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लेंस रिपोर्ट

कफन से लेकर मृत्युभोज तक, छत्तीसगढ़ के एक गांव ने की नई पहल

नितिन मिश्रा
नितिन मिश्रा
Byनितिन मिश्रा
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Published: May 2, 2025 9:00 AM
Last updated: May 1, 2025 9:46 PM
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From shroud to funeral
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न शोक में भोज उचित, न दुख में ढोंग, मृत्यु सत्य है जीवन का, पर यह रीत न संतोष।

खर्चा अनावश्यक, दिखावा बेकार, क्या आत्मा को शांति मिले, भरे पेट का आधार?

रायपुर। मृत्युभोज यानि किसी व्यक्ति की मौत के बाद हिन्दुओं में पारंपरिक रूप से आयोजित किया जाने वाला सामूहिक भोज। बदलते समय के साथ-साथ अब मृत्यु भोज का स्वरूप भी बदल गया है। मृत्युभोज में परोसे जाने वाले भोजन और किसी विवाह समारोह के भोजन में कोई अंतर नहीं है। और जाहिर है, इस पर होने वाले खर्च में भी। किसी की मृत्यु के गहरे दुख के बीच होने वाले मृत्यु भोज को लेकर अब कई समाजों में आवाजें उठने लगी हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे गांव छछानपैरी ने मृत्युभोज पर पूरी तरह से प्रतिबंध (From shroud to funeral) लगाकर साहसिक कदम उठाया है। खास बात यह है कि यह फैसला गांव में सर्वसम्मति से लिया गया। 

छछानपैरी के जनप्रतिनिधियों और समाजिक लोगों ने यह निर्णय लिया है। हमारी इस रिपोर्ट में जानिए मृत्युभोज के अभिशाप को लेकर छछानपैरी गांव में क्या परंपरा बनाई गई है और इससे समाज क्या सीख सकता है।

पहले जानिए छछानपैरी गांव के बारे में

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब सात किलोमीटर दूर स्थित है, छछानपैरी। 2220 लोगों की आबादी वाला यह गांव सतनामी बहुल है। उनके अलावा यहां यादव और आदिवासी समाज के लोग भी रहते हैं।  छछानपैरी गांव की साक्षरता दर 63.15% है, जिसमें से 72.39% पुरुष और 54.35% महिलाएं साक्षर हैं।

मृत्युभोज पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला गांव

छछानपैरी के लोगों का दावा है कि उनका गांव छत्तीसगढ़ का पहला ऐसा गांव है जिसने मृत्युभोज की परंपरा पर पूर्ण विराम लगा दिया है। इस फैसले में गांव के सारे समुदायों के लोग शामिल हैं।

पिछले साल 2024 में गांव के लोगों ने मृत्युभोज पर प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया था। साथ ही ग्राम पंचायत ने भी गांव वालों के फैसले पर मुहर लगाई थी। केवल यही नहीं यदि गांव में किसी परिवार में मृत्यु होती है और वह परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है, तो गांववासी मिलकर अंतिम संस्कार में आर्थिक मदद भी करते हैं।

मृत्युभोज एक अभिशाप

द लेंस रिपोर्टर ने छछानपैरी गांव पहुंचकर जमीनी स्तर पर मृत्युभोज की हकीकत को लेकर लोगों से बात की। गांव के पूर्व सरपंच और सतनामी समाज के अध्यक्ष महेंद्र चेलक बताते हैं, “मृत्युभोज के बहिष्कार में एक प्रस्ताव लाया गया था, चूंकि यहां बड़े परिवार हैं जिसकी वजह से मृत्युभोज कराने में बहुत खर्च आता है, इसलिए यह प्रस्ताव लाया गया था। यदि किसी को मृत्युभोज आयोजित करना है तो वह अपने परिवार के लोगों को ही भोजन पर बुला सकता है, पूरे गांव को भोज में बुलाने पर प्रतिबंध है। यदि कोई परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है तो उनका अंतिम संस्कार के कार्यक्रम में सहयोग कर केवल पांच लोगों को भोजन करवा कर परंपरा निभाई जाती है। हमारे यहां के यादव और आदिवासी समाज के लोगों ने भी मृत्यु भोज के दायरे को कम कर दिया है।“

अपने परिवारों को मृत्युभोज में बुलाना पर्याप्त

गांव के पूर्व उपसरपंच युगल किशोर कुर्रे का कहना है कि, हमारे गांव में सतनामी समाज बड़ी संख्या में हैं, और परिवार भी बड़ा है जिसकी वजह से मृत्युभोज में बहुत पैसे खर्च हो जाते हैं। उन परिवारों को ज्यादा से ज्यादा 25 लोगों का भोज आयोजित करने का निर्णय लिया गया है। इसके लिए पहले समाज में सूचना देना जरूरी होता है। मैं भी यहीं सोचता हूं कि मृत्युभोज बंद होना चाहिए, कई गरीब परिवार हैं जो नहीं कर पाते हैं। अमीर परिवारों को इससे समस्या नहीं होती है। हमारे गांव में मृत्युभोज का दायरा कम कर दिया गया है। मृत्युभोज में जो भोजन बनेगा वो पूरी तरह सादा होना चाहिए।

शादी के भोज और मृत्यु भोज एक सामान

द लेंस रिपोर्टर गांव के  लोगों से मृत्युभोज के बारे में बात की, गांव के लोगों का कहना है कि समाज में एक प्रथा चली आ रही है। सामाजिक प्रथा के अनुसार मृत्युभोज चल रहा है, अब शादी और मृत्युभोज एक जैसा हो गया है, इसलिए हमारे गांव ने फैसला लिया है कि इसे कम किया जाए। जिससे गरीब परिवारों में किसी तरह की हीन भावना न आए। शादी करते हैं तो बफे सिस्टम रखते हैं, मृत्युभोज में भी बफे सिस्टम रखते हैं। ये परिवारों के ऊपर बोझ बन गया है। हमारे गांव ने इस प्रथा को बिल्कुल कम कर दिया है।

कफन को लेकर भी गांव की सराहनीय पहल

गांव में लंबे समय से एक प्रथा चली आ रही है कि यदि गांव के लोग किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके घर जा रहें हैं तो कफन लेकर जाते हैं। इस प्रथा पर भी छछानपैरी गांव ने नई पहल शुरू की है। अब गांव के लोग किसी शोकाकुल परिवार के बीच जाते हैं, तो कफन लेकर नहीं जाते हैं। गांव के लोगों ने बताया कि अब हम कफन लेकर नहीं जाते हैं, इसकी जगह उस परिवार को आर्थिक रूप से मदद करते हैं। यहां तक कि बाहर से यहां आने वाले लोग भी यहां से सीख लेकर जा रहे हैं और अपने गांव में इसे लागू कर रहें हैं।

छत्तीसगढ़ के साहू समाज ने बनाया है नियम

छत्तीसगढ़ प्रदेश साहू संघ ने  समाज सुधार की दिशा में वर्षों पहले सामाजिक आचार संहिता नियमावली बनाया बनाई है। इसमें अनुच्छेद 16 में मृत्यु संस्कार नियमावली में मृत्यु भोज आवश्यक नहीं होगा तथा मृत्यु भोज शांति भोज में मिष्ठान कलेवा पूरी तरह प्रतिबंधित है। मृतक भोज यदि स्वेच्छा से कराया जाता है, तो पूर्णता सादा चावल, दाल, सब्जी, भोजन की व्यवस्था किया किए जाने का उल्लेख है। वहीं मेहमानों को आते ही दिए जाने वाला नाश्ता नहीं दिया जा रहा है। इसी तरह अंतिम संस्कार के समय कफन परिवार के द्वारा सदस्य ही डालने का नियम है। जो लोग अंत्येष्टि में शामिल होंगे वे दानपेटी में राशि दान के रूप में सहयोग कर सकते हैं।

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