अक्सर मजदूर आंदोलनों के कमजोर होने के लिए 1970 के दशक की ट्रेड यूनियनों की अराजकता और तालाबंदी को जिम्मेदार ठहराया जाता है, लेकिन शायद आज मई दिवस (May Diwas) ही ठीक समय है, जब इस पर चर्चा होनी चाहिए कि देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के संकल्प में अर्थव्यवस्था की बुनियादी इकाई मजदूरों की जगह कहां है? निस्संदेह आर्थिक मजबूती ने भारत को आत्मनिर्भर बनाया है, लेकिन जिस तरह से आर्थिक तंत्र पर कुछ सीमित ताकतों की पकड़ मजबूत होते जा रही है, उसमें मजदूर और अधिक हाशिये पर आ गए हैं। मजदूर आंदोलनों के कमजोर होने से संगठित क्षेत्र के मजदूर तो कमजोर हुए ही हैं, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति और भी बदतर हो गई है। इसकी एक बड़ी वजह तो यही है कि कभी रेलवे स्ट्राइक के लिए चर्चित रहा सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर हुआ है। सरकार ने 44 श्रम कानूनों की जगह जो चार श्रम संहिताएं प्रस्तावित की हैं, जिनमें से कुछ लागू भी हो चुकी हैं, उसे लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है। श्रम संहिताओं से औद्योगिक प्रबंधन और मालिकों को मनमानी की छूट मिलने की आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। मसलन, औद्योगिक संबंध संहिता में 300 श्रमिकों तक की फैक्ट्रियों को बिना सरकारी अनुमति के छंटनी की छूट है।यहां गिग वर्करों की चर्चा करना भी जरूरी है, जिन्हें अमानवीय परिस्थितियों में तो काम करना ही पड़ता है और कई बार उन्हें इसलिए भी अपमानित होना पड़ता है कि उनका रंग या धर्म कस्टमर को पसंद नहीं! दरअसल यह हम सबके लिए यह सोचने का अवसर भी है कि मई दिवस सिर्फ रस्म अदायगी न रह जाए।