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फिर छिड़ी बात ‘जेनेरिक ‘ की …

अपूर्व गर्ग
Last updated: June 24, 2025 2:54 pm
अपूर्व गर्ग
Byअपूर्व गर्ग
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अपूर्व गर्ग
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देश की बड़ी आबादी इलाज से वंचित है, दवाओं से वंचित है। ठीक ऐसे समय यदि देश की सबसे बड़ी अदालत जन स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है और दवाइयों के बढ़ते दाम कम करवाना चाहती है तो यह एक सकारात्मक कदम है, जरूरी पहल है। थैंक यू माय लॉर्ड्स!

दवाओं के बढ़ते दामों के लिए सुप्रीम कोर्ट जब बात जेनेरिक दवाओं पर ही केंद्रित रखकर देश के डॉक्टर से ही पूरी उम्मीद, अपेक्षा और अपील करती है तो कुछ सवाल खड़े होते हैं। सवाल है, सिर्फ जेनेरिक दवाओं से ही दवा की कीमतें कम करने की मंशा है तो दवा मूल्य नियंत्रण कानून (डीपीसीओ) की क्या भूमिका है?
डॉक्टरों के किस संगठन ने रोका है कि डीपीसीओ से मूल्य कम न हों? एनपीपीए की ‘प्राइसिंग पॉलिसी’ के बावजूद लगातार मूल्य कैसे कई गुना बढ़ रहे हैं? माननीय सुप्रीम कोर्ट की इस एनपीपीए की प्राइसिंग पॉलिसी पर कोई सशक्त टिप्पणी हो तो कोई बताए?

दूसरी बात, 1970 के इंडियन पेटेंट एक्ट के बाद देश के दवा बाजार में क्रांतिकारी परिवर्तन आया था। इसके तहत ‘प्रोसेस पेटेंट’ के तहत देश की दवा कंपनियों ने दुनिया भर में उपलब्ध दवाओं को दूसरे प्रोसेस से बनाकर सभी दवाओं को सस्ती दरों में उपलब्ध करवाया था। इसमें आईडीपीएल, एचएएल, बीआई जैसी कई सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों की भूमिका थी, पर आज कब का संशोधित हो चुका वह 1970 का इंडियन पेटेंट एक्ट और दम तोड़ चुकी वह सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियाँ, जो बनाई ही इसलिए गई थीं कि जनता को सभी दवाएं सबसे सस्ती दरों पर मिलें।

ऐतिहासिक तथ्य है, सत्य है कि इंडियन पेटेंट एक्ट 1970 के बाद बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का एकाधिकार टूटा था और विश्व बाजार में नई दवा के आने के तुरंत दो-तीन साल बाद ही प्रोसेस पेटेंट की वजह से नई-नई दवाएं भारत में रियायती दरों पर उपलब्ध रहतीं। इसके बावजूद इस दौरान आवश्यक जीवन रक्षक दवाओं की उपलब्धता को लेकर कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे, जिसके लिए हाथी कमेटी का भी गठन किया गया था।

दवाओं के दामों को कम करने और आवश्यक दवाओं की उपलब्धता को लेकर अब तक की सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश ‘हाथी कमेटी’ ने 1975 में की थी। इन सिफारिशों को लागू करने में हाथ कांपते रहे, क्यों? दवा उद्योग से जुड़ा इलेक्टोरल बांड मुद्दा जवाब है कि दवा उद्योग की सच्चाई क्या है? इस पर से पूरा पर्दा कौन उठाएगा?

दवाओं पर जीएसटी शून्य होना चाहिए, पर इस जीवन रक्षक पर तीन स्तरों पर जीएसटी है, क्यों? क्या आज जेनेरिक दवाई भी टैक्स मुक्त है? क्या आज आवश्यक, जीवन रक्षक दवाई टैक्स मुक्त हैं? क्या यह भी एक सच्चाई नहीं कि यही डॉक्टर, जो कोविड के दौरान ऐतिहासिक भूमिका निभाते हैं, शहीद भी होते हैं, ब्रांडों की प्रतियोगिता के चलते सबसे सस्ते ब्रांड अपने मरीज़ को लिखते हैं। अपवाद ज़रूर होंगे, पर सवाल कहीं गहरे और बड़े हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट की मंशा और पहल सराहनीय है, पर साथ ही बड़े और अनुत्तरित सवालों के जवाब भी अपेक्षित हैं।

इस वक्त बात सिर्फ जेनेरिक दवाओं पर केंद्रित की जाए तो पहला सवाल यही है कि क्यों नहीं सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों को पुनर्जीवित किया जाता है, ताकि जेनेरिक ही नहीं, सस्ती और उच्च गुणवत्ता की दवाएं भी मिल सकें। यहां दवाओं की गुणवत्ता का जिक्र इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि पिछले कई सालों में खबरों में निम्न और घटिया स्तरहीन दवाओं की खबरें लगातार आती रही हैं, यह भयावह और चिंताजनक है।

दवाओं के बढ़ते मूल्यों के साथ पहले फोकस गुणवत्ता पर होना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियाँ उच्च गुणवत्ता की जेनेरिक दवाएं बनाएं और इसे रियायती दरों पर उपलब्ध कराएं। जिस दिन से ऐसा होगा, उसके बाद गुणवत्ता के सवाल पर चिंतित डॉक्टर का बहुत बड़ा हिस्सा भी जेनेरिक अपनाएगा, पर इसके लिए जरूरी है दवा नीति में बुनियादी बदलाव। क्या यह देश तैयार है ऐसे बड़े बदलाव के लिए? क्या दवाओं को जीएसटी से पूरी तरह मुक्त रखा जाएगा, जो आज 5, 12, 18 फीसदी तीन स्तरों पर है?

अनुपयोगी दवाओं से देश का दवा बाजार भरा हुआ है और अक्सर जरूरी दवाएं गायब रहती हैं। महामारी के दौरान यह हमने देखा भी पिछले दिनों टीवी पर दवाओं की कमी और अनुपलब्धता की खबरें थीं, जबकि रिपोर्ट यह थी कि प्रतिवर्ष 25.55 लाख टीबी के नए मरीज़ मिलते हैं, जिसमें 1 लाख 43 हजार बच्चों की संख्या है। ऐसी स्थिति से युद्ध स्तर पर निपटने की जरूरत है। कंपलसरी लाइसेंसिंग के जरिए आवश्यक दवाएं उपलब्ध कराने की जरूरत है। इसी तरह एनपीपीए यानी राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण ने दवाओं के दाम में जो उल्लेखनीय बढ़ोतरी की, उस पर पुनर्विचार हो। आखिरी बात, सिर्फ जेनेरिक दवाओं की बात कर इसे डॉक्टरों से जोड़ने से तस्वीर नहीं बदलेगी। पूरे तालाब का पानी यदि बदलना है तो जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे बुद्धिजीवियों द्वारा सुझाई गई वैकल्पिक नीतियों पर गौर करना होगा।

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

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Byअपूर्व गर्ग
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