे बदलना होगा। कुल मिलाकर लोकतांत्रिक और सेक्युलर देश के रूप में भारत को एक आदर्श पेश करना होगा ताकि पाकिस्तानी समाज में आंतरिक बहसें तेज हों। एक बेअंदाज और परमाणु शस्त्रों से लैस पड़ोसी से लड़ने का फिलहाल कोई दूसरा चारा नहीं है। पाकिस्तान के विचार को निरर्थक साबित करके भारत उसे कहीं ज्यादा बड़ी चोट दे सकता है। युद्ध कोई विकल्प नहीं है और सीजफायर को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की सक्रियता बताती है कि परमाणु संहार से घबराई दुनिया भारत-पाक के बीच युद्ध होने भी नहीं देगी।